Friday, March 29, 2024
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आखिर अब विपक्ष का कौन करेगा नेतृत्व?

सवाल उठना लाजिमी है कि अब विपक्ष का नेतृत्व कौन करेगा! क्या विपक्षी एकता की दिशा में नेतृत्व का चेहरा तय करना सबसे बड़ी बाधा है? नेतृत्व का मसला क्यों 2024 आम चुनाव से पहले मुखर होकर सामने आ रहा है? क्या इस मसले पर विपक्षी दलों के बीच सहमति या बीच का रास्ता निकल सकता है? पिछले कुछ दिनों से इस मसले पर कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के बीच लगातार बयानबाजी हुई। विपक्षी एकता की कोशिश में नेतृत्व का चेहरा किसका होगा इसे लेकर कांग्रेस में दो राय है। पार्टी का एक वर्ग और गांधी परिवार का विश्वासी चुनाव में राहुल गांधी को चेहरा बनाने के पक्ष में है। उनका तर्क है कि भारत जोड़ा यात्रा और पिछले कुछ सालों से लगातार संघर्ष करने के बाद राहुल गांधी विपक्ष में अकेले सबसे स्थापित और स्वाभाविक चेहरे हैं। दूसरा वर्ग विपक्षी एकता को मजबूत करने की दिशा में नेतृत्व को लेकर समझौता करने के पक्ष में है। दिलचस्प बात है कि खुद राहुल गांधी की भी यही राय है। पार्टी के एक सीनियर नेता के अनुसार, राहुल गांधी इस मामले में समझौता करने को तैयार हैं। पिछले कुछ मौकों पर राहुल ने इस बारे में संकेत भी दिया कि वह पीएम पद के दावेदारों की लिस्ट में नहीं हैं। दूसरे विपक्षी दलों का तर्क है कि कांग्रेस को इस बारे में एक स्पष्ट राय रखनी होगी और बार-बार इस स्टैंड में बदलाव उलझन ही पैदा करता है। नेतृत्व को लेकर क्षेत्रीय दलों में दावेदारों की कमी नहीं है। उनमें से कुछ ने तो अपना चेहरा परोक्ष या अपरोक्ष रूप से घोषित कर दिया है। 2024 आम चुनाव के मद्देनजर TMC की ममता बनर्जी, JDU के नीतीश कुमार, AAP के अरविंद केजरीवाल और ‌BRS के के. चंद्रशेखर राव की महत्वाकांक्षाएं सामने आई हैं। उसे देखते हुए कांग्रेस के लिए विपक्षी एकजुटता का मंच सजाना आसान नहीं होगा।

तेलंगाना के सीएम राव ने तो खुद को नेतृत्व का चेहरा स्पष्ट रूप से घोषित कर दिया है। अखिलेश यादव ममता बनर्जी के नेतृत्व को स्वीकारने की बात करते रहे हैं। जानकारों के अनुसार नेतृत्व को लेकर यह उलझन विपक्षी एकता की दिशा में सबसे बड़ी बाधा है।क्षेत्रीय दल आम चुनाव से पहले नेतृत्व का चेहरा तय करने के सख्त खिलाफ हैं। ये तमाम दल विपक्षी एकता के हिमायती तो हैं लेकिन इसमें कांग्रेस की सीमित भूमिका देखते हैं। पिछले हफ्ते समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो अखिलेश यादव ने कांग्रेस को सलाह दी कि वह क्षेत्रीय दलों की ताकत को समझे।

अखिलेश के बयान के अगले दिन तेजस्वी यादव ने भी कांग्रेस को सलाह दी कि वह उन सीटों पर पूरी ताकत लगाए, जहां उसकी टक्कर BJP से है और जहां क्षेत्रीय दल BJP से टकरा रहे हैं वहां वह मुकाबला उनके लिए छोड़ दे। कुछ दूसरे क्षेत्रीय दल भी इसी तरह की सलाह दे चुके हैं। ये सभी आम चुनाव में सीट दर सीट, राज्य दर राज्य लड़ना चाहते हैं जिसमें नेतृत्व का चेहरा की जगह संगठित प्रयास हो। अखिलेश यादव ममता बनर्जी के नेतृत्व को स्वीकारने की बात करते रहे हैं। जानकारों के अनुसार नेतृत्व को लेकर यह उलझन विपक्षी एकता की दिशा में सबसे बड़ी बाधा है।क्षेत्रीय दल आम चुनाव से पहले नेतृत्व का चेहरा तय करने के सख्त खिलाफ हैं। ये तमाम दल विपक्षी एकता के हिमायती तो हैं लेकिन इसमें कांग्रेस की सीमित भूमिका देखते हैं। पिछले हफ्ते समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो अखिलेश यादव ने कांग्रेस को सलाह दी कि वह क्षेत्रीय दलों की ताकत को समझे।नेतृत्व के मसले पर विपक्षी एकता के अवरोध को दूर करने के लिए भी कई तरह के प्रस्ताव आ रहे हैं। इसमें बीच का रास्ता निकालने की बात कही जा रही है। इसके लिए सबसे पहले UPA को नए सिरे से खड़ा करने का एक गंभीर प्रस्ताव है। इसका संयोजक किसी गैर-कांग्रेसी विपक्षी नेता को बनाने का भी एक प्रस्ताव था।

ऐसा ही एक प्रस्ताव कुछ साल पहले NCP सुप्रीमो शरद पवार के लिए आया था।अखिलेश यादव ममता बनर्जी के नेतृत्व को स्वीकारने की बात करते रहे हैं। जानकारों के अनुसार नेतृत्व को लेकर यह उलझन विपक्षी एकता की दिशा में सबसे बड़ी बाधा है।क्षेत्रीय दल आम चुनाव से पहले नेतृत्व का चेहरा तय करने के सख्त खिलाफ हैं। ये तमाम दल विपक्षी एकता के हिमायती तो हैं लेकिन इसमें कांग्रेस की सीमित भूमिका देखते हैं। पिछले हफ्ते समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो अखिलेश यादव ने कांग्रेस को सलाह दी कि वह क्षेत्रीय दलों की ताकत को समझे। उस वक्त कांग्रेस ने इसका विरोध किया था। अब कांग्रेस के नेता इस प्रस्ताव के प्रति नरम हो रहे हैं। सोनिया गांधी की सक्रियता अब कम हो गई है। प्रस्ताव है कि इसी संयोजक के जिम्मे एक सीट, एक उम्मीदवार को सुनिश्चित कराने की जिम्मेदारी होगी। मगर, इस प्रस्ताव को अमल में लाना भी इतना आसान नहीं है।

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