इस्लाम धर्म के लोगों के लिए मोहर्रम का महीना पाक महीना कहलाया जाता है. मोहर्रम के महीने को काफ़ी ख़ास माना जाता है क्योंकि यह महीना इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना होता है आपको बता दें आज के दिन यानी 19 जुलाई 2023 से इस महीने की शुरुआत हो चुकी है. जैसा कि सभी जानते हैं मुस्लिम धर्म के लोगों के लिए रमज़ान का महीना बेहद ख़ास होता है लेकिन रमज़ान महीने के बाद दूसरा सबसे ख़ास महिला मोहर्रम के महीने को माना जाता है. इस्लामी कैलेंडर के हिसाब से देखा जाए तो हर साल मोहर्रम की तारीख़ बदलती रहती है यह एक समय पर टिकी नहीं होती है. आप सोच रहे होंगे क्यों ये हर साल बदलती है तो आपकी जानकारी के लिए बता दें इसकी वजह चंद्र कैलेंडर डर से होता है. आइए इसके बारे में विस्तार से जानते हैं.
सभी जानते हैं इस्लाम धर्म में दो तरह के मुस्लिम होते जैसे कि शिया और सुन्नी दोनों समुदाय की अलग–अलग मान्यताएँ है जो एक दोनों से काफ़ी विपरीत है. यह समुदाय के लोग मोहर्रम के 1-9 तारीख़ तक रोज़ा रखते हैं वहीं शिया उलेमा की मानें तो मोहर्रम के 10 तारीक को रोज़ा रखना हराम माना जाता है. सुन्नी समुदाय के लोग मोहर्रम के 9 और 10 तारीक को रोज़ा रखते हैं. इन दिनों रोज़ा रखना फ़र्ज़ नहीं माना जाता है लेकिन फिर भी मुस्लिम समुदाय यह रोज़ा सवाब पाने के लिए रखते हैं. हर साल आप देखते होंगे मोहर्रम के दिन ताजिया निकलता है जिसे लोग और बच्चे भीड़ में खड़े होकर देखते हैं.
शिया मुस्लिम और सुन्नी मुस्लिम दोनों ही मोहर्रम को अलग तरह से मनाते हैं मोहर्रम कल चाँद देखने के बाद शिया समुदाय के सभी लोग क़रीब दो महीने आठ दिन तक मातम मनाते हैं इन दिनों किसी भी तरह से शादी समारोह यह किसी ख़ुशी के मौकों पर जाने के ख़िलाफ़ होते हैं और काले रंग के कपड़े पहनते हैं. इन समुदाय की महिलाएँ दो महीने आठ दिन तक सभी अश्विन कहा कि चीज़ों से दूरी बना लेते हैं. सुन्नी मुस्लिम नमाज़ और रोजे के साथ इस महीने को बिताते हैं. जबकि कुछ सुन्नी समुदाय के लोग मजलिस और ताजियादारी भी करते हैं. हालांकि सुन्नी समुदाय में देवबंदी फिरके के लोग ताजियादारी के खिलाफ होते हैं.
इस महीने का दसवां दिन काफी ख़ास होता हैं. इस दिन पैगंबर मुहम्मद के नाती हुसैन इब्न अली की शहादत के लिए शौक किया जाता हैं. यह त्यौहार सबसे अधिक महत्वपूर्ण शिया मुसलमानों के लिए होता है. यह त्यौहार हुसैन इब्न अली और उनके साथियों कस बलिदान की याद में ही मनाया जाता हैं. सन् 680 में कर्बला नामक स्थान पर एक विशेष धर्म युद्ध हुआ था. यह युद्ध पैगम्बर हजरत मुहम्म्द स० के नाती हुसैन इब्न अली तथा यजीद के बीच में था. अपने धर्म की रक्षा करने के लिए इस युद्ध में हुसैन इब्न अली अपने 72 साथियों के साथ न्योछावर हो गए. कहा जाता है कि मोहर्रम के महीने का दसवां दिन वही दिन है जिस दिन हुसैन अली शहीद हुए थे. उनके शहादत के दुख के कारण इस दिन मुस्लिम समुदाय के लोग काले कपड़े पहनते हैं.
यह बाँस से बनाई जाती हैं, यह झाकियों के जैसे सजाई जाती हैं. इसमें इमाम हुसैन की कब्र को बनाकर उसे शान से दफनाने जाते हैं. इसे ही शहीदों को श्रद्धांजलि देना कहते हैं,, इसमें मातम भी मनाया जाता हैं लेकिन फक्र के साथ शहीदों को याद किया जाता हैं. यह ताजिया मुहर्रम के दस दिनों के बाद ग्यारहवे दिन निकाला जाता है, इसमें मेला सजता हैं. सभी इस्लामिक लोग इसमें शामिल होते हैं और पूर्वजो की कुर्बानी की गाथा ताजियों के जरिये आवाम को बताई जाती है. जिससे जोश और हौसले की कहानी जानकर वे अपने पूर्वजो पर फर्क महसूस कर सके. मोहर्रम पर शाम को मौदहापारा, लालटंकी क्षेत्र, जूटमिल, इंदिरा नगर चांदमारी आदि क्षेत्रों से हसन हुसैन के नारों के साथ ताजिया कीशक्ल में जुलूस निकाला गया.
चांदमारी का जुलूस विभिन्न क्षेत्रों का भ्रमण कर वापस चांदमारी पहुंचा. इसी तरह से मौदहापारा, लालटंकी जूटमिल क्षेत्र से जुलूस निकल कर शहर के विभिन्न स्थानों का भ्रमण कर चांदनी चौक पहुंचा. इस दौरान जगह–जगह शरबत लंगर का वितरण किया गया. मोहर्रम पर करबला की याद में युवाओं द्वारा अखाड़ेबाजी कर करतब दिखाए जाते हैं।जिसमें युवाओं द्वारा विभिन्न प्रकार करतब से लोगों का मन मोह लेते हैं. इसके लिए युवाओं की टोली सप्ताह भर से तैयारी करती है. हालांकि अब धीरे-धीरे अखाड़ेबाजी का चलन कम हो रहा है लेकिन इस परंपरा जीवित रखा गया है.