Thursday, April 25, 2024
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क्या सरकार कर रही है अपनी मनमानी?

सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की मनमानी पर सवाल खड़ा कर दिया है! खुद में जब खामियां हो तो दूसरे में कमियां खोजना ठीक नहीं है। यही हाल कार्यपालिका और न्यायपालिका का है। दोनों में समय-समय पर तनातनी चलती रहती है। ताजा मामला कल यानी 27 नवंबर का है। सुप्रीम कोर्ट ने कलीजियम की अनुशंसा पर जजों की नियुक्ति में देरी के लिए सरकार को फटकार लगाई और पूछा कि क्या नेशनल जूडिशियल एप्वाइंटमेंट कमिशन असंवैधानिक ठहराने के कारण फिलहाल चुनाव आयोग में आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति पर जिरह जारी है। 18 नवंबर को वीआरएस लेते ही चौबीस घंटे के भीतर अरुण गोयल को चुनाव आयुक्त बनाने पर सुप्रीम कोर्ट सख्त सवाल पूछ रहा है। जब भी कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव होता है तो हमारा खूबसूरत संविधान संतुलन साधने की कोशिश करता है। पर वक्त के साथ व्यवस्थाएं बदलती हैं तब कई बार संविधान को भी बदलना पड़ता है। इसीलिए सौ से ज्यादा संशोधन अब तक हो चुके हैं। 99 वां संविधान संशोधन भी इसी कड़ी का एक हिस्सा था। 14 अगस्त, 2014 को नरेंद्र मोदी सरकार ने संविधानस संशोधन कर नेशनल जूडिशियल एप्वाइंटमेंट कमिशन का रास्ता साफ किया। 16 राज्यों की मंजूरी मिलने के बाद 31 दिसंबर को राष्ट्रपति ने दस्तखत किए और 13 अप्रैल, 2015 को ये अमल में आ गया। लेकिन सिर्फ छह महीने के लिए। 16 अक्टूबर, 2015 को 4-1 के बहुमत से सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक ठहरा दिया। जस्टिस जेएस खेहर, मदन बी लोकुर, कुरियन जोसेफ और आदर्श कुमार ने एक्ट के खिलाफ फैसला सुनाया। जस्टिस जे चेलमेश्वर ने सरकार के फैसले को सही ठहराया।

जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका के हस्तक्षेप से सुप्रीम कोर्ट को ऐतराज था। इसलिए मौजूदा कलीजियम सिस्टम को ही कोर्ट ने सही ठहराया। एक्ट के तहत मोदी सरकार ने छह सदस्यों वाले आयोग से सुप्रीम कोर्ट जजों की नियुक्ति की व्यवस्था की थी।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट को ये नागवार गुजरा। आज वही सुप्रीम कोर्ट ये सवाल पूछ रहा है कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में क्या चीफ जस्टिस को शामिल किया जा सकता है। सवाल ठीक है। अगर कहीं खामी है तो उसे दूर करने की कोशिश होनी चाहिए। सुझाव आना चाहिए। लेकिन सवाल इस पर उठा कि जब जजों की नियुक्ति जज ही करेंगे तो चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में दखल देना कितना सही है। खुद कानून मंत्री किरण रिजिजू ने टाइम्स नाउ समिट में दोहराया कि कलीजियम सिस्टम में कई खामियां हैं। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि जब मुख्य चुनाव आयुक्त का टेन्योर छह साल का है तो ऐसे लोगों की नियुक्ति कैसे हो जाती है जो कुछ महीनों में ही रिटायर हो जाते हैं।

अब सवाल उठता है कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति और उनका कार्यकाल कैसे तय होता है। तो, 1991 में इलेक्शन कमिशन एक्ट पारित किया गया। इसमें टेन्योर छह साल का रखा गया। लेकिन 65 साल की आयु पूरी होने से पहले। जस्टिस केएम जोसेफ ने श्रीलंका, पाकिस्तान, नेपाल का हवाला दिया और तंज कसा कि क्या हम इनसे भी पीछे रहना चाहते हैं? अब अपने संविधान को देखते हैं। हमारे संविधान के अनुच्छेद 324 में चुनाव आयोग के गठन और जिम्मेदारियों का जिक्र है।

संविधान के मुताबिक राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह से ही काम करते हैं, इसलिए आयुक्तों की नियुक्ति का कैबिनेट करती है और कैबिनेट से प्रस्ताव पारित होने के बाद राष्ट्रपति के पास भेज दिया जाता है। अरुण गोयल की नियुक्ति भी इसी तरीके से हुई। 18 नवंबर को वीआरएस लेने के बाद कैबिनेट ने उनके नाम पर फैसला किया और अगले ही दिन राष्ट्रपति ने उस पर दस्तखत कर दिए।इसी बीच सुप्रीम कोर्ट में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के मामले की सुनवाई शुरू हो गई तो जजों ने गोयल की फाइल अपने पास मंगवा ली। कोर्ट ने हैरानी जताते हुए कहा कि 2004 के बाद यूपीए सरकार में छह और मोदी सरकार में आठ मुख्य चुनाव आयुक्त बदल गए। हालांकि सुप्रीम कोर्ट की हालत भी वैसी ही है। अगर 26 साल में 15 मुख्य चुनाव आयुक्त बने तो 24 साल में 22 चीफ जस्टिस बदल गए। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की संख्या बढ़ती कब है 1998 से जब कलीजियम सिस्टम शुरू हुआ। इससे पहले 1950 से लेकर 1998 तक 48 साल में सिर्फ 28 चीफ जस्टिस हुए। कलीजियम भी चीफ जस्टिस के टेन्योर पर ध्यान नहीं देता है। मौजूदा चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ से पहले यूयू ललित सिर्फ 2.5 महीने चीफ जस्टिस रहे। यही नहीं सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा 27 जजों में से छह के पिता भी जज रह चुके हैं। इन आंकड़ों से हमारा मकसद किसी भी तरफ इशारा करना नहीं है। जो सच्चाई है उसे आपसे साझा कर रहे हैं।

गोस्वामी कमिटी की सिफारिशों के आधार पर 1990 में 70वां संविधान संशोधन विधेयक पेश किया गया। लेकिन राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव में पास नहीं हो सका और 1993 में इसे वापस ले लिया गया। इस बीच1991 वाले इलेक्शन कमिशन एक्ट के तहत तीन सदस्यों वाला चुनाव आयोग तो बन गया लेकिन रिटायरमेंट बाद सरकारी या संवैधानिक पदों पर नियुक्ति से मनाही या नियुक्ति प्रक्रिया में विपक्ष के नेता या चीफ जस्टिस को शामिल करने के प्रस्ताव को ताखे पर रख दिया गया। अब इसी दिनेश गोस्वामी रिपोर्ट का हवाला सुप्रीम कोर्ट दे रही है। दूसरी ओर सरकार कार्यपालिका की स्वतंत्रता का हवाला दे रही है।

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