एक समय ऐसा भी था जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने जिन्ना को पीएम बनने की सलाह दी थी! नेताजी सुभाष चंद्र बोस को मोहम्मद अली जिन्ना के मंसूबों का पता चल गया था। वह जान गए थे कि आजादी की भारत बड़ी कीमत चुकाने वाला है। उन्होंने इस विभाजन को टालने की कोशिशें अपने जीते जी शुरू कर दी थीं। यहां तक नेताजी ने जिन्ना को आजाद भारत का पहला प्रधानमंत्री बनने की पेशकश तक कर दी थी। सिर्फ नेताजी ही नहीं, महात्मा गांधी और सीनियर कांग्रेस नेता सी राजगोपालाचारी ने भी जिन्ना को यह ऑफर दिया था। हालांकि, इन तीनों ने जिन्ना के सामने एक ही शर्त रखी थी। यह थी- वह देश के विभाजन की अपनी मांग को छोड़ दें। यह और बात है कि जिन्ना के सिर पर मुसलमानों के लिए अलग पाकिस्तान का भूत सवार था। उन्होंने किसी की बात नहीं मानी। नेताजी आजादी तक जिंदा होते तो पिक्चर शायद कुछ और ही होती। नेताजी की आजाद हिंद फौज सड़कों पर जिन्ना और मुस्लिम लीग के गुंडों को मुंह तोड़ जवाब देने की ताकत रखती थी। मुस्लिमों में भी बोस की लोकप्रियता बहुत ज्यादा थी। आजाद हिंद फौज में मुस्लिमों की संख्या ठीकठाक थी। नेताजी के साथी शाहनवाज खान उनके बाएं हाथ जैसे थे। लेकिन, नेताजी की कोशिश थी कि चीजों को शांति से हल किया जाए। वह अंग्रेजों में किसी तरह अंदरूनी कलह का मैसेज नहीं जाने देना चाहते थे। 1945 में सुभाष बाबू की रहस्यमय मौत के बाद चीजें तेजी से बदल गईं। जिन्ना अपने मंसूबों को पूरा करने में सफल हो गए।
23 मार्च 1940 की बात है। जिन्ना की विभाजनकारी सोच अब खुलकर सामने आ चुकी थी। उन्होंने पाकिस्तान के गठन के लिए प्रस्ताव पारित किया। लाहौर में बादशाही मस्जिद के नजदीक मिंटो पार्क में जिन्ना ने एक विशाल रैली को संबोधित किया। इसमें जिन्ना ने 2 घंटे का लंबा-चौड़ा भाषण दिया। इसमें हिंदुओं के खिलाफ जमकर जहर उगला। मुस्लिम लीग के प्रमुख ने तब यह भी कहा था कि हिंदू और मुसलमान हर नजरिये से अलग हैं। उनके इतिहास, दृष्टिकोण और परंपराओं में कोई समानता नहीं है। दोनों के हीरो भी अलग हैं। ऐसे में इनका एक-साथ रह पाना नामुमकिन है। जिन्ना ने अपनी स्पीच में लाला लाजपत राय और दीनबंधु चितरंजन को भी काफी बुरा-भला कहा था। 1920 से ही जिन्ना को कांग्रेस से कड़ी चुनौती मिल रही थी। कांग्रेस की जड़ें पूरी देश में फैल चुकी थीं। वहीं, ऑल-इंडिया मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए भारत के उत्तर-पश्चिमी और उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में अलग देश की मांग उठानी शुरू कर दी थी। शुरू में तो इसे बहुत समर्थन नहीं मिला। लेकिन, 1940 तक आते-आते इसके पक्ष में काफी तादाद में लोग आ गए थे।
फारूक अहमद डार अपनी किताब ‘Jinnah’s Pakistan: Formation and Challenges of a State’ लिखते हैं कि 1940 के प्रस्ताव के बाद कांग्रेस ने जिन्ना को समझाने की कोशिशें तेज कर दी थीं। इस दिशा में सबसे पहले कदम उठाया था सुभाष चंद्र बोस ने। उन दिनों सुभाष बाबू कांग्रेस प्रेसिडेंट थे। बोस ने आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री का पद जिन्ना को ऑफर किया था। लेकिन, साथ में शर्त यह रखी थी कि उन्हें भारत के विभाजन की अपनी मांग को छोड़ना होगा।
कुछ महीने बाद सी राजगोपालाचारी ने एक कदम और बढ़ाया। उन्होंने मुस्लिम लीग को न सिर्फ प्रधानमंत्री नॉमिनेट करने के अधिकार की पेशकश की, बल्कि अपनी पसंद का कैबिनेट लेने को भी कहा। अप्रैल 1947 में गांधी इस तक पर तैयार थे कि जिन्ना पूरे मुस्लिम प्रशासन के साथ केंद्र में अपने हाथ में सत्ता ले लें, लेकिन पार्टिशन की मांग को त्याग दें। हालांकि, जिन्ना टस से मस नहीं हुए।
नेताजी ने सिंगापुर में आजाद हिंद फौज बनाई थी। देश छोड़ने के बाद वह जिन्ना और मुस्लिम लीग की गतिविधियों पर शायद इतनी नजर नहीं रख सके। मई 1947 में मुस्लिम लीग के गुंडों ने रावलपिंडी में हिंदुओं और सिखों पर तीखा हमला किया।कुछ महीने बाद सी राजगोपालाचारी ने एक कदम और बढ़ाया। उन्होंने मुस्लिम लीग को न सिर्फ प्रधानमंत्री नॉमिनेट करने के अधिकार की पेशकश की, बल्कि अपनी पसंद का कैबिनेट लेने को भी कहा। अप्रैल 1947 में गांधी इस तक पर तैयार थे कि जिन्ना पूरे मुस्लिम प्रशासन के साथ केंद्र में अपने हाथ में सत्ता ले लें, लेकिन पार्टिशन की मांग को त्याग दें। हालांकि, जिन्ना टस से मस नहीं हुए। महिलाओं को बेआबरू किया और खुलेआम संपत्तियां लूट लीं। रावलपिंडी में हिंदू और सिख बेहद धनी थे। उनकी प्रॉपर्टी मुख्य रूप से निशाना बनाई गईं। ये दंगे धीरे-धीरे पूर्वी बंगाल पहुंच गए। वहां भी हजारों हिंदुओं का कत्लेआम हुआ। जिन्ना ने न तो इन्हें रोकने की कोशिश की न ही वह किसी दंगा प्रभावित इलाके में गया।