एक ऐसा अपराधी जिसने बिहार में आतंक मचाया हुआ था! बिहार के बेगूसराय जिले का बरौनी चौक… शाम का वक्त… सड़क पर अभी ज्यादा भीड़-भाड़ शुरु नहीं हुई। बाकी शामों की तरह सबकुछ सामान्य तभी अचानक धांय-धांय-धांय की आवाज़ से बरौनी चौक का पूरा इलाका सहम उठता है। गोलियों की आवाज़ से आसपास खड़े लोग इधर उधर भागने लगते हैं। दो बाइकों पर सवार चार लोग अंधाधुंध गोलियां बरसा रहे हैं। वहां मौजूद लोगों में किसी को कुछ समझ नहीं आता। अपनी जान बचाने के लिए जिसको जहां जगह मिलती है वहां भागने लगते हैं। गोलियों की आवाज़ बंद नहीं होती है। पूरे इलाके में अफरातफरी मच जाती है। ये दोनों बाइक आगे बढ़ती हैं लेकिन फायरिंग बदस्तूर जारी रहती है। ये लोग नेशनल हाइवे से होते हुए बीहट की तरफ आगे बढ़ जाते हैं। जहां जहां से ये बाइक गुजरती हैं, गोलियों की आवाज़ गूंजती रहती है। मल्हीपुर चौक, बरौनी, तेघड़ा, बछवाड़ा, इन सब इलाकों में ये लोग अंधाधुंध फायरिंग करते हैं। जहां भीड़ देखते हैं वहीं फायरिंग शुरू। लोगों को कुछ समझ नहीं आता। गोलियों की आवाज़ से पूरा बेगूसराय सहम जाता है। 30 किलोमीटर तक फायरिंग का सिलसिला जारी रहता है। 11 लोगों को गोलियां लगती हैं जिनमें से एक की मौत भी हो जाती है।

बेगूसराय की फायरिंग कांड की गूंज बिहार से लेकर दिल्ली से गूंजती है। बिहार की नीतीश सरकार कठघरे में आ जाती है। आरोप प्रत्यारोपों का दौर शुरू होता है लेकिन राजनीति से उलट लोगों को ये फायरिंग बिहार के बीते दिनों के खौफ की याद दिलाती है। बेगूसराय की घटना से लोगों के अंदर जो दहशत पैदा होती है वो लोगों को ये सोचने पर मजबूर कर रही है कि क्या खौफ और दर्द का वो दौर फिर शुरू होने जा रहा है जिसने कभी बिहार के लोगों की नींद उड़ा दी थी। सड़क पर सरेआम ताबड़तोड़ फायरिंग लोगों को ये सोचने पर मजबूर कर रही है कि सत्तर का वो गुंडाराज कहीं फिर बिहार में लौट तो नहीं आया है। इस घटना के बाद लोग सड़कों पर निकलने से डर रहे हैं। डर इस बात का कहीं भरी दोपहर में कोई गोली चलाकर उनको निशाना न बना दे।

बिहार में सत्तर का दशक बेगूसराय के लोगों को भूले नहीं भूलता। रात तो छोड़िए दिन में भी लोग बाहर जाने कतराते थे। बिहार की गलियां हर पल गोलियों की आवाज़ से गूंजा करती थीं। ये वो जमाना था जब बिहार में कहने को तो सरकार होती थी लेकिन फैसला चलता था अपराधियों का। बेगूसराय में उन दिनों अपराध की दुनियां में एक ही नाम गूंजता था और वो था सम्राट कामदेव सिंह का। कामदेव सिंह जो जुर्म का पर्यायवाची था। डकैत, तस्कर, हत्यारा जिस नाम से चाहे कामदेव सिंह को पुकारा जा सकता है। बेगूसराय के मटिहानी के नया गांव का रहने वाला सम्राट कामदेव वो नाम था जिसके खौफ से सिर्फ बेगूसराय ही नहीं बल्कि पूरा बिहार और नेपाल तक कांपता था। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और नेपाल हर तरफ इस गैंगस्टर के पांव पसरे हुए थे। बेगूसराय में तो एक पत्ता भी इस दुर्दांत अपराधी की मर्जी के बिना नहीं हिल सकता था।

कामदेव हथियारों के बल पर अपने फैसले करता था। 1970 के आसपास से शुरू होती है बिहार के इस खूंखार अपराधी की कहानी। इस दौरान कामदेव सिंह बैलगाड़ी पर चलता था। कुछ डैकतों के साथ कामदेव सिंह की जानपहचान हो गई और फिर डकैती कर इसने पैसे कमाने शुरू किए। थोड़े समय तक डकैती को अपना धंधा बनाकर रखा लेकिन फिर इसने तस्करी में हाथ अजमाने की सोची। तस्करी के कारोबार में इतने आगे निकल गया कि बेगूसराय के अलावा बिहार के दूसरे इलाकों में भी इसकी पैठ बन गई। इसका गिरोह ताकतवर होता चला गया। गांजा, स्टील, यूरेनियम हर प्रतिबंधित चीज़ की स्मगलिंग को कामदेव अंजाम देने लगा। ये लोग बिहार के अलग अलग बॉर्डर्स से नेपाल में तस्करी करते और बदले में खूब पैसा कमाते। सम्राट कामदेव सिंह अपराधियों में बिहार के बड़े नामों में शामिल हो गया। बैलगाड़ी से लेकर बड़ी बड़ी गाडियों का सफर कामदेव ने चंद सालों में ही पूरा कर लिया।

इन दिनों बिहार में खासकर बेगूसराय में कमयुनिस्ट विचारधारा का काफी था। कामदेव ने खुद कम्युनिस्ट के खिलाफ खड़ा किया। बेगूसराय में आए दिन कामदेव और कम्यूनिस्ट नेताओं के बीच खूनखराबे की खबरें आने लगीं। कम्युनिस्ट के विरोध के चलते दूसरे दलों से कामदेव को पूरा सहयोग मिल रहा था। स्मगलिंग के अलावा कामदेव ने बूथ कैप्चिरिंग, हत्याएं, अपहरण जैसे अपराधों में भी अपना दबदबा बना लिया था। कहते हैं बेगूसराय में कामदेव ने 40 से ज्यादा वाम नेताओं को मौत के घाट उतार दिया था। बेगूसराय में आए दिन गैंगवार होती थीं। जैसे-जैसे कामदेव की दबंगई बढ़ रही थी, वैसे-वैसे उसका रुतबा भी बढ़ रहा था। बड़े-बड़े राजनेताओं से कामदेव की जान पहचान थी। उसकी पहचान इतनी थी कि कहते हैं कामदेव जिसको चाहता, अपने जुर्म के दम पर विधानसभा का सदस्य तक बना सकता था। पैसे और गोली के बल पर उसके हर काम हो जाते थे।

कामदेव सिंह एक तरफ तो वाम नेताओं की हत्या कर रहा था तो दूसरी तरफ गरीबों के बीच मसीहा की छवि बना रहा था। कहते हैं कामदेव गरीबों की खूब मदद करता था। लड़कियों का शादियां करवाना, कर्ज देने में लोगों की मदद करना, वो बेगूसराय में एक वर्ग के लिए रोबिन हुड बनकर उभर रहा था तो वहीं कमयुनिस्ट के लिए वो बड़ी चुनौती बन गया था। उसका रुतबा अब बेगूसराय तक ही सीमित नहीं था। बात 1974 के आसपास की है बिहार में अब्दुल गफूर मुख्यमंत्री थे। कामदेव के नाम की चर्चा विधानसभा में हुई। अब्दुल गफूर ने विधानसभा में ही बेगूसराय में रामचन्द्र खान को एसपी नियुक्त करने की बात कही। रामचन्द्र खान की पुलिस में बेहद सख्त अधिकारी की छवि थी और कामदेव सिंह से निपटने के लिए सरकार ने रामचन्द्र खान को चुना था। अब बेगूसराय में कामदेव सिंह के लिए पीछे एसपी रामचन्द्र खान थे। कई बार मुठभेड़ हुई, कई सर्च ऑपरेशन चले। कामदेव को काम करने में खासी मुश्किलें आ रही थी और कहते हैं इसलिए वो बेगूसराय छोड़कर कुछ समय के लिए नेपाल भी भाग गया। जब तक रामचन्द्र खान की पोस्टिंग रही नेपाल से ही वो अपने कारोबार को करता रहा।

माना जाता है कि कांग्रेस के बड़े नेताओं से उसका उठना-बैठना था। कमयूनिस्टों के खिलाफ कांग्रेस कामदेव का इस्तेमाल कर रही थी और उसे बढ़ावा दे रही थी। थोड़े समय बाद दुगनी ताकत के साथ कामदेव वापस बेगूसराय लौट आया। कामदेव को बेगूसराय से बेहद प्यार था। बेगूसराय की गलियों से ही इसने अपने गैंग की ताकत बढ़ाई थी और पूरे बिहार में हाहाकार मचाया था। माना जाता है कि कामदेव के पास इतना पैसा और ताकत थी कि एक बार इंदिरा गांधी बिहार आईं तो कांग्रेस के नेताओं के कहने पर इंदिरा के स्वागत के लिए कामदेव में 100 अंबेस्डर गाड़ियों का काफिला खड़ा कर दिया। सबसे बड़ी बात इन गाडि़यों के नंबर भी एक से सौ तक थे, जो कामदेव की ताकत दिखाने के लिए काफी थे।