Friday, March 29, 2024
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गुजरात में कौन जीतेगा और कौन हारेगा?

वर्तमान में हर किसी के दिमाग में एक ही सवाल चल रहा है कि गुजरात में कौन जीतेगा और कौन हारेगा? गुजरात विधानसभा के पहले चरण की वोटिंग में पिछली बार के मुकाबले 4 प्रतिशत कम वोट पड़े। फर्स्ट फेज में 89 सीटों पर वोट डाले गए और औसत वोटिंग रही 63 फीसदी। 2017 में वोटर टर्नआउट 67 प्रतिशत था। कम वोटिंग का नतीजों पर क्या असर दिख सकता है? इसका क्या मतलब है? इससे पार्टियों को कितना नफा-नुकसान होगा? सत्ताधारी दल के लिए ये शुभ संकेत है या चिंता बढ़ाने वाला? सियासी दलों के साथ-साथ राजनीतिक विश्लेषक भी इन सवालों से जूझ रहे होंगे। क्या हाई या लो वोटर टर्नआउट का वाकई चुनाव नतीजों से कोई सीधा संबंध हैं, आइए पिछले कुछ चुनावों के आईने में समझने की कोशिश करते हैं।

मतदान प्रतिशत के कम या ज्यादा होने का चुनाव नतीजों पर क्या असर पड़ता है, इसको लेकर दो लोकप्रिय धारणाएं प्रचलित हैं। ज्यादा वोटिंग का मतलब एंटी-इन्कंबेंसी यानी सत्ताविरोधी रुझान, कम वोटिंग का मतलब वोटरों की उदासीनता यानी ‘कोउ नृप होय हमें क्या हानि’ का भाव। अगर पिछली बार से ज्यादा वोट पड़े तो उसे आम तौर पर एंटी-इन्कंबेंसी का संकेत माना जाता है। इसके पीछे तर्क दिया जाता है कि अगर लोगों में मौजूदा सरकार से नाराजगी होती है तो वे चुनाव में बड़ी तादाद में घरों से निकलकर बूथ तक पहुंचते हैं। इतना ही नहीं, वे और लोगों को भी वोट डालने के लिए प्रोत्साहित करते हैं क्योंकि वे मौजूदा सरकार से छुटकारा पाना चाहते हैं। इसी तरह अगर कम वोटिंग होती है तो आम तौर पर माना जाता है कि लोग मौजूदा सरकार से संतुष्ट हैं या फिर उदासीन। इस वजह से बहुत से लोग पोलिंग बूथ तक जाने की जहमत नहीं उठाते हैं। वोटर टर्नआउट में ठहराव का भी यही मतलब निकाला जाता है।

लेकिन क्या हाई या लो टर्नआउट का गणित इतना सीधा है? नतीजों से इनका किसी तरह का सीधा संबंध है भी या नहीं? बात इतनी सीधी भी नहीं है। ज्यादा वोटिंग कभी-कभी प्रो-इन्कंबेंसी की वजह से भी होती है। जब लोग सरकार के कामकाज से बहुत ज्यादा संतुष्ट होते हैं और चाहते हैं कि वही रिपीट हो, तब वो बड़ी तादाद में वोटिंग करते हैं। इस तरह वे सरकार के प्रति अपने समर्थन का इजहार करते हैं। जाहिर है, हाई वोटर टर्नआउट के ही दो परस्परविरोधी मतलब निकल रहे हैं- एंटी-इन्कंबेंसी और प्रो-इन्कंबेंसी। इसी तरह तमाम चुनावों के नतीजें बताते हैं कि लो टर्न आउट में भी सरकारें बदल जाती हैं। यानी मतदान प्रतिशत और नतीजों में अगर किसी तरह का रिश्ता है भी तो वह बहुत जटिल है।

अब कुछ हालिया चुनावों के नतीजों की कसौटी पर वोटर टर्नआउट और उसके असर को समझने की कोशिश करते हैं। इसके लिए हम कुछ पिछले लोकसभा चुनावों और इसी साल यूपी, पंजाब और उत्तराखंड जैसे अहम राज्यों में हुए विधानसा चुनावों पर नजर डालते हैं। सबसे पहले हालिया लोकसभा चुनावों के जरिए समझने की कोशिश करते हैं।2014 के लोकसभा चुनाव को आप कई मायनों में भारतीय राजनीति का टर्निंग पॉइंट मान सकते हैं। 30 साल बाद किसी एक पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिला। इस चुनाव के बाद से सियासी परिदृश्य पर एक नई बीजेपी छा गई। उसके बाद एक के बाद एक राज्यों के चुनाव में भी बीजेपी का जलवा देखने को मिला। उस चुनाव के बाद बीजेपी का रूतबा आजादी के बाद के शुरुआती दशकों वाली कांग्रेस जैसा हो गया। खैर विषय पर आते हैं। 2014 के आम चुनाव में लोगों ने जमकर वोट डाले। 66.44 प्रतिशत वोटर टर्नआउट के साथ वोटिंग के सारे पिछले रेकॉर्ड टूट गया। राष्ट्रीय चुनाव में वह तबतक का सबसे ज्यादा वोटर टर्नआउट था। नतीजों की बात करें तो बीजेपी ने पहली बार 282 सीटों के साथ स्पष्ट बहुमत हासिल किया। कांग्रेस 44 सीटों पर सिमट गई। 2014 के नतीजों को आप एंटी-इन्कंबेंसी का असर कह सकते हैं कि लोग यूपीए सरकार से नाराज थे और परिवर्तन के लिए बड़े पैमाने पर वोट डाला। लेकिन बाकी चुनावों पर नजर डालें तो यह धारणा ध्वस्त दिखती है।

2009 के लोकसभा चुनाव पर नजर डालते हैं। 58.21 प्रतिशत वोटिंग हुई जो 2004 के मुकाबले 2.14 प्रतिशत ज्यादा थी। कांग्रेस की अगुआई में यूपीए सरकार फिर सत्ता में आई। 2004 के मुकाबले कांग्रेस की सीटें 145 से बढ़कर 206 हो गईं। जाहिर है कि मतदान प्रतिशत बढ़ने के पीछे एंटी-इन्कंबेंसी फैक्टर नहीं था। 2019 के हालिया लोकसभा चुनावों पर नजर डाल लेते हैं। तब 67.40 प्रतिशत वोटिंग के साथ 2014 का रेकॉर्ड भी टूट गया। वोटिंग प्रतिशत करीब एक प्रतिशत बढ़ा और सत्ताधारी बीजेपी की सीटें भी 282 से बढ़कर 303 हो गईं। यहां भी साफ है कि मतदान प्रतिशत बढ़ने का सत्ताधारी दल को नुकसान नहीं हुआ।

अब कुछ हालिया विधानसभा चुनावों पर नजर डालते हैं। सबसे पहले सियासी लिहाज से देश के सबसे बड़े सूबे यूपी की बात करते हैं जहां इस साल की शुरुआत में विधानसभा चुनाव हुए। मतदान प्रतिशत 61.03 प्रतिशत रहा जिसमें 2017 के मुकाबले 0.21 प्रतिशत की बहुत ही मामूली गिरावट देखी गई। वोटर टर्नआउट एक समान रहने के बावजूद नतीजों में काफी अंतर रहा। बीजेपी लगातार दूसरी बार सत्ता में आने में कामयाब तो रही लेकिन उसकी सीटें काफी घट गईं। 2017 में उसे 312 सीटें मिली थीं जो घटकर 255 पर आ गईं। इसी तरह समाजवादी पार्टी की सीटें 47 से बढ़कर 111 हो गईं। यानी मतदान प्रतिशत स्थिर रहने के बावजूद सत्ताधारी पार्टी को वोटों का नुकसान झेलना पड़ा।

इस साल यूपी के साथ ही पंजाब और उत्तराखंड के भी विधानसभा चुनाव हुए थे। 117 विधानसभा सीटों वाले पंजाब में 72.15 प्रतिशत वोटिंग हुई जो 2017 के मुकाबले 5 प्रतिशत कम थी। अगर वोटिंग कम होने का मतलब सत्ताधारी दल के प्रति नाराजगी न होना माने तो पंजाब में यह धारणा औंधे मुंह गिर जाती है। 5 प्रतिशत वोटिंग कम होने के बावजूद सरकार बदल गई। बदल ही नहीं गई, एकतरफा नतीजें आएं। 2017 में 20 सीटें जीतने वाली आम आदमी पार्टी ने प्रचंड जीत हासिल कर 92 सीटों पर कब्जा कर लिया। वहीं पिछले चुनाव में 77 सीटें जीतने वाली कांग्रेस 18 सीटों पर सिमट गई। यानी कम वोटिंग का मतलब ये नहीं कि सत्ता परिवर्तन नहीं ही होगा।

अब उत्तराखंड को देखते हैं। 2022 के चुनाव में 65.41 प्रतिशत वोटिंग हुई जो 2017 के मुकाबले महज 0.15 प्रतिशत कम थी। वोटर टर्नआउट लगभग समान रहा। 70 विधानसभा सीटों वाले सूबे में बीजेपी की सरकार रिपीट हुई लेकिन उसकी सीटें घट गईं। 2017 में उसे 57 सीटें मिली थीं लेकिन इस साल हुए चुनाव में 47 सीट मिली। दूसरी तरफ कांग्रेस की सीट 11 से बढ़कर 19 हो गईं।

पिछले चुनावों के आंकड़ों से साफ जाहिर है कि वोटर टर्नआउट का नतीजों से कोई सीधा संबंध नहीं दिखता। हाई टर्नआउट एंटी-इन्कंबेंसी ही हो जरूरी नहीं और लो टर्नआउट में सरकारें नहीं बदलें, ये भी जरूरी नहीं। ज्यादा वोटिंग का मतलब सरकार बदलना और कम वोटिंग मतलब सरकार रिपीट होना महज एक मिथक है।

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