गुजरात में मुसलमानों की दावेदारी कम देखी गई है! साल 2011 में आई जनगणना रिपोर्ट के अनुसार गुजरात की कुल आबादी में मुसलमानों की संख्या 9.67 प्रतिशत या कहें 58 लाख से ज्यादा है। इनमें से ज्यादातर शहरों में रहते हैं जिनकी संख्या 14.75 फीसदी है जबकि 5.9 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं। रिपोर्ट कहती है कि राज्य में लगभग 20 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं जहां मुसलमान किसी भी पार्टी के पक्ष या विपक्ष में जीत का पलड़ा भारी कर सकते हैं। लेकिन उनकी आबादी के अनुपात में उनका प्रतिनिधित्व कभी नहीं हो सका। लेकिन क्यों? गुजरात विधानसभा चुनाव 2022 के लिए सभी पार्टियां अपने उम्मीदवारों का ऐलान कर रही हैं। ज्यादाती सीटों के लिए उम्मीदवरों का चयन हो भी चुका है। कुल 182 सीटों पर चुनाव होने हैं। कांग्रेस ने अब तक 6 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया है। इस पार्टी ने पिछली बार 10 या उससे ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवारों को 27 साल पहले यानी 1995 में टिकट दिया था। आम आदमी पार्टी ने अब तक दो मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया है। जबकि राज्य की सत्ता पर पिछले 27 वर्षों से काबिज बीजेपी ने एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया है। ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन AIMIM ने अब तक 14 सीटों पर अपके उम्मीदवार की घोषण की है जिनमें से 12 मुसलमान हैं। अल्पसंख्यक वोट बैंक को साधने के लिए भाजपा के अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ ने एक अभियान शुरू किया है जिसे अल्पसंख्यक मित्र नाम दिया गया। इसका लक्ष्य था कि जहां मुसलमानों की संख्या है, वहां ऐसे 100 लोगों को खुद से जोड़ा जाए जो किसी राजनीति दल के साथ ना हों और उनका अपने समुदाय के बीच प्रभाव भी हो।
इस अभियान को लेकर बीजेपी नेता जमाल सिद्दीकी कहते हैं, ‘बीजेपी के अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ ने गैर-राजनीतिक पृष्ठभूमि से आने वाले कम से कम 100 मुस्लिमों को पार्टी से जोड़ने का अभियान शुरू किया है। वे आध्यात्मिक नेता, पेशेवर कारोबारी और सरकारी नौकरी वाले लोग भी हो सकते हैं।’ बीजेपी का लक्ष्य है कि राज्य में कुल मुसलमान वोटरों का 50 फीसदी वोट उन्हें ही मिले। जमाल आगे जोड़ते हैं।इस विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस की अल्पसंख्यक शाखा ने मुसलमानों के लिए 11 टिकट मांगे थे। पिछले चार दशकों की बात करें तो पार्टी ने सबसे अधिक 17 मुस्लिम उम्मीदवार 1980 में उतारे थे। उस चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री माधवसिंह सोलंकी KHAM यानी क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी, मुस्लिम समीकरण के साथ मैदान में उतरे थे और सफल भी हुए थे। 17 में से 12 उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की थी। इसके बाद 1985 में कांग्रेस ने KHAM फॉर्मूले को आगे बढ़ाया। लेकिन इस बार मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या को घटाकर 11 कर दिया, जिनमें से आठ जीतने में सफल रहे।
वर्ष 1990 के विधानसभा चुनाव तक राम जन्मभूमि अभियान से पूरा महौल ही बदल गया। बीजेपी और उसके सहयोगी जनता दल ने उस चुनाव में किसी भी मुस्लिम उम्मीदवार को मैदान में नहीं उतारा और कांग्रेस ने 11 उम्मीदवारों को मैदान में उतारा जिनमें से केवल दो ही जीतने में सफल रहे। 1995 में कांग्रेस के सभी 10 मुस्लिम उम्मीदवार हार गए। उसमंगा नी देवदीवाला जमालपुर से निर्दलीय चुने गए एकमात्र मुस्लिम विधायक थे। 1998 में मुस्लिम प्रतिनिधित्व में थोड़ा सुधार हुआ। गोधरा कांड और 2002 के बाद के सांप्रदायिक दंगों में मतदाताओं के ध्रुवीकरण के साथ कांग्रेस ने 2002 में केवल पांच मुसलमानों को मैदान में उतारा। तब से कांग्रेस ने कभी भी 6 से ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में नहीं उतारा है। इस चुनाव की भी तस्वीर वही है।
2017 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी के सिर्फ तीन मुस्लिम विधायक जीते थे। हालांकि यह संख्या 2012 से बेहतर थी जब सिर्फ दो विधायक ही चुने गये थे। लगभग 25 विधानसभा सीटों पर मुसलमानों की संख्या अच्छी खासी है। इस साल की शुरुआत में कांग्रेस ने अल्पसंख्यक समुदाय को लुभाने की कोशिश में अपने वांकानेर विधायक मोहम्मद पीरजादा को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त किया। तब राज्य कांग्रेस अध्यक्ष जगदीश ठाकोर ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के 2006 के उस बयान को दोहराया था जिसमें कहा गया था कि अल्पसंख्यकों का देश के संसाधनों पर पहला दावा होना चाहिए।
एक गैर-राजनीतिक संगठन अल्पसंख्यक समन्वय समिति के संयोजक मुजाहिद नफीस कहते हैं कि ऐसा काफी समय बाद हो रहा कि गुजरात के मुसलमनों के पास दो से ज्यादा विकल्प हैं। वे कहते हैं, ‘2017 के विधानसभा चुनाव तक गुजरात के मुसलमनों के पास महज दो विकल्प ही थे। कांग्रेस और बीजेपी। लेकिन 2022 के चुनाव में ज्यादा विकल्प नजर आ रहे हैं। इस बार की लड़ाई भी एक से ज्यादा दलों के बीच है। जब हम लोकतंत्र की बात करते हैं, तब के चुनाव के लिए ऐसी लड़ाई बेहद जरूरी हो जाती है।’
पिछले चुनावी आंकड़ों पर नजर डालें तो गुजरात में कम से कम 34 विधानसभा सीटें ऐसी हैं कि जहां मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 15% से ज्यादा है। वहीं 20 सीटें ऐसी भी जहां इनकी संख्या 20 फीसदी से ज्यादा है। बावजूद इसके राज्य की सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी ने एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया। बीजेपी ने आखिरी बार 24 साल पहले एक मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट दिया था। तब बीजेपी ने भरुच जिले की वागरा विधानसभा सीट से मुस्लिम उम्मीदवार अब्दुलगनी कुरैशी को मैदान में उतारा था। लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। हालांकि कांग्रेस के लिए आखिरी बार 1980 का चुनाव ऐसा रहा जहां मुसलमानों ने पहली बार अपनी जनसंख्या के हिसाब से विधानसभा में प्रतिनिधित्व किया। इस वर्ष 12 मुस्लिम विधायक गुजरात विधानसभा के लिए चुने गए जबकि 1985 में 8, 1990 में 2, 1995 में 1, 1998 में 5, 2002 में 3, 2007 में 5 और अंत में 2012 में केवल 2 चुने गए मुस्लिम विधायक ही चुनकर विधानसभा पहुंचे।मुस्लिम उम्मीदवारों का प्रदर्शन हमेशा से अच्छा रहा है। वर्ष 1980 से लेकर पिछले चुनाव तक कांग्रेस ने 70 मुस्लिमों को टिकट दिया जिनमें 42 ने जीत दर्ज की।
इससे कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि मुसलमानों का रुझान कांग्रेस की तरफ ज्यादा रहा है और बीजेपी ने इसका फायदा भी उठाया। वे बताते हैं, ‘1962 से 2012 के बीच हुए विधानसभा चुनावों में मुसलमानों ने बड़ी संख्या में कांग्रेस को वोट दिया। इस वोटिंग ट्रेंड का फायदा उठाते हुए बीजेपी ने हमेशा कांग्रेस को मुस्लिम तुष्टीकरण और गुजरात विरोधी के रूप में पेश किया है। लेकिन 2012 के चुनाव के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने अपनी प्रचार रणनीति में दिलचस्प बदलाव किया था। तब पहली बार नरेंद्र मोदी ने सद्भावना मिशन शुरू करके और गुजरात के विभिन्न हिस्सों में 36 एक दिवसीय उपवास करके और अपनी रैलियों में मुसलमानों के एक वर्ग को जुटाने की कोशिश की थी। उस चुनाव के बाद आई लोकनीति की सर्वे रिपोर्ट में दावा किया गया था कि राज्य के 22 प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं ने बीजेपी को वोट दिया।’
द्वारका से लगभग 200 किलोमीटर दूर जिला जूनागढ़ की विधानसभा सीट। ये उन विधानसभा सीटों में से एक है जहां मुस्लिम मतदाताओं की आबादी अच्छी खासी है। इस सीट को कभी बीजेपी का गढ़ कहा जाता था। लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने जीत का स्वाद चखा।2017 के चुनाव में कांग्रेस के जोशी भिखाभाई गलाभाई ने बीजेपी के मशरू महेंद्रभाई को 6084 वोटों से हराया था। लेकिन इस बार की लड़ाई यहां भी त्रिकोणीय हो सकती है। यहां के स्थानीय मार्केट में अब्दुल भाई फलों का काम करते हैं। वे कहते हैं कि महंगाई इतनी ज्यादा है आम लोगों की या रोज कमाकर खाने वालों की कमर ही टूट गई है। हम तो वर्षों से बीजेपी को देख रहे हैं। एक बार अरविंद केजरीवाल को भी मौका मिलना चाहिए।