Saturday, April 20, 2024
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आखिर नोटबंदी पर क्यों वक्त बर्बाद कर रहा है सुप्रीम कोर्ट?

नोटबंदी पर सुप्रीम कोर्ट वक्त बर्बाद कर रहा है! सुप्रीम कोर्ट के बेशकीमती वक्‍त की क्‍या बर्बादी हुई! नोटबंदी मामले में 4-1 के बहुमत से फैसला हुआ कि ये सरकार का काम है, न्‍यायपालिका का नहीं। सरकारी नीतियां अच्‍छी हैं या बुरी, यह तय करना अदालतों का काम नहीं। वे अवैध हैं या नहीं, यह फैसला करना होता है। बिल्‍कुल सही! लेकिन शुरू से ही यह बात साफ होनी चाहिए थी। फिर क्‍यों नोटबंदी के खिलाफ याचिकाओं पर वक्‍त बर्बाद करने के बजाय अदालत ने उन्‍हें खारिज क्‍यों नहीं किया? सुप्रीम कोर्ट अक्‍सर कहता है कि देरी से न्‍याय का मतलब न्‍याय नहीं होता। कितनी सच बात है! लेकिन ऐसा है तो इस देरी को कम करने के लिए अदालत को वही मामले सुनने चाहिए जो उसके बेशकीमती वक्‍त के लायक हों। अक्‍टूबर का डेटा बताता है कि सुप्रीम कोर्ट में 69,000 से ज्‍यादा मुकदमे लंबित हैं। अमूमन निचली अदालतों में दशक भर से ज्‍यादा की लड़ाई के बाद मुकदमे सुप्रीम कोर्ट पहुंचते हैं। सुप्रीम कोर्ट का अप्रासंगिक मामले उठाना लाइन में इंतजार कर रहे लोगों के साथ अन्‍याय है। इसीलिए मैं निराश हुआ जब अदालत ने न सिर्फ मामले में सुनवाई पर हामी भरी, बल्कि पांच जजों को काम पर भी लगा दिया। ऐसे वक्‍त में जब न्‍याय‍िक पद खाली खड़े हैं।

नोटबंदी को करोड़ों लोगों के लिए मुसीबत पैदा करने वाले कदम की तरह देखा गया। इसके बावजूद, नोटबंदी वाले साल 2016-17 में GDP ग्रोथ 8.3% रही। मैं नोटबंदी के फायदे या नुकसान नहीं गिनाऊंगा, वह मैंने पहले भी किया है। इस कॉलम में मैं यह कहना चाहूंगा कि चुनी हुई सरकारों को नीतियां लागू करने का अधिकार है, चाह वे मूर्खतापूर्ण या विध्‍वंसक क्‍यों न हों। क्‍या सही नीति है और क्‍या गलत, इसपर हमेशा असहमतियां रहेंगी। ऐसे मसलों पर फैसला सुनाना मतदाताओं का काम है, अदालतों का नहीं।

कुछ बुद्धजीवियों का तर्क है कि अदालतों का यह तय करना जरूरी था कि RBI से ठीक से सलाह-मशवरा किया गया था या नहीं। बकवास! कार्यपालिका और अन्‍य एजेंसियों के रिश्‍ते पर हजारों बहसें हो सकती हैं लेकिन सुप्रीम कोर्ट उसकी जगह नहीं है। उसके पास बेहद कम वक्‍त है इसलिए बेहद जरूरी मसलों पर ही सुनवाई होनी चाहिए। दुनियाभर के देशों ने नोटबंदी की है, बिना किसी कानूनी चुनौती के क्‍योंकि यह जाहिराना तौर पर एक राजनीतिक कदम है।

1946 या 1978 में नोटबंदी के बाद तो किसी बुद्धिजीवी ने सरकार के अधिकार-क्षेत्र पर सवाल नहीं उठाए। आप कह सकते हैं कि पहले की नोटबंदियों ने जनता को 2016 की तरह चोट नहीं पहुंचाई मगर क्‍या? सरकार को नीतियां लाने का अधिकार है, भले ही वे अंत में विध्‍वंसक साबित हों। 1970s में इंदिरा गांधी की समाजवादी नीतियों के पीछे नीयत सही थी, लेकिन वे विस्‍फोटक साबित हुईं। स्‍वतंत्रता और 1977 के बीच गरीबों की संख्‍या लगभग दोगुनी हो गई। तो क्‍या अदालतें ऐसी याचिकाएं स्‍वीकार करने लगें कि इंदिरा का समाजवाद बेहद खराब नीति जिसने लाखों को भुखमरी की ओर ढकेला? बिल्‍कुल नहीं।

जस्टिस बीवी नागरत्‍ना ने अपने फैसले में कहा कि RBI ऐक्‍ट की धारा 26 के अनुसार, केवल RBI ही नोटबंदी की शुरुआत कर सकती है, सरकार नहीं। असल में, ऐक्‍ट कहता है कि नोटबंदी का उद्भव RBI से होना चाहिए, शुरुआत नहीं। असल आदेश RBI से ही आया, महीनों तक सरकार और RBI में चर्चा के बाद। जस्टिस नागरत्‍ना ने कहा कि सरकार कानून पारित कराके ही नोटबंदी कर सकती है। लेकिन नया कानून पारित कराने का मतलब गोपनीयता नहीं रह जाएगी और त्‍वरित कार्यवाई की संभावना भी खत्‍म हो जाएगी।

भारत में जुडिशल ऐक्टिविज्‍म का मतलब सुप्रीम कोर्ट ऐसी जनहित याचिकाएं उठाता है जिन्‍हें बाहर की अदालतें कभी नहीं छुएंगी। कार्यपालिका खुद ही अपने कानूनों और नियमों को लागू करने में नरम और अनिच्छुक दिखे, जब भ्रष्टाचार और पक्षपात किसी भी उचित सीमा से परे प्रशासनिक कार्रवाई को खत्‍म कर दे, जब जुडिशल ऐक्टिविज्‍म एक अच्छी बात है। मैं इस नई पहल पर अदालत को बधाई देता हूं।

लेकिन जुडिशल ऐक्टिविज्‍म भी हदें पार कर सकता है। लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि विधायिका और कार्यपालिका जल्‍द काम करने में सक्षम हों और जनहित याचिकाओं के चलते कानूनी देरी से सालों तक परेशान न हों। किसी और लोकतंत्र के बारे में सोचना मुश्किल है जहां जनहित याचिकाओं में इतने सारे कानूनों और कार्यपालिका के फैसलों को चुनौती दी जाती हो। भारत को केवल काम करने वाली न्यायपालिका की ही नहीं बल्कि काम करने वाली विधायिका और कार्यपालिका की भी जरूरत है।

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