एक समय ऐसा आया जब गांधी परिवार में उनकी ही बहू मेनका गांधी बागी बन गई! विमान हादसे में संजय गांधी की मौत हो गई। इसने देश की राजनीति का चेहरा बदल दिया। संजय इंदिरा गांधी के छोटे बेटे थे। पर्दे के पीछे से वही कांग्रेस के सारे फैसले लेते थे। पार्टी पर उनकी जबर्दस्त पकड़ थी। वह किसी के काबू में नहीं थे। इंदिरा के भी नहीं। संजय के गुजरते ही अगर हालात किसी के लिए सबसे ज्यादा बदले तो वह मेनका थीं। संजय गांधी की पत्नी। मेनका में पति की राजनीतिक विरासत संभालने की महत्कांक्षाएं हिलोरे मार रही थीं। लेकिन, सास ने बीच में दीवार खड़ी कर दी। इंदिरा बड़े बेटे राजीव को राजनीति में आगे बढ़ाने लगीं। यह और बात है कि इसके पहले तक वह पॉलिटिक्स से बिल्कुल दूर थे। इंदिरा का यह फैसला मेनका को पसंद नहीं आया था। परिवार में खींचतान इस कदर बढ़ी कि मेनका ने अपने रास्ते अलग करने का फैसला कर लिया। खुद को पार्टी में साइडलाइन होता देख मेनका ने यह कदम उठाया था। मार्च 1983 में उन्होंने राष्ट्रीय संजय मंच बनाने का ऐलान कर दिया। जो तस्वीर आपको दिख रही है वह उसी समय की है।
कांग्रेस और गांधी परिवार एक-दूसरे में सने हैं। सास-बहू की पारिवारिक रार को आज याद करने का कारण है। बुधवार को कांग्रेस एक बार फिर बड़े बदलाव की ओर बढ़ी है। पार्टी की कमान आधिकारिक तौर से गांधी परिवार के बाहर के किसी शख्स के हाथों में गई है। मल्लिकार्जुन खरगे ने नए कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर कार्यभार संभाल लिया है। पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उन्हें शुभकामनाएं दी हैं। उन्होंने पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं से मिल-जुलकर आगे बढ़ने का आह्वान किया है। चुनौतियों के पहाड़ों के बीच खरगे ने कांग्रेस की कमान संभाली है।
कभी कांग्रेस में संजय दौर था। वह जो कह दें आखिरी हो जाता था। 1980 में लोकसभा के मध्यावधि चुनाव हुए थे। कांग्रेस दोबारा सत्ता में लौटी थी। इमरजेंसी के बाद 1977 में जनता पार्टी को जो जनता सत्ता में लाई थी, उसने इंदिरा के पक्ष में मतदान किया। 1977 के चुनाव में इंदिरा भी रायबरेली से हारी गई थीं। मध्यावधि चुनाव में उन्होंने इसका बदला लिया। कांग्रेस के गढ़ अमेठी से संजय गांधी ने जोरदार मतों से जीतकर संसद में एंट्री की। यह और बात है कि कुछ ही महीनों में संजय की विमान हादसे में मौत के बाद इंदिरा के सामने चुनौती खड़ी हो गई। कह सकते हैं कि यहीं से मेनका की बगावत के बीज पड़े थे।
तब इंदिरा ने बड़े बेटे राजीव गांधी को सियासत के मैदान में उतार दिया। संजय की मौत के बाद अमेठी में उपचुनाव हुए। राजीव गांधी को इसमें कांग्रेस उम्मीदवार बनाकर उतारा गया। फैसला इंदिरा का था। सो, पलटा भी नहीं जा सकता था। यह फैसला मेनका को अखर गया था। विपक्ष ने उपचुनाव में राजीव के सामने शरद यादव को खड़ा किया था। राजीव ने यह चुनाव जीत लिया था। हालांकि, परिवार के अंदर इंदिरा के इस फैसले ने अलगाव के बीज डाल दिए थे। मेनका गांधी संजय की विरासत संभालना चाहती थीं। इस बात को लेकर उन्होंने सास के खिलाफ बगवात के सुर अपना लिए।
एक समय यह झगड़ा आम हो गया। किसी से छुपा नहीं रहा कि अब परिवार में सास-बहू साथ नहीं रह पाएंगी। कुछ समय बाद मेनका ने सास का घर छोड़ दिया। बेटे वरुण को साथ लेकर वह मायके में रहने लगीं। 1983 में तो वापसी के रास्ते बिल्कुल ही बंद हो गए। मेनका ने उसी साल मार्च में संजय विचार मंच के नाम से अपनी पार्टी बना ली। कांग्रेस के कई नेता जिनकी संजय से वफादारी थी, वे इस पार्टी का हिस्सा बन गए।
1984 में इंदिरा गांधी की मौत के बाद राजीव ने देश की सत्ता संभाली। फिर लोकसभा चुनावों का ऐलान हुआ। राजीव ने चुनाव लड़ने के लिए अमेठी को चुना।एक समय यह झगड़ा आम हो गया। किसी से छुपा नहीं रहा कि अब परिवार में सास-बहू साथ नहीं रह पाएंगी। कुछ समय बाद मेनका ने सास का घर छोड़ दिया। बेटे वरुण को साथ लेकर वह मायके में रहने लगीं। 1983 में तो वापसी के रास्ते बिल्कुल ही बंद हो गए। मेनका ने उसी साल मार्च में संजय विचार मंच के नाम से अपनी पार्टी बना ली। कांग्रेस के कई नेता जिनकी संजय से वफादारी थी, वे इस पार्टी का हिस्सा बन गए। तब संजय विचार मंच का उम्मीदवार बनकर मेनका ने राजीव को ललकारा था। मेनका ने संजय और राजीव ने मां इंदिरा के नाम पर वोट मांगा था। राजीव के साथ उन दिनों सोनिया गांधी भी प्रचार में जा रही थीं। इंदिरा के लिए सहानुभूति की लहर तब बहुत तगड़ी थी।इस लहर में राजीव ने मेनका को शिकस्त दे दी थी।