Thursday, April 25, 2024
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क्या आने वाले चुनाव में जीत पाएगी कांग्रेस?

आने वाले चुनाव में जीतने के लिए कांग्रेस ने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया है! सर्दी बहुत ज्यादा है। नए साल में कुछ ज्यादा ही सता रही है। एक जनवरी तो ठीकठाक निकल गया। दो जनवरी से लगता है कि गलन बढ़ गई है। धूप ने भी अपना दायरा घटा लिया है। इस घने कोहरे में तीन जनवरी से एक बार फिर भारत जोड़ने की मिशन पर राहुल गांधी निकल गए। वो भी T-Shirt में। उनके टी-शर्ट से कांग्रेस ही नहीं, बीजेपी के नेता भी परेशान हैं। पत्रकारों ने सीधे-सीधे सवाल ही पूछ लिया था। छोटी बहन प्रियंका ने भी कहा कि ‘कोई मुझसे पूछ रहा था कि आपके भाई को ठंड नहीं लगती।’ खैर, राहुल गांधी इस ठंड के कोहरे को चीरते हुए आगे बढ़ रहे हैं। मगर सवाल ये है कि क्या ये T-Shirt सियासत के कोहरे को झेल पाएगी? सियासी कोहरे को ये टी-शर्ट चीर पाएगी या नहीं? पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता। फिलहाल टी-शर्ट चल रही है। मगर उस टैली का क्या करेंगे? जो 50-55 से आगे नहीं बढ़ रही है। क्या टैली को ये T-Shirt 100-150 तक ले जा पाएगी? अगर ऐसा हुआ तो मोदी की कम्फर्टेबल सरकार नहीं बन पाएगी। राजनीतिक पंडितों के मानें तो 2024 चुनाव तक पीएम मोदी को कोई खास परेशानी नहीं होनी चाहिए। असल लड़ाई 2029 में दिखेगी। तो क्या राहुल गांधी फिजूल की मेहनत कर रहे हैं? जी नहीं।

दरअसल, राहुल गांधी और कांग्रेस दोनों को अलग-अलग नजरिए देखना होगा। राहुल गांधी की वो कांग्रेस नहीं है, जो उनकी दादी इंदिरा गांधी या पिता राजीव की थी। खरगे, दिग्विजय, कमलनाथ, गहलोत से हटकर राहुल की कांग्रेस है। राहुल गांधी उस जनता को ट्रेंड करना चाह रहे हैं, जिसके बदौलत सत्ता को बदली जा सके। कांग्रेस के जरिए सत्ता नहीं मिलेगी, ये बात राहुल को बखूबी पता है। इसलिए उनमें भी पुराने कांग्रेसियों को लेकर आक्रोश रहता है। शायद यही वजह है कि कहते रहते हैं कि जिसे छोड़ना है छोड़ दे। वो जानते हैं कि करप्शन कांग्रेसियों में भी है। यही वजह है कि जब राहुल गांधी जमीन पर उतरें है, पैदल चल रहे हैं तो सत्ता बर्दाश्त नहीं कर पा रही है। टी-शर्ट और ठंड की कैलकुलेशन करने लगती है।

राहुल गांधी खुद को ट्रांसफॉर्म परिवर्तन कर रहे हैं। जनता के बीच एक ऐसे परिवार का सदस्य है, जिस परिवार को देखने के लिए लोगों की भीड़ लग जाती थी। वो खुद ही जनता के बीच चला गया है। अगर कांग्रेस ट्रांसफॉर्मेशन कर रही होती तो वो कतार, वो भीड़ नहीं दिखती। वैसे, भारत की राजनीति एक झटके में नहीं बदल सकती। शायद राहुल गांधी अब समझ गए हैं। इसलिए वो चाहते हैं कि एक कैडर खड़ा हो।

जिन लोगों को राहुल गांधी साथ लेकर चल रहे हैं, वो आगे चलकर लीडरशिप में दिखाई देखी। मगर 2029 से पहले की उम्मीद नहीं दिखती है। मतलब 2029 से पहले ये कोहरा छंटता दिखाई नहीं दे रहा है। राहुल गांधी और कांग्रेस एक पिच पर नहीं है। कांग्रेस अब भी उसी स्थिति में है।

एक फैक्ट है कि 2009 से 2014 के चुनाव में करीब 45 फीसदी ब्राह्मण और समाज के संपन्न सवर्ण और पिछड़ी जातियों के वोटर कांग्रेस से निकल गए। कांग्रेस के लिए ये जिताऊ वोट हुआ करता था। तो क्या ये मान लिया जाए कि इन जातियों के नेताओं को जोड़ने पर कांग्रेस को ध्यान देना चाहिए? ऐसी भी बात नहीं है। वोट शिफ्ट होने का दूसरा पहलू भी है। इस दौरान गरीब और बीपीएल दोनों ही बड़ी तादाद में बढ़े हैं।मोटामोटी आंकड़ों के मुताबिक 80 करोड़ों लोगों को सरकार फ्री में राशन मुहैया कराती है। जिसके पास सत्ता नहीं होगी या फिर उसे सत्ता में आने की उम्मीद नहीं होगी, उसके साथ भारत का वोटर खड़ा हो पाने की स्थिति में नहीं है। वो हैंड टू माउथ है। जिंदगी जीने का जो संघर्ष है, वो बढ़ गया है।

मतलब, सारी सुविधाएं सत्ता में सिमट गई और इस पावर ने अपनी मोनोपोली हर जगह बना ली। इस वजह से वोट का जो शिफ्टिंग है, वो आर्थिक तौर पर ज्यादा जुड़ गया है। भले ही वो राजनीतिक तौर पर नहीं जुड़ा हो। जहां पर पापी पेट का सवाल आ जाता है, वहां पर कट्टर हिंदूवाद, मुस्लिम, दलित का कोई फॉर्म्यूला काम नहीं करता है। उसका सीधे-सीधे पेट से कनेक्शन है। फिलहाल, राहुल के पास वो ‘सपना’ नहीं है, जो लोगों को दिखा सकें।

वोटों का शिफ्ट होने का मतलब जाति, धर्म या कुछ और नहीं बल्कि आर्थिक पक्ष ज्यादा है। कोई भी जाति या धर्म के नेता ये गारंटी दे सकता कि वो अपनी जाति का, अपने धर्म का वोट फलां पार्टी को दिला सकता है। 2014 के बाद की पॉलिटिक्स नए तरीके से चल रही है और नरेंद्र मोदी इसके ‘रिंग मास्टर’ हैं। सत्ता का पावर उनके पास है तो आसानी से इसे ड्राइव कर ले जाते हैं। राहुल गांधी भले ही ठंड के कोहरे को झेल ले रहे हैं, मगर सियासी धुंध को चीर पाएंगे, फिलहाल कहना मुश्किल है।

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