यूनिवर्सिटी कैंटीन की हालिया विजिट में मैंने देखा कि डायनिंग हॉल में एकदम खामोशी थी। बीच में कभी-कभी यहां ज्यादा खामोशी होती है क्योंकि छात्र अपने फोन में व्यस्त होकर कुछ टाइप करते रहते हैं। अचानक मुझे अहसास हुआ कि अब एक-दूसरे से बात करना उनकी संस्कृति का हिस्सा नहीं रहा। मैं चुपचाप बैठ गया और उन्हें देखता रहा। उनका बायां हाथ बहुत आराम से अपनी मनचाही बात टाइप करने में व्यस्त था और उनमें से ज्यादातर ने मुझे वहां बैठे नहीं देखा, जबकि वे जानते थे कि मैं कौन हूं। दिलचस्प है कि उन्होंने इसका दिखावा करने के लिए जरूर अपना सिर ऊंचा किया कि उन्हें कितनी इमोजी मिली, जिसमें लव वाले सिंबल बने हुए थे। तब मुझे अहसास हुआ कि एक से लेकर तीन प्रेम चिह्नों तक वाली इमोजी हैं। जिस व्यक्ति को कम लव साइन वाली कम इमोजी मिलती हैं, वो तुरंत फायर वाली इमोजी (ईर्ष्या) भेज देता है। इन इमोजी से एक-दूसरे को जज करने वाली तुलना, ईर्ष्या की भावना और फोमो यानी किसी चीज को खोने का डर आ जाता है। ये बच्चे समझने में भूल कर रहे हैं कि ये एप ही इस तरह से डिजाइन किए हैं कि नौजवान प्रेरित हों, ताकि वे एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करें और अपनी जिंदगी के सबसे ग्लैमर भरे पलों के बारे में डालने पर एक-दूसरे से मान्यता मिले, इसमें लाइक और दोबारा शेयर भी शामिल है। मैंने देखा कि उनमें से एक छात्र अपनी ही पोस्ट डिलीट कर रहा था क्योंकि उसे उतने लाइक नहीं मिले और इससे उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुंची। डिलीट करने के बाद वो छात्र वहां से उठा और तब उसने देखा कि मैं उसे देख रहा था। तुरंत उसने कोहनी मारकर साथी छात्र को इशारा किया और एक के बाद एक बेमन से फोन से ध्यान हटाया। लेकिन उन्होंने ऐसे घूरा, इससे मुझे लगा कि मैंने उनके निजी समय में घुसपैठ कर दी हो। बातचीत शुरू करने के लिए मैंने उनमें से कुछ छात्रों से पूछा, क्या पिछले एक घंटे में तुम लोगों ने किसी से भी बात की? तब ज्यादातर को अहसास हुआ कि साढ़े तीन घंटे की क्लास के बाद उन्होंने बात ही नहीं की। जब वे क्लासरूम में लौटे, उनमें से अधिकांश लड़के फिर से फोन स्क्रीन में मगन हो गए। तब मुझे अहसास हुआ कि टैक्स्ट मैसेज भेजना, डिजिटल कम्युनिकेशन का सबसे लोकप्रिय तरीका है और यह असल संवाद में सबसे बड़ी बाधा है। उनमें से किसी ने भी घर पर एक फोन तक नहीं किया और मुझे भरोसा है कि घर से आए कॉल को भी उन्होंने नजरअंदाज कर दिया होगा। दर्जनों अध्ययनों ने साबित किया है कि टेक्स्ट मैसेजिंग पर हद से ज्यादा निर्भरता, जिसमें कॉल गौण हो जाते हैं, इसमें अगर लोग एक-दूसरे से वास्तविक रूप में नहीं जुड़ते, तो अकेलापन हो सकता है। शोध में कहा गया कि अगर कोई मित्र मैसेज का जवाब देने में देर लगाता है, तो इससे चिंता व अकेलापन बढ़ता है। देर से जवाब देने वालों को लोग मैसेज करना बंद कर देते हैं। अध्ययन में ये भी कहा गया कि जब लोग सोशल साइट्स पर जीवन की सारी बातें साझा करने लगते हैं, तो वे वास्तविक तरीके से खुद का प्रतिनिधित्व नहीं करते। एक समय बाद ये गैर-वास्तविकता ही उनकी असलियत बन जाती है। मैं वास्तव में नहीं जानता कि वे किसी के साथ प्रामाणिक बातचीत के कुछ क्षणों को क्यों याद करना चाहते हैं, जबकि वे आपकी आवाज सुन सकते हैं और चेहरा देख सकते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि यह पीढ़ी स्ट्रीमिंग ऐप्स में बिंज वॉचिंग कर पाती है क्योंकि वे अपनी स्क्रीन पर अनंत काल तक देखने के आदी हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि इन सर्वेक्षणों में सोशल मीडिया के उपयोग, संदेश और बिंज वॉचिंग में सहसंबंध पाया गया। इसमें भी कोई ताज्जुब नहीं कि ये युवा हमसे पूछे बिना अगले एपिसोड को स्वचालित रूप से चलाने वाले मनोरंजन ऐप्स को बंद नहीं करते हैं। यही कारण है कि मैंने ऐप सेटिंग्स में प्रोफाइल मैनेज करने वाले विकल्प पर क्लिक करके ‘ऑटोप्ले नेक्स्ट एपिसोड’ को बंद किया है। और हम घर पर देखते हुए आगे कुछ भी देखने से पहले एक-दूसरे की सहमति पूछते हैं। यह एपिसोड देखते समय एक दूसरे के साथ बातचीत करने का अवसर देता है। फंडा यह है कि टेक्नोलॉजी से जुड़ते हुए मानवीय संबंधों से समझौता न करें।
एन. रघुरामन का कॉलम:टेक्नोलॉजी हमें जोड़ती है या अकेलेपन की जमीन तैयार करती है?
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