एन. रघुरामन का कॉलम:मानव संसाधन में निवेश का मुकाबला आलीशान इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं कर सकता

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शुक्रवार रात 00.01 बजे मैं अपने एक सहकर्मी के साथ 22222 राजधानी ट्रेन में सवार होने के लिए भोपाल स्टेशन पहुंचा। आगे की यात्रा में छह घंटे लगना थे। इस ट्रेन को चुनने का कारण यह था कि हमारे पास कुछ भारी सामान था। चूंकि हम सही जगह पर खड़े थे, इसलिए इलेक्ट्रॉनिक साइन बोर्ड की सहायता से हम आसानी से उस प्रतिष्ठित ट्रेन के सबसे अपर क्लास के एच1 डिब्बे में चढ़ गए। हमने पहले अन्य यात्रियों को चढ़ने दिया। बाद में मेरे सहकर्मी ने सामान चढ़ाया और मैंने उन्हें अंदर खींच लिया। जैसे ही ट्रेन चली, हम सामान को धीरे-धीरे अंदर ले गए। हम सतर्क थे कि हमारी वजह से किसी भी यात्री को परेशानी न हो, लेकिन एक क्यूबिकल में यात्रा कर रहे कुत्ते को बाहरी व्यक्ति की गंध आ गई और उसने तुरंत जोरदार तरीके से भौंकना शुरू कर दिया। उसके मालिकों ने उसे चुप रहने के लिए कहा होगा और कुत्ता उसके बाद चुप ही रहा। कुछ अन्य यात्रियों के लिए बर्थ के आवंटन को लेकर एक छोटी-सी समस्या थी, लेकिन उनकी मदद के लिए कोई टीसी या कोच-अटेंडेंट नहीं था। यात्रियों ने खुद ही यह मामला सुलझा लिया। हालांकि हमने अपना सामान खुद ही व्यवस्थित किया था और चुपचाप सोने की कोशिश की थी, लेकिन कोच-अटेंडेंट किसी न किसी बहाने से हमारे क्यूबिकल के दरवाजे खटखटाता रहा। उसने हमारे हाथ में पानी की बॉटल देखी तो रेलवे द्वारा बोगी में सभी यात्रियों को दी जाने वाली यह बॉटल भी हमें नहीं दी। कई मायनों में उसने अपनी सेवा से यात्रियों को प्रभावित नहीं किया। उतरते समय भी उसने बर्थ से सामान को गेट तक ले जाने में हमारी मदद नहीं की। लेकिन जब ट्रेन रुकी, तो वह जल्दी से सामान उतारने में हमारी मदद करने आया और इंतजार करने लगा। उसके हाव-भाव से लग रहा था कि वह हमसे “बख्शीश’ मांग रहा था और मैंने पैसे दिए, इसलिए नहीं कि उसने हमारे लिए कुछ किया, बल्कि इसलिए कि मुझे उसके लिए बुरा लगा, उसे गर्व के साथ “बख्शीश’ कमाने के लिए प्रशिक्षित नहीं किया गया था। मुझे उस युवा, गोरे-चिट्टे लड़के के लिए वाकई बुरा लगा, क्योंकि वह किसी भी यात्री को केवल एक बड़ी मुस्कान, स्वागतपूर्ण रवैए या उन्हें सुखद यात्रा की शुभकामनाएं देकर या “अगर आपको कुछ चाहिए तो कृपया मुझे फोन करें’ कहकर ही प्रभावित नहीं कर सकता था। दरअसल उस तड़के कोई भी यात्री उसे फोन नहीं करने वाला था। वे अपनी खोई हुई नींद पूरी करना चाहते थे। उसे नहीं पता था कि “मैं हमेशा आपकी मदद के लिए उपलब्ध हूं’ का उचित रवैया उसे हर यात्री से स्वेच्छा से टिप दिलाता। मुझे जर्मनी के कोलोन से फ्रांस के पेरिस तक की अपनी ऐसी ही एक यात्रा याद आ गई, जो मध्यरात्रि 1 बजे शुरू हुई थी और पेरिस में सुबह 5 बजे पूरी हुई थी। ऐसी यात्राओं में कोच कंडक्टर (सीसी) हमारा पासपोर्ट ले लेता है क्योंकि हम कुछ यूरोपीय देशों से गुजरते हैं और हम यूरोपीय नागरिक नहीं हैं। मुझे ठीक से नींद नहीं आई क्योंकि मैंने अपना पासपोर्ट एक अज्ञात व्यक्ति को सौंप दिया था। लेकिन उस सीसी को इस बात की चिंता थी कि मैं ठीक से सो नहीं रहा हूं। उसने मुझे कम से कम दस बार आश्वासन दिया कि मेरे पासपोर्ट को कुछ नहीं होगा और यह एक प्रोटोकॉल है क्योंकि हम दूसरे देशों की सीमाओं को पार कर रहे हैं। उसने मुझे गर्म दूध और कुछ खाने को दिया और मुझे सहज महसूस कराने की कोशिश की। वह ट्रेन भी हमारी राजधानी एक्सप्रेस से कहीं बेहतर थी, हालांकि उसके सीसी का व्यवहार मेरी यादों से कभी नहीं गया। हमारे कुछ बड़े विश्वविद्यालयों, अनब्रांडेड रिजॉर्ट्स का उदाहरण लें। वे भी हमारी राजधानी ट्रेन जैसे ही हैं, जो दिखने में तो शानदार हैं, लेकिन वहां कामकाज सम्भाल रहे लोग, स्टूडेंट्स या गेस्ट्स को एक “वॉव’ वाला अनुभव देने के ​लिए ठीक से प्रशिक्षि​त नहीं होते। यही कारण है कि उन्हें अपना ब्रांड बनाने में मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। फंडा यह है कि ग्राहकों को यादगार अनुभव प्रदान करने के लिए लोगों के प्रशिक्षण में निवेश करें, बनिस्बत इसके कि उन भवनों में पैसा लगाया जाए, जो समय के सा​थ जर्जर हो जाएंगे।