शीला भट्ट का कॉलम:महाराष्ट्र में ऐसे कोई मुद्दे नहीं हैं, जो सभी वोटरों को खींच सकें

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महाराष्ट्र विधानसभा की 288 सीटों के लिए चुनाव प्रचार आक्रामक लेकिन भ्रमित करने वाला रहा है। ऐसा कोई भावनात्मक मुद्दा नहीं है, जिस पर लोग वोट दें या जिसका विरोध जताएं। चुनावों में हमेशा ही ऐसा कोई मुद्दा बनाना मुश्किल रहता है, जिसकी गूंज पूरे राज्य में समान रूप से सुनाई दे। महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्य में तो ऐसा और मुश्किल है, क्योंकि पश्चिम में मुम्बई और पूर्व में गोंदिया के बीच की दूरी लगभग 1000 किमी है। इसीलिए विदर्भ के भूमि से घिरे क्षेत्र में सोयाबीन और कपास की कीमतें किसानों के लिए गम्भीर मुद्दे हैं, कोंकण के समुद्र तटवर्ती क्षेत्र में युवाओं में बेरोजगारी की उच्च दर और उत्तर भारतीय श्रमिकों की आमद अहम मुद्दे हैं। मराठवाड़ा में मराठों के लिए आरक्षण का संवेदनशील मुद्दा हावी है। मुम्बई में स्थानीय मराठी मतदाताओं को लगता है कि महाराष्ट्र की अनदेखी करके गुजरात को आकर्षक परियोजनाएं दी जा रही हैं। हालांकि विकास से जुड़ा यह मुद्दा तेजी से नहीं उठ रहा है, क्योंकि उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना जैसी क्षेत्रीय पार्टियां मुम्बई में गुजराती वोटों का बड़ा हिस्सा खोना नहीं चाहती हैं। कांग्रेस, भाजपा, शिवसेना के तीन गुट और एनसीपी के दो गुट करीब 9.4 करोड़ मतदाताओं को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं। कुछ जाति आधारित दलों के अलावा प्रकाश आम्बेडकर और असदुद्दीन ओवैसी की पार्टियां भी मैदान में हैं। कई मजबूत निर्दलीय उम्मीदवार भी हैं। विश्लेषकों का मानना ​​है कि चुनाव में वोटिंग प्रतिशत अगर कम हुआ तो उम्मीदवारों की जीत का मार्जिन ज्यादा नहीं होगा। लोकसभा चुनाव में शरद पवार के नेतृत्व वाले महाराष्ट्र विकास अघाड़ी (एमवीए) ने 30 सीटें जीती थीं और भाजपा के नेतृत्व वाली महायुति को मात्र 17 सीटें मिली थीं। 48 सीटों में से कांग्रेस को 13 और भाजपा को मात्र 9 सीटें मिली थीं। लेकिन मतदान-प्रतिशत कुछ और ही कहानी बयां करता है। एमवीए और महायुति गठबंधन को मिले वोटों के बीच का अंतर मात्र दो लाख के आसपास था। अगर लोकसभा के नतीजों पर गौर करें तो एमवीए को स्पष्ट बढ़त हासिल है। लेकिन भाजपा का तर्क है कि विधानसभा चुनाव में मतदाता अलग तरीके से मतदान करते हैं, खासकर महाराष्ट्र में जहां 1990 के दशक से ही बुद्धिमान मतदाता गठबंधन सरकार को वोट देते आए हैं। भाजपा के जोरदार चुनाव-प्रचार से पता चलता है कि लोकसभा में हार का सामना करने के बाद पार्टी ने विधानसभा चुनाव में अपनी रणनीति पूरी तरह बदल दी है। लाड़की बहन योजना- जिसके तहत राज्य में अब तक करीब 2 करोड़ महिलाओं में से प्रत्येक को 7500 रुपए दिए जा चुके हैं- ने सत्तारूढ़ महायुति के लिए ‘फीलगुड फैक्टर’ पैदा किया है। मराठा-मुस्लिम-दलित मतदाताओं की शक्तिशाली धुरी ने लोकसभा में शानदार प्रदर्शन करने में एमवीए की मदद की थी, इसकी तोड़ निकालने के लिए भाजपा ने ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ का नारा दिया है। जाति जनगणना के लिए राहुल गांधी की अपील का मुकाबला करने के लिए भाजपा ‘एक हैं तो सेफ हैं’ का नारा बुलंद कर रही है। हरियाणा में भाजपा ने गैर-जाट जातियों के बीच चुपचाप काम करके जाट-विरोधी वोट हासिल किए थे। महाराष्ट्र में वह चतुराईपूर्वक ओबीसी वोटों के लिए काम कर रही है, जिनकी सामाजिक-हैसियत परम्परागत रूप से मराठा जाति से दूर रही है। यहां ओबीसी की 330 से अधिक और दलितों की 55 से अधिक उपजातियां हैं। भाजपा उन्हें एकजुट करने की कोशिश कर रही है। महाराष्ट्र का यह विधानसभा चुनाव स्थानीय भावनाओं, मुद्दों और प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में उम्मीदवारों की ताकत के आधार पर लड़ा जा रहा है। ज्यादातर जगहों पर किसी पार्टी के बजाय उम्मीदवार महत्वपूर्ण हैं। करीब 70 सीटों पर कांग्रेस का सीधा मुकाबला भाजपा से है। भाजपा की परीक्षा विदर्भ क्षेत्र में है। शरद पवार की परीक्षा मराठवाड़ा क्षेत्र में है। जबकि उद्धव ठाकरे मुम्बई और ठाणे में अपने पूर्व नायब एकनाथ शिंदे से मुकाबला करेंगे। अगर भाजपा महाराष्ट्र में सरकार बनाने में विफल रहती है तो इससे संसद के अंदर और बाहर राहुल गांधी का हौसला बढ़ेगा। कांग्रेस को 102 में से 70 से अधिक सीटें मिलने से राहुल मजबूत होंगे, क्योंकि वैसी स्थिति में ज्यादातर सीटें भाजपा उम्मीदवारों को हराकर आएंगी। लेकिन महाराष्ट्र में कांग्रेस की हार विपक्ष की राजनीति को कड़ी चोट पहुंचाएगी। वहीं अगर भाजपा हारती है तो पार्टी और सरकार दोनों को नई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। इससे उनके सहयोगियों और आलोचकों की बार्गेनिंग पॉवर भी बढ़ेगी। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)