हमारे भारतीय संसद में तुर्रम खान का नाम लेने से सख्त मनाही है! शकुनि, जयचंद, जुमलाजीवी, दलाल, चिलम लेना, सांड, अंट-शंट… ऐसे कई शब्दों को असंसदीय यानी अमर्यादित माना गया है। मतलब इनका इस्तेमाल संसद के दोनों सदनों- लोकसभा और राज्यसभा में नहीं होगा। अगर कोई सदस्य इन शब्दों का इस्तेमाल करता है तो इसे सदन की कार्यवाही से हटा दिया जाएगा। अमर्यादित शब्दों की लिस्ट में एक नाम तुर्रम खां का भी है। जी हां, वही नाम जिसका इस्तेमाल लोग बड़ी बहादुरी या थोड़ी शेखी बघारने के लिए करते हैं। आपने लोगों को कहते सुना भी होगा ‘वह तो यार बड़ा तुर्रम खां बनता फिरता है… तुम तो बड़े तुर्रम खां बन रहे हो… इतना बड़ा तुर्रम खां तो मैंने अपनी जिंदगी में नहीं देखा’। जैसे ही असंसदीय शब्दों की इस लिस्ट के बारे में पता चला, लोग तरह-तरह की बातें करने लगे। तुर्रम पर कुछ लोगों ने कहा कि इसमें क्या गलत हो सकता है? आखिर क्या सच में कोई तुर्रम खान था? इस नाम के पीछे की कहानी क्या है?
1857 का हैदराबाद, नाम था तुर्रेबाज खान
ये कहानी है आजादी से करीब 100 साल पहले की। वह दौर था 1857 की क्रांति का। जगह थी हैदराबाद। यहां भी एक लड़ाई लड़ी गई, जिसके बारे में इतिहास में कम ही जिक्र मिलता है। पन्ना पलटने पर तुर्रेबाज़ खान का नाम कहीं-कहीं पता चलता है जिसे बेगम बाजार का एक साधारण सैनिक बताया गया है। हालांकि उनका काम असाधारण रहा। उन्होंने ब्रिटिश रेजीडेंसी पर हमला करने के लिए करीब 6000 लोगों को इकट्ठा कर फौज तैयार की थी। उनकी कोई तस्वीर या स्केच उपलब्ध नहीं है। इस विद्रोह के पहले की उनकी जिंदगी के बारे में कोई जानकारी नहीं है। इतिहास को झांकने से ऐसा लगता है कि जैसे तुर्रेबाज खान 1857 के विद्रोह के साथ जन्मा और उसी के साथ इतिहास में दफन हो गया। ऐसे में आज की पीढ़ी के लिए यह जानना और भी जरूरी हो जाता है कि हैदराबाद का तुर्रेबाज खान कौन था?
तुर्रेबाज खान कौन था?
वास्तव में तुर्रेबाज खान वह शख्स थे, जिन्होंने देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के मानचित्र पर हैदराबाद का नाम दर्ज कराया। मेरठ की कहानी तो हम सभी जानते हैं लेकिन हैदराबाद में भी 1857 के विद्रोह की अपनी कहानी है। इस लड़ाई का नेतृत्व किया था तुर्रेबाज खान ने। उन्हें ही तुर्रम खां के नाम से जाना जाता है। उनके साथ थे मौलवी अलाउद्दीन। हैदराबाद में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत की ज्वाला जमींदार चीदा खान को आजाद कराने के लिए सुलगी, जिन्हें रेजीडेंसी के अंदर जेल में रखा गया था। मेरठ में बगावत की खबर हैदराबाद पहुंच चुकी थी, मस्जिदों, चर्चों, चौराहों हर जगहों पर पोस्टर लगाते हुए निजाम और आम जनता से अपील की गई कि वे सभी ब्रिटिश के खिलाफ खड़े हों। हालांकि निजाम अफजल उद-दौला और उसके मंत्री सलार जंग ने अंग्रेजों का साथ दिया।
अंग्रेजों के खिलाफ तुर्रेबाज और उनके साथियों के गुस्से की बड़ी वजह निजाम का ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ किया गया अलायंस था। निजाम की सेना और ईस्ट इंडिया कंपनी में मौजूद भारतीय सिपाहियों ने यूरोपीय अधिकारियों के खिलाफ बगावत कर दी। उनमें जमींदार चीदा खान भी थे। उस समय हैदराबाद में मौजूद सेना की टुकड़ी को दिल्ली कूच करने का आदेश दिया गया। चीदा खान ने इसका विरोध किया। इसे विदेशियों द्वारा मुगल शासक को सत्ता से हटाने का प्रयास समझा गया। चिदा खान 15 अन्य सिपाहियों के साथ हैदराबाद के लिए निकल गए। उन्हें उम्मीद थी कि निजाम सपोर्ट करेंगे लेकिन जैसे ही वह हैदराबाद में दाखिल हुए निजाम के मंत्री मीर तुराब अली खान ने गिरफ्तार कर उन्हें अंग्रेजों को सौंप दिया। बगावत का झंडा बुलंद करते हुए तुर्रेबाज खान ने क्रांतिकारियों को एकजुट किया और करीब 5000 बहादुर लड़ाकों की फौज खड़ी कर दी। इसमें कई अरब और छात्र भी शामिल थे।
इसी दौरान मौलवी अलाउद्दीन भी तुर्रेबाज के साथ हो गए। एक दिन शाम 6.30 बजते-बजते रेजीडेंसी को घेर लिया गया। पश्चिमी दीवार की तरफ दो बड़ों घरों में उन्होंने पोजीशन ले ली। दो साहूकारों अब्बन साहेब और जयगोपाल दास ने इस मिशन के लिए अपना घर तक खाली कर दिया। उधर, ब्रिटिश रेजिडेंसी की तरफ 5000 लोगों के कूच करने की खबर मंत्री मीर तुराब अली खान तक पहुंचा दी गई। उसने गद्दारी करते हुए रेजीडेंसी को अलर्ट कर दिया। तुर्रेबाज खान और मौलवी अलाउद्दीन ने लड़ाकों के साथ मिलकर दीवार गिरा दी। रेजीडेंसी के बगीचे वाले दरवाजों को तोड़ दिया गया। लेकिन दूसरी तरफ से मेजर कुदबर्ट डेविडसन अपने सैनिकों के साथ तैयार खड़ा था। दोनों तरफ से संघर्ष छिड़ गया। तुर्रेबाज की तरफ से लड़ रहे लोगों के पास मामूली हथियार जैसे तलवार और लाठी-डंडे थे। घर से पोजीशन लिए हुए इन जांबाजों पर मद्रास हॉर्स आर्टिलरी के प्रशिक्षित सैनिक भारी पड़ रहे थे। पूरी रात फायरिंग चलती रही। सुबह 4 बजे तक क्रांतिकारियों ने मोर्चा संभाला और फिर शहीद हो गए। रेजीडेंसी से लगातार होती फायरिंग देख दो हवेलियों में छिपे लड़ाके भाग निकले। चारों तरफ शव ही शव बिखरे पड़े थे।
तुर्रेबाज यह सोचकर भाग निकले कि वह अपनी ताकत और बढ़ाकर वापस अटैक करेंगे। 22 जुलाई को तुराब अली खान ने अंग्रेजों को तुर्रेबाज के बारे में सूचना लीक कर दी। तुर्रेबाज को उनकी आंख के पास मौजूद निशान से पहचान लिया गया और जंगल में गिरफ्तार कर लिया गया। हैदराबाद कोर्ट में मुकदमा चला और आजीवन सजा काटने के लिए अंडमान भेजने का फैसला सुनाया गया। सुनवाई के दौरान उनसे मौलवी अलाउद्दीन के बारे में सख्ती से पूछताछ की गई लेकिन एक सच्चे देशभक्त की तरह उन्होंने जुबान नहीं खोली। उन्हें ऑफर दिया गया कि अगर वह मौलवी के बारे में जानकारी दे देंगे तो सजा कम कर दी जाएगी लेकिन उन्होंने सारे आरोपों को अपने ऊपर ले लिया।
तुर्रेबाज बेहद पराक्रमी और तेजतर्रार थे। ‘काला पानी की सजा’ काटने के लिए उन्हें भेजा जाता, उससे पहले ही 18 जनवरी 1859 को वह जेल से भागने में कामयाब रहे। उन पर 5000 रुपये का इनाम घोषित हुआ। इतिहासकार मानते हैं कि वह धोखे से जंगल में पकड़ लिए गए और 24 जनवरी को उन्हें घेरकर गोली मार दी गई। उनके शव को शहर में घसीट कर घुमाया गया। कुछ इतिहासकारों का यह भी कहना है कि उनके शव से कपड़े हटाकर रेजीडेंसी के पास पेड़ से लटका दिया गया था।
इस क्रूरता के पीछे अंग्रेजों की मंशा यह थी कि अंजाम देखकर दोबारा कोई विद्रोह की जुर्रत नहीं कर सकेगा। इस तरह बेगम बाजार के रहने वाले रुस्तम खान के बेटे तुर्रेबाज एक योद्धा की तरह जिए और एक बड़े मकसद के लिए अपने प्राणों को न्योछावर कर दिया। 1857 के विद्रोह की याद में कोटी बस स्टैंड के पास एक मेमोरियल बनाया गया है, जिस पर तुर्रेबाज खान का नाम लिखा है। हैदराबाद में उनके नाम पर रोड भी है।
सरकार ने भले ही संसद में इस शब्द को असंसदीय करार दिया है पर अगली बार कोई तुर्रम खां बोलकर कोई बात कहे तो गर्व महसूस कीजिएगा कि देश का वो ऐसा बहादुर योद्धा था जिसने मौत को गले लगा लिया लेकिन कभी गद्दारी नहीं की।