‘वन-चाइना’ पॉलिसी क्या है और भारत इस बारे में क्या सोचता है?

0
203

एक समय ऐसा था जब साहिबान से रिश्ता तोड़ कर अमेरिका ने चीन का साथ दिया था! चीन की धमकियों के बावजूद अमेरिकी संसद की अध्यक्ष नैंसी पेलोसी ने ताइवान का दौरा और अपनी एशिया यात्रा को पूरा कर लिया है। अलग-अलग देशों में पेलोसी ने यह संदेश दिया कि अमेरिका चीन से डरता नहीं है। पूर्वी एशिया में तनाव की वजह ताइवान पर चीन का दावा और द्वीपीय देश को मिलने वाला अमेरिकी समर्थन है। चीन ताइवान को अपने हिस्से के रूप में देखता है जिसे उसने पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना में शामिल करने की कसम खाई है। चीन ताइवान में किसी भी विदेशी नेता की यात्रा का विरोध करता आया है। उसका कहना है कि सभी देशों को ताइवान को मान्यता देने से बचना चाहिए और ‘वन-चाइना पॉलिसी’ का पालन करना चाहिए।

नीति का इतिहास?

साल 1949 में चीनी गृह युद्ध के अंत में, माओत्से तुंग के कम्युनिस्ट बलों ने रिपब्लिक ऑफ चाइना च्यांग काई-शेक की कुओमिन्तांग (केएमटी) के नेतृत्व वाली सरकार को हटा दिया। हारी हुईं ROC सेनाएं ताइवान भाग गईं जहां उन्होंने अपनी सरकार की स्थापना की। जीतने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी ने मैनलैंड चाइना पर पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के रूप में शासन करना शुरू कर दिया। इसके बाद से दोनों देशों में अपनी-अपनी सरकारें हैं लेकिन दोनों की संस्कृतियां और भाषाई विरासत एक जैसी है। दोनों ही जगहों पर आधिकारिक भाषा के रूप में मंदारिन बोली जाती है।

करीब 70 साल से चीन ताइवान को चीनी प्रांत के रूप में देख रहा है और इसे मेनलैंड में दोबारा शामिल करने की प्रतिज्ञा करता है। चीन का कहना है कि ‘चीन सिर्फ एक है’ और ताइवान उसका हिस्सा है लेकिन द्वीपीय देश इन दावों को नहीं मानता है। शुरुआत में अमेरिका सहित कई सरकारों ने ताइवान को मान्यता दी क्योंकि कम्युनिस्ट चीन से बाहर चले गए थे। हालांकि आगे चलकर राजनयिक हवाएं बदल गईं और अमेरिका ने चीन के साथ संबंधों की जरूरत को देखते हुए पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना को मान्यता दे दी।

साल 1979 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर के कार्यकाल में रिपब्लिक ऑफ चाइना की मान्यता को खत्म कर दिया गया। अमेरिका ने भी अपना दूतावास ताइपे से बीजिंग ट्रांसफर कर दिया। हालांकि अमेरिकी कांग्रेस ने ताइवान में अमेरिकी सुरक्षा और वाणिज्यिक हितों की रक्षा के लिए 1979 में ताइवान रिलेशन एक्ट पारित किया। तब से लेकर आज तक अमेरिका ‘वन चाइना’ पॉलिसी का पालन करता है। ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन के अनुसार अमेरिका की ‘वन-चाइना’ पॉलिसी पीआरसी की ‘वन-चाइना’ नीति जैसी नहीं है।

इसके अनुसार, ‘अमेरिका की वन-चाइना नीति में कई तत्व शामिल हैं, जैसे क्रॉस-स्ट्रेट विवाद का शांतिपूर्व समाधान और बीजिंग के दावों की तुलना में ताइवान की कानूनी स्थिति की अलग व्याख्या।’ इंस्टीट्यूशन ने कहा है कि 1980 के दशक में अमेरिका ने इसे ‘सिद्धांत’ के बजाय ‘नीति’ कहना शुरू कर दिया था ताकि चीन के दावों और अमेरिका के नजरिए में फर्क किया जा सके। ROC को आज सिर्फ 15 देशों से ही मान्यता प्राप्त है। इसमें बेलीज, ग्वाटेमाला, हैती, होली सी, होंडुरास, मार्शल आइलैंड्स, नाउरू, निकारागुआ, पलाऊ, पराग्वे, सेंट लूसिया, सेंट किट्स एंड नेविस, सेंट विंसेंट एंड द ग्रेनाडाइन्स, स्वाजीलैंड और तुवालु शामिल हैं। अभी तक संयुक्त राष्ट्र और विश्व व्यापार संगठन जैसे अंतरराष्ट्रीय निकायों ने भी आधिकारिक तौर पर ROC को मान्यता नहीं दी है।

भारत 1949 से ही एक चीन नीति का पालन कर रहा है और साफ कर चुका है कि वह बीजिंग की सरकार के अलावा किसी और को मान्‍यता नहीं देता है। हालांकि भारत ने ताइवान के साथ व्‍यापार और सांस्‍कृतिक संबंध ही रखे हैं। लेकिन भारत ने साल 2008 से आधिकारिक बयानों और संयुक्‍त घोषणापत्रों में एक चीन नीति का जिक्र करना बंद कर दिया है। दरअसल चीन उस वक्त अरुणाचल प्रदेश को अपना इलाका बताने लगा था और राज्‍य के कई इलाकों के नाम भी बदल दिए थे।चीन की तरफ से अरुणाचल और जम्‍मू-कश्‍मीर के भारतीय नागरिकों को स्‍टेपल वीजा जारी करने के जवाब में भारत ने कड़ा कदम उठाते हुए साल 2010 में चीन के तत्‍कालीन राष्‍ट्रपति हू जिंताओ और प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ के साथ तत्‍कालीन भारतीय पीएम मनमोहन सिंह के मुलाकात के बाद जारी संयुक्‍त बयानों में ‘एक चीन नीति’ का जिक्र नहीं किया। 2014 में मोदी सरकार आने के बाद भी तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज इसी नीति पर कायम रही थीं।