लोकमान्य तिलक के लिए सड़कों पर क्यों उतर आए लोग? जानिए महत्वपूर्ण बात!

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हमारे देश में कई वीर क्रांतिकारी पैदा हुए है!12 मई और 9 जून, 1908 में ‘केसरी’ में छपे तिलक के लेखों को राजद्रोह माना गया था। बंबई हाई कोर्ट के तीसरे फौजदारी सेशन में 13 से 22 जुलाई, 1908 के बीच यह ऐतिहासिक मुकदमा चला। तिलक ने स्वराज प्राप्ति के लिए हर सम्भव उपाय किए। जनता को जगाने के लिए उन्होंने अपने अखबार का भरपूर इस्तेमाल किया। अदालतें भी उनके संघर्ष का जरिया बनीं। इस मुकदमे का फैसला 14 साल बाद 1922 में अहमदाबाद में महात्मा गांधी के विरुद्ध ऐसे ही मामले में सजा के लिए नजीर के तौर पर इस्तेमाल हुआ। ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे प्राप्त करके रहूंगा’ के प्रणेता तिलक के ‘केसरी’ और उसमें प्रकाशित राष्ट्रवादी लेखन ने ब्रिटिश सरकार को नाराज कर दिया था। उन पर 1897 में पहली बार राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। बम्बई हाई कोर्ट के जस्टिस स्ट्रैची ने 18 महीने की सजा दी। लेकिन जेल से निकलते ही ‘केसरी’ के जरिये वह फिर से उसी राह पर थे। उनके वकील रहे दावर उन्हें सजा से नहीं बचा पाए थे। दिलचस्प है कि उन्हीं दावर ने जज के तौर पर लोकमान्य के 1908 के मुकदमे की सुनवाई की और सजा सुनाई।

चुभ रहा था केसरी

1907 में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में नरम और गरमपंथी नेताओं के मतभेद खुलकर सामने आए थे। दोनों धड़ों के एक-दूसरे पर दोषारोपण के बीच ब्रिटिश सरकार गरमपंथी नेताओं के खिलाफ दमनचक्र तेज कर चुकी थी। सरकार मानकर चल रही थी कि देश में ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों के पीछे लोकमान्य तिलक हैं और उन्हें जेल भेजा जाना जरूरी है। उनका बहुप्रसारित ‘केसरी’ अखबार अंग्रेजों की आंख का कांटा बना हुआ था। बम्बई के गवर्नर जॉर्ज क्लार्क ने समाज में प्रभाव डालने वाले कुछ लोगों पर सरकार के विरुद्ध घृणा और अवमानना फैलाने का आरोप लगाया था। जब वह यह बोल रहे थे तो लोग समझ रहे थे कि निशाना कहां है? क्लार्क के भाषण के तीसरे दिन 24 जून, 1908 को बंबई में लोकमान्य तिलक को गिरफ्तार कर लिया गया। इससे एक सप्ताह पहले ‘काल’ के संपादक एसएम परांजपे का मामला सेशन कोर्ट के हवाले हुआ था। तिलक उनकी मदद के लिए बम्बई आए थे। गिरफ्तारी के बाद उनके पूना स्थित घर और प्रेस पर पुलिस ने ताला जड़ दिया। फिर तलाशी के दौरान घर और प्रेस में तोड़फोड़ की गई। बरामदगी एक पोस्ट कार्ड की थी, जिस पर विस्फोटक विषयक दो पुस्तकों के नाम अंकित थे। मुकदमे की सुनवाई के दौरान अभियोजन ने सबूत के तौर पर इस पोस्टकार्ड को काफी अहम बताया था। बंबई सरकार को जब लगा कि ‘केसरी’ के 12 मई के लेख से मुकदमा मजबूत नहीं होगा तो 9 जून के संपादकीय को भी आरोपों में शामिल किया गया।

23 जुलाई, 1856 को जन्मे बाल गंगाधर तिलक ने 1880 में वकालत पास की। नौ सालों तक कानून की कक्षाएं लीं। ‘केसरी’ में कानून पर तमाम बौद्धिक लेख लिखे। 40 साल के अपने सार्वजनिक जीवन में लगातार मुकदमों और अदालतों में उलझे रहे। इसमें लंदन की अदालतें भी शामिल थीं। तीन बार राजद्रोह के मुकदमों का सामना किया। कानूनी कौशल ऐसा विलक्षण कि जब 1897 में पहली बार राजद्रोह के मामले में सजा के बाद उन्हें जेल भेजा गया तो अगले ही दिन जेल से उन्होंने प्रिवी काउंसिल में की जाने वाली अपील का ड्राफ्ट तैयार कर अपने वकीलों को सौंप दिया। यह अपील अदालत में फैसला सुनकर तैयार की गई थी। दिग्गज वकील आश्चर्य में पड़ गए थे। न्यायिक प्रक्रिया का राजनीतिक इस्तेमाल उन जैसा शायद ही कोई नेता कर सका हो। लेकिन दिलचस्प है कि पेशे के तौर पर उन्होंने वकालत कभी नहीं की।

मुकदमे का फैसला होने के बाद अदालत के कटघरे से तिलक ने कहा था, ‘जूरी के फैसले के बाद भी मेरा दावा है कि मैं निर्दोष हूं। एक सर्वोच्च शक्ति है, जो हमारी नियति का निर्धारण करती है और यह ईश्वर की इच्छा हो सकती है कि मैं जिस उद्देश्य का प्रतिनिधित्व करता हूं, वह मेरे मुक्त रहने की अपेक्षा मेरे बंदी रहने और और यातना सहने में अधिक फूले-फले।’ 50 सालों बाद तिलक के ये शब्द संगमरमर की पट्टिका पर बंबई हाई कोर्ट के उस सेंट्रल कोर्ट के बाहर लगाया गया जहां स्वतंत्रता संघर्ष में 12 सालों के भीतर उन पर दो बार राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। दोनों ही बार उन्हें दोषी ठहरा कर सजा सुनाई गई। फिर भी तिलक डगमगाए नहीं। इस पट्टिका के अनावरण के अवसर को बंबई हाई कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश मुहम्मद करीम छागला ने अपने जीवन का सबसे बड़ा सम्मान माना था। उन्होंने कहा था कि इस कोर्ट रूम में तिलक को दी गई सजाएं वास्तविक न्याय का खुला उल्लंघन थीं। उन्हें सजा देने का उद्देश्य स्वतंत्रता और देशभक्ति की भावना को दबाना था। लेकिन यह उद्देश्य पूरा नही हुआ , क्योंकि मनुष्य की आत्मा को पराजित नही किया जा सकता। मनुष्य को कितना ही कैद में डाला जाए, उसकी अदम्य आत्मा पर विजय नहीं पाया जा सकता।