जब नीतीश कुमार को मिला था अरुण जेटली का साथ! जानिए महत्वपूर्ण बात!

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एक समय ऐसा था जब लालू प्रसाद यादव से दूर होने पर नितीश कुमार को अरुण जेटली का साथ मिला था! नीतीश कुमार चाहते थोड़े ही थे, उनको तो जबर्दस्ती सीएम बना दिया गया। ललन सिंह ने जब इसका खुलासा किया तो घोर आश्चर्य हुआ। वैसे पलटी मारने के लिए कुछ न कुछ कारण बताने होते हैं। पर किसी को न चाहते हुए जबर्दस्ती सीएम बना दिया जाए, ये समझ से परे है। मान लीजिए, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अनुरोध को नीतीश कुमार न ठुकरा पाए हों। आदर और सम्मान करते हुए मान गए हों। या मना करने की आदत ही नीतीश कुमार में न हो। 2017 में भी लालू से अलग होने पर जब सुशील मोदी समर्थन का पत्र लेकर पहुंचे तो वो मना कहां कर पाए। मोदी का सम्मान तो शुरू से करते आए हैं। 2002 में मौसम वैज्ञानिक भले ही अटल बिहारी वाजपेयी सरकार से अलग हो गए हों लेकिन नीतीश कुमार डटे रहे। इसलिए माना जा सकता है 2020 में लोकप्रियता के न्यूनतम स्तर पर पहुंचे नीतीश मना नहीं कर पाए। सीएम बन गए। लेकिन सीएम जबर्दस्ती बनाए जा सकते हैं, इस्तीफा देने के लिए तो इसकी जरूरत नहीं होती। राजभवन टहलते हुए जाते और इस्तीफा दे देते। कह देते नैतिकता इजाजत नहीं दे रही। अब भाजपा से सीएम बने। सीएम हाउस और राजभवन के बीच भाजपा का हाई कमान तो जबर्दस्ती करने आता नहीं क्योंकि आज तेजस्वी के साथ जाने के बावजूद जेडीयू के विधायकों में तो इजाफा हुआ नहीं है। ललन सिंह ने महागठबंधन सरकार में सुशील मोदी की लाचारी और अरुण जेटली का भी जिक्र किया जो अब दुनिया में नहीं हैं। बड़े ही सिलेक्टिव अंदाज में। ललन सिंह कहते हैं- हम जेटली जी से मिलने गए तो बोले पटना में कोई सुशील मोदी का फोन भी नहीं उठाता। कुछ देखो। कहने का अंदजा ऐसा मानो अरुण जेटली उनसे मदद मांग रहे थे। वो भूल गए कि नीतीश कुमार को बिहार में खूंटा ठोकने और सीएम बनाने के लिए जेटली ने क्या-कया किया।

पटना का मौसम आजकल बदला-बदला है। क्या पता सुनने में आ जाए कि नीतीश कुमार समता पार्टी बनाना थोड़े चाहते थे, केंद्र में मंत्री बनना थोड़े चाहते थे। वो तो..। खैर, यही नीतीश कुमार 1995 के चुनाव में सात सीटों पर सिमटने के बाद ज्ञानेंद्र ज्ञानू के घर पर आंसू बहा रहे थे और राजनीति से संन्यास लेने की बात कर रहे थे। लेकिन लोकसभा के चुनावों में भाजपा के साथ से टॉनिक ग्रहण किया। 1996 में भी और 1998 में भी और 1999 में भी। 2000 के विधानसभा चुनाव में मिली मात नीतीश के लिए तीसरा झटका था। फिर भी भाजपा ने उन्हें केंद्रीय कैबिनेट में जगह दी। वो दिल्ली से बिहार पर नज़र गड़ाए बैठे थे। गोधरा के बाद जब दंगों की आग में गुजरात जल उठा तो फैसला नीतीश को करना था। लालू से लगातार मिली मात के बाद नीतीश की नजर सिर्फ सीएम की कुर्सी पर थी। विधानसभा चुनाव हारने के बाद नीतीश ने महाभारत का गहन अध्ययन कर लिया। यही नहीं मनु शर्मा की किताब कृष्ण की आत्मकथा भी पढ़ी। इसके बाद अर्जुन की तरह उनको अपना लक्ष्य साफ दिखाई दे रहा था। गांधी, गोधरा और गुजरात नेपथ्य में था।

फिर 2005 के चुनाव में जेडीयू और भाजपा ने जबर्दस्त तैयारी की। झारखंड अलग हो जाने के बाद बिहार विधानसभा में 243 सीटें रह गई थीं। अलग राज्य बनाने का क्रेडिट अटल सरकार ने लिया और इधर लालू ने बिहार में इसको भुनाने की कोशिश की। लालू ने कभी कहा था – वनांचल मेरी लाश पर बनेगा। उन्होंने कहा कि 70 परसेंट रेवन्यू तो चला गया, बीजेपी-नीतीश ने अब छोड़ा क्या? जनता को इसका हिसाब करना चाहिए। इसके अलावा राबड़ी सरकार के पास गिनाने के लिए कुछ भी नहीं था। शिक्षकों और राज्य सरकार के कर्मचारियों को सैलरी नहीं मिल रही थी। खजाना पूरा खाली था। चारा घोटाले की लौ तेज हो रही थी। नीतीश ने इसको हवा दी। नतीजा सामने था।

फरवरी 2005 में बिहार लालू के हाथ से निकल गया। लेकिन जीता कोई नहीं। लालू को 243 विधानसभा सीटों में 75 पर जीत हासिल हुई। बीजेपी और जेडीयू ने 92 सीटों पर परचम फहराया पर वे स्पष्ट बहुमत से 30 कदम दूर थे। फिर अब नई दिल्ली में कोई हिमायती सरकार भी नहीं थी, जो कुछ जोड़-तोड़ करके, किसी भी तरह, उन्हें सत्ता दिला देती। 2004 की गर्मियों में वाजपेयी की सरकार शाइनिंग इंडिया की लहर पर सवारी नहीं कर पाई। यूपीए से मात मिली और मनमोहन सिंह सरकार में लालू यादव रेलमंत्री बन गए। अब केंद्र में उनकी चलने लगी। वह कांग्रेस के नेतृत्व में बने गठबंधन का एक महत्त्वपूर्ण पुरजा थे।

इधर लोजपा की दो महिला विधायक सुनीता चौहान और पूनम यादव को लगा कि उन पर दल-बदल के लिए दबाव पड़ेगा। पासवान ने कुछ जोर लगाया और बिहार के राज्यपाल बूटा सिंह ने उन दोनों महिलाओं को एक विशेष विमान से दिल्ली ले जाने की मंजूरी दे दी। चौहान और यादव को दिल्ली के जनपथ होटल में पहले से बुक कराए गए दो कमरों में ठहरा दिया गया। पासवान के आदमी वहाँ मौजूद थे। इधर दोनों विधायकों को वापस लाने के लिए जेडीयू के दो नेताओं नागमणि और रणवीर यादव को इंडियन एयरलाइंस की उड़ान से तुरंत उनके पीछे भेजा गया। अरुण जेटली ने अपने सचिव, ओम प्रकाश को यह सुनिश्चित करने का काम सौंपा था कि वे दोनों महिलाएँ जनपथ होटल छोड़कर तब तक जाने न पाएँ, जब तक उन्हें वापस लाने के लिए पटना से भेजे गए लोग वहाँ पहुँच नहीं जाते हैं।

इस थिएटर के सारे किरदार आस लगाए उचित समय का इंतजार कर रहे थे। खुद को बिहार का शेर कहने वाले लालू को उन्हीं की मांद में मात देना आसान नहीं था। वो पहले भी नहले पर दहला मार नीतीश को निस्तेज कर चुके थे। मनमोहन सरकार में मंत्री लालू यादव ने लचीले स्वभाव के बूटा सिंह को विधानसभा भंग करने और राष्ट्रपति शासन की घोषणा करने के लिए राजी कर लिया। एनडीए ने इस निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और नीतीश अपने पक्ष में समर्थन साबित करने के लिए 126 विधायकों को साथ लेकर राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के आगे परेड करने हेतु राष्ट्रपति भवन जा पहुँचे। लेकिन निजी तौर पर उन्होंने जेटली और जॉर्ज फर्नांडिस दोनों को बता दिया था कि अगर सुप्रीम कोर्ट का फैसला राष्ट्रपति शासन लागू करने के खिलाफ भी जाता है, तब भी वह सरकार बनाने का दावा पेश नहीं करेंगे और अंत में नीतीश ने यही किया।

ये फैसला सही साबित हुआ। फिर अरुण जेटली ने अटल बिहारी वाजपेयी से रणनीति बदलने की अपील की। उन्होंने अटल जी को इस बात के लिए राजी किया कि अब चुनाव से पहले ही नीतीश कुमार को एनडीए की तरफ से सीएम पद का उम्मीदवार घोषिथ किया जाए। वाजपेयी ने ऐसा ही किया और 2005, अक्टूबर में हुए चुनाव में लालू की चूलें हिल गईं। नीतीश बिहार की सत्ता पर काबिज हुए। तब से अब आठवीं बार नीतीश कुमार सीएम पद की शपथ ले चुके हैं। सात बार तो भाजपे के साथ ने ही ये निश्चित किया। इसलिए, जेटली की अधूरी कहानी सुनाने वाले ललन सिंह तय कर लें कि किसने किसको बनाया और बिगाड़ा।