कौन थे डकैत लुक्का? दिल से डरती थी अंग्रेजी हुकूमत!

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चंबल के बीहड़ में कई डकैत जन्मे हैं! लुक्का उर्फ लोकमन दीक्षित, नाम सुनते ही अंग्रेजों की रूह कांप जाती थी। चंबल के बीहड़ों में लुक्का का गिरोह सफर करने वाले अंग्रेज अफसरों और जमींदारों को लुटता था। कई बार डकैत लुक्का के गिरोह ने अंग्रेज अफसरों के आवासों में डकैतियां डाली। डकैत लुक्का अंग्रेजी शासन से नफरत करता था। भारत को जब 15 अगस्त 1947 को आजादी मिली तो उसके गिरोह ने कई किलो लड्डू बांट दिए थे। चार साल पहले लोकमन दीक्षित उर्फ लुक्का का 95 साल की उम्र में निधन हो गया था।

जीवन के अंतिम दिनों में लुक्का सरेंडर करने के बाद जैन महाविद्यालय के पास अपने पुश्तैनी घर में रहता था। डकैत लुक्का का परिवार अभी भी इसी जगह पर रहता है। चंबल घाटी में अनुशासित डकैतों की परंपरा के आखिरी सरगना लोकमन दीक्षित ने 1955 में मान सिंह और रूपा की मौत के बाद गिरोह की कमान संभाली। नियम और परंपराओं को लेकर लुक्का बहुत शख्त था। गिरोह के लोग अगर इसे तोड़ते थे, उन्हें कठोर सजा मिलती थी।

लुक्का को गिरोह का पृथ्वीराज चौहान कहा जाता था क्योंकि उनके पास बोली पर गोली मारने की विधा थी। गिरोह के लोग लुक्का को अचूक निशानेबाज मानते थे। कहा जाता था कि लुक्का की चलाई गोली कभी भी निशाने से नहीं चूकती थी। एक समय में चंबल इलाके में उसका अलग खौफ था। हालांकि लुक्का के गिरोह ने कभी गरीब लोगों को परेशान नहीं किया।

चंबल के बीहड़ों के आसपास से गुजरने वाले जमींदारों और अंग्रेज अफसरों को मान सिंह गिरोह निशाना बनाया करता था। लुक्का डाकू के सरदार बनने के बाद गिरोह की नीतियों में बदलाव किया गया और उनके घरों में घुसकर उन्हें लूटा जाने लगा। इससे लुक्का गिरोह का खौफ अंग्रेजी हुकूमत में बढ़ती जा रही थी। इसके साथ ही इलाके के जमींदारों में भी अलग खौफ होता था।

हालात यह हो गए थे कि आगरा से ग्वालियर की तरफ जाने वाले अंग्रेज अफसर तब तक दहशत में रहते थे, जब तक कि वो ग्वालियर नहीं पहुंच जाते थे। आगरा से ग्वालियर की तरफ जाने वाले अंग्रेजी अफसरों को वह चंबल में लुटता था। चंबल में लुक्का का खौफ इतना था कि वह कभी पुलिस के हाथ नहीं आया। अंग्रेजी शासन ने उसके काफी पकड़ने की कोशिश की लेकिन सारी कोशिशें नाकामयाब रही है।

लोकमन दीक्षित चंबल घाटी का पहले डकैत था, जिन्होंने विनोबा भावे के सामने भिंड में आत्मसमर्पण किया था। डकैत मान सिंह की मौत के बाद 1955 में पहले रूपा और उनके बाद लोकमन दीक्षित उर्फ लुक्का को गिरोह का सरगना बनाया गया। 1960 में विनोबा भावे से प्रेरित होकर लोकमन उर्फ लुक्का दीक्षित ने हथियार डाल दिए।

मान सिंह के गिरोह के मुखिया बनने के बाद लुक्का ने उनके बनाए अनुशासन को डकैतों से सख्ती से मनवाया। लोकमन दीक्षित का निशाना कभी नहीं चूकता था, इसलिए गिरोह के दूसरे डकैत उनसे खौफ खाते थे। लोकमन का फरमान था कि कोई भी डकैत किसी महिला से संबंध नहीं रखेगा। डकैती के दौरान मान सिंह के इस आदेश का पालन किया जाएगा। उसका निर्देश था कि किसी बहू-बेटी का अपमान न हो। डकैती के दौरान डकैत घर की किसी महिला को स्पर्श तक नहीं करेगा। ऐसी कोशिश करने वाले के लिए लोकमन ने चेतावनी के बाद तत्काल गोली मार देने का सख्त नियम बनाया था।

डकैत जीवन में दूसरों की जिंदगी उजाड़ने वाले इस लोकमन की खुद की भी जिंदगी दुखों से भरा रहा है। बड़ा बेटा सतीश कैंसर से मर गया जबकि छोटा बेटा अशोक सड़क दुर्घटना में मारा गया, लेकिन लुक्का को इस बात का जरा भी अफसोस नहीं रहा। लुक्का ने कहा था कि जब वह किसी व्यक्ति की हत्या करता था, तब वह उसके परिवार के बारे में सोचता तक नहीं था।

लोकमन ने कहा था कि उनके साथ जो भी हुआ वह उसके बुरे कर्मों का परिणाम ही है। इसलिए बेटों की मौत से वे गमगीन हुए बगैर वह अंतिम समय तक नाती की परवरिश करते रहे। लुक्का दीक्षित के दामाद शैलेद्र पांडेय मुरैना में अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक रहे। इसके बाद पीटीएस तिघरा में अधीक्षक से सेवानिवृत्त हुए।

डकैत जीवन में दूसरों की जिंदगी उजाड़ने वाले इस लोकमन की खुद की भी जिंदगी दुखों से भरा रहा है। बड़ा बेटा सतीश कैंसर से मर गया जबकि छोटा बेटा अशोक सड़क दुर्घटना में मारा गया, लेकिन लुक्का को इस बात का जरा भी अफसोस नहीं रहा। लुक्का ने कहा था कि जब वह किसी व्यक्ति की हत्या करता था, तब वह उसके परिवार के बारे में सोचता तक नहीं था।

लोकमन ने कहा था कि उनके साथ जो भी हुआ वह उसके बुरे कर्मों का परिणाम ही है। इसलिए बेटों की मौत से वे गमगीन हुए बगैर वह अंतिम समय तक नाती की परवरिश करते रहे। लुक्का दीक्षित के दामाद शैलेद्र पांडेय मुरैना में अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक रहे। इसके बाद पीटीएस तिघरा में अधीक्षक से सेवानिवृत्त हुए।