दिल्ली में कब मिलेगी दहशत से राहत?

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दिल्ली में लगातार लूट खरोच मची रहती है! झपटमारी या स्नैचिंग, जो पीड़ित के विरोध करने पर बदमाशों के हथियारों का इस्तेमाल करने से लूट या रॉबरी में तब्दील हो जाती है। पीड़ित की जान तक पर बन आती है। टू-वीलर सवार बदमाश सरेराह और दिन-दहाड़े अंजाम दे रहे हैं। सीसीटीवी फुटेज वायरल होते हैं तो बहस-मुबाहिशे शुरू होती हैं। आखिरकार स्ट्रीट क्राइम पर लगाम क्यों नहीं लग पा रही है? दर्जनों केस के बावजूद जेल से बाहर आकर फिर से बदमाश हिम्मत कैसे करते हैं? कानून में कहां है खामियां?

चेन, फोन और पर्स… ये तीन चीजें छीनी और लूटी जाती हैं। दिल्ली पुलिस की तरफ से आईपीसी की धारा 379 और 356 में मुकदमा दर्ज किया जाता है। ये धाराएं काफी हल्की हैं, जिन पर कोर्ट से जमानत आसानी से मिल जाती है। स्ट्रीट क्राइम में शामिल बदमाश कई बार पकड़े जाने के बावजूद जेल से बाहर आने पर फिर से इसी धंधे में जुट जाते हैं। अगर हथियार दिखाकर या चोट पहुंचकर वारदात को अंजाम दिया जाता है तो लूट की धारा 392 या 394 लगाई जाती है। इन धाराओं में अधिकतम सजा दस साल तक है। इसलिए स्नैचिंग पर धारा 379 या 356 लगाने के बजाय सीधे 392 या 394 में केस दर्ज करने की मांग उठती रही है।

पुलिस अफसर बताते हैं कि मुकदमा दर्ज करते वक्त पीड़ित का बयान अहम होता है। इसी के कंटेंट के हिसाब से मुकदमा दर्ज किया जाता है। कई बार जांच अधिकारी बयान दर्ज करते समय चालाकी दिखा जाते हैं। संगीन अपराध हल्का दिखाने के लिए लूट के मामले को भी झपटमारी में दर्ज कर देते हैं। स्ट्रीट क्रिमिनल्स भी कानून और पुलिस के लूपहोल से वाकिफ हो चुके हैं। कानूनी पचड़ों से रोज दो-चार होने वाले बदमाश जानते हैं कि वो सस्ते में छूट जाएंगे। अगर अदालत में केस चला भी तो पीड़ित खुद ही इतना परेशान हो जाएगा या डर जाएगा कि गवाही नहीं देगा। इसलिए बदमाश बदस्तूर वारदातें करते हैं।

एक पुलिस अफसर बताते हैं कि अधिकतर मामलों में बदमाश को पीड़ित देख नहीं पाता है। अधिकतर छीनी चीज बरामद नहीं हो पाती है। सबूत भी खास नहीं होता है। अगर पुलिस सीसीटीवी फुटेज या लोकल इंटेलिजेंस से बदमाश को पकड़ भी लेती है तो पीड़ित कोर्ट में मुकर जाता है। इससे अपराधी छूट जाते हैं। निश्चित तौर पर झपटमारी पर कड़े कानून की दरकार है। इससे अपराधियों में दहशत का माहौल बनेगा। सिर्फ 365 या 379 लगाना नाकाफी है। इनमें कोर्ट से जमानत आसानी से मिल जाती है। आखिर में आरोपी बरी हो जाते हैं। कुछ जांच अधिकारी भी बगैर ठीक से तफ्तीश किए अनट्रेस रिपोर्ट लगा देते हैं, जिसका फायदा बदमाशों को मिलता है और पकड़ में ही नहीं आ पाते हैं। इससे वो खुलकर वारदातों को अंजाम देने लगते हैं।

झपटमारी या लूट के कारोबार में कई पेशेवर अपराधी जुड़े हैं, जो गैंग बनाकर इसे अंजाम दे रहे हैं। दिल्ली पुलिस कई झपटमारों और लुटेरों पर मकोका (महाराष्ट्र कंट्रोल ऑफ ऑर्गेनाइज्ड क्राइम एक्ट) तक लगाई है। पुलिस अफसर बताते हैं कि आदतन अपराधियों को काबू करने के लिए इस कड़े कानून का इस्तेमाल किया गया है। लेकिन सबसे ज्यादा चिंता का विषय ये है कि अब स्ट्रीट क्राइम में पकड़े जाने वाले अपराधी 60 फीसदी पहली बार वारदात करने वाले हैं। पेशेवर अपराधियों या गैंग को डॉजियर या लोकल इंटेलिजेंस से काबू किया जा सकता है, लेकिन नए-नए बदमाशों के झपटमारी या लूट करने से पुलिस के लिए कड़ी चुनौती पैदा हो रही है।

हरियाणा ने 2015 में झपटमारी के कानून के बदलाव को लागू कर दिया। इस अपराध के लिए 5 से 14 साल तक की सजा का प्रावधान कर दिया। पुलिस अफसर बताते हैं कि इससे हरियाणा के बदमाशों में दहशत का माहौल बन गया। दिल्ली में भी इस कानून में बदलाव करने की मांग उठती रही है। यह मामला 2017 में दिल्ली हाई कोर्ट तक में पहुंचा था। लेकिन अब तक सरकारों ने कोई कदम नहीं उठाया है। पुलिस अफसरों का कहना है कि अदालतों से भी जल्दी जमानत मिल जाने से अपराधियों को हौसले बुलंद होते हैं। इसलिए उन्हें पकड़े जाने का डर नहीं रहता है।

अगर ठीक एक साल की बात करें तो 15 जुलाई 2021 को लूट के 1,110 जबकि झपटमारी के 4,468 वारदात हुए थे जो 15 जुलाई 2022 को बढ़कर क्रमशः

1,221 और 5,024 हो गए। यानी एक साल में लूट घटनाओं में कुल 111 जबकि झपटमारी में 556 की बढ़ोतरी दर्ज की गई। अभी के हालात ये हैं कि दिल्ली में औसतन हर दिन लूट की सात और झपटमारी की 26 वारदातें होती हैं।

द्वारका जिले में झपटमार कहर बरपाने लगे। तत्कालीन डीसीपी शंकर चौधरी ने 20 मई 2022 को स्नैचिंग के केस को 72 घंटे से एक हफ्ते के भीतर सॉल्व करने का टारगेट फिक्स कर दिया। ऐसा नहीं होने पर थाने की क्रैक टीम, संबंधित बीट स्टाफ, एसएचओ, लॉ एंड ऑर्डर इंस्पेक्टर और एसीपी समेत पर सख्त एक्शन लेने की बात कही। अफसरों की गाड़ी की चाबी तक छीनी गईं। सुपरवाइजरी ऑफिसर के साथ बीट स्टाफ को शुक्रवार की परेड तलब किया जाने लगा। संबंधित इंस्पेक्टर और सुपरवाइजरी ऑफिसर के वीकली रेस्ट भी रद्द किए गए। इसके बावजूद हालात में बहुत ज्यादा सुधार नहीं हुआ।

साउथ दिल्ली में रहने वाले सुनील कटारिया बताते हैं कि करीब दो साल पहले उनका फोन दरियागंज इलाके में दो बदमाशों ने झपट लिया। एक बदमाश को उन्होंने पकड़ा और पुलिस को सौंप दिया। दूसरा बदमाश फोन लेकर फरार हो गया। पुलिस ने मुकदमा दर्ज किया और आरोपी को कोर्ट ने उसे न्यायिक हिरासत में जेल भेज दिया। दूसरा बदमाश पकड़ में ही नहीं आ सका और फोन भी नहीं मिला। सुनील बताते हैं कि चार महीने बाद अदालत से उन्हें नोटिस आया। कोर्ट में पेश हुए तो जज साहब छुट्टी पर थे। अगली पेशी में भी किसी वजह से गवाही नहीं हो पाई। तीसरी पेशी में मामला मध्यस्था केंद्र में भेज दिया गया। एक तो फोन नहीं मिला था, दूसरा लगातार कोर्ट के चक्कर। लिहाजा आरोपी को ही माफ कर दिया। वो कहते हैं कि न्यायिक प्रणाली इतनी जटिल है, जिसमें पीड़ित को ही पिसना पड़ता है। आखिर कब तक अदालत के चक्कर काटता… कब तक समय और पैसा खराब करता। इसलिए बेहतर विकल्प माफ कर देना ही था।