फूलपुर लोकसभा सीट से हमारे देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू लोकसभा सीट जीते थे! प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के विरुद्ध विपक्ष की गोलबंदी जैसे-जैसे आकार ले रही, उसी अनुरूप स्ट्रेटजी का भी खुलासा होते जा रहा है। विपक्षी दलों की गोलबंदी के केंद्र में जेडीयू है। गंभीरता का इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजेश रंजन उर्फ ललन सिंह ने इस बात का खुलासा किया। उन्होंने कहा कि यूं तो नीतीश कुमार को कई राज्यों से चुनाव लड़ने का आमंत्रण मिल रहा है, मगर सबसे उल्लासपूर्ण माहौल फूलपुर लोकसभा चुनाव से बनते दिख रहा। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो फूलपुर से लोकसभा चुनाव लड़ने के पीछे नरेंद्र मोदी की तरह ही सबसे बड़े हिंदी क्षेत्र और सबसे ज्यादा लोकसभा सीटों वाले उत्तरप्रदेश पर अपनी प्रभावी स्थिति को बनाना है। दरअसल, विपक्ष नमो की ही स्ट्रेटजी से नमो को मात देने की तैयारी शुरू कर दी।
विपक्षी गोलबंदी के नायक बने नीतीश कुमार को ये पता है कि नमो को परास्त करने के लिए कांग्रेस को साथ करना जरूरी है। इसके लिए खास कर जवाहरलाल नेहरू की लोकसभा सीट को चुना गया है। स्ट्रेटजी के तहत कांग्रेस, सपा और बसपा यानी तीनों दल ये सीट नीतीश कुमार के लिए छोड़ देते हैं तो ये विपक्षी गंठबंधन के लिए मजबूत आधार तो बनेगा ही, नीतीश कुमार के पक्ष में पूरे देश में एक सकारात्मक संदेश भी जाएगा।
फूलपुर लोकसभा से लड़ने के दो फायदे हैं, एक तो नेहरू जी की सीट से लड़कर देश भर में कांग्रेस का समर्थन हासिल होगा, दूसरा इस लोकसभा में कुर्मी की आबादी भी अधिक है। जातीय समीकरण में कुर्मी, यादव और मुस्लिम वोटों की अधिकायक संख्या जीत की राह को आसान कर सकते हैं। हालांकि कुर्मी वोटरों की संख्या उत्तरप्रदेश के अलावा छत्तीसगढ़, झारखंड और बंगाल में भी है। मगर उत्तरप्रदेश में कुर्मी वोट की महत्ता इसी से समझ सकते हैं कि अनुप्रिया पटेल भाजपा की समर्थक हैं, जबकि उनकी मां और भाई समाजवादी पार्टी के साथ।
विपक्षी एकता मुहिम के साथ नीतीश कुमार खड़े होने का दूसरा चिंतन ये है कि अभी भी नीतीश कुमार को लालू प्रसाद से ज्यादा भरोसा कांग्रेस पर हैं।
नीतीश कुमार इस बात से डर कर भी फूलपुर चुनाव लड़ना चाहते हैं कि कहीं लालू प्रसाद ‘गुप्त स्ट्रेटजी’ के तहत बिहार में रामविलास पासवान की तरह हरा भी न दें। राजनीतिक गलियारे में ये चर्चा है कि 2009 में लालू प्रसाद ने साजिश रच कर रामविलास पासवान को सिर्फ इसलिए हरा दिया था ताकी उनका कद थोड़ा छोटा किया जाए। सो, नीतीश कुमार बिहार के अलावा उत्तर प्रदेश से भी चुनाव लड़ना चाहते हैं।
विपक्षी एकता की धूरी बने नीतीश कुमार की एक मंशा ये भी है कि इस गोलबंदी में उत्तरप्रदेश सध गया तो देश के सभी हिंदी बेल्ट राज्य भी सध जाएंगे। यहां से सकारात्मक मेसेज चलेगा तो दक्षिण के राज्यों को भी एंटी बीजेपी के रथ पर सवार करने में मदद मिलेगी।सबसे पहले तो जदयू के अकेले चुनाव लड़ने का इतिहास अच्छा नहीं है। ऐसे में कमतर प्रदर्शन पीछा नहीं छोड़ती। जेडीयू ने अकेले दम पर 1995 में विधानसभा चुनाव लड़ी तो उसे मात्रा सात सीटों पर जीत मिली। 2014 में लोकसभा चुनाव लड़ी तो मात्र दो सीटों पर जीत मिली।
इसके अलावा नीतीश कुमार के बाढ़ लोकसभा सीट से खुद के भी चुनाव लड़ने का ट्रेंड अच्छा नहीं है। नीतीश कुमार जब पहली बार लोकसभा चुनाव 1989 में बाढ़ से लड़े तो उनकी जीत एक लाख 70 हजार से हुई। दूसरी बार जब लोकसभा चुनाव लड़े तो जीत का अंतर घट कर लगभग 70 हजार हो गया। तीसरी बार जब लोक सभा चुनाव लड़े तो मात्र 22 हजार से जीते और चौथी बार जीत का मार्जिन घट कर लगभग 2200 रह गया। पांचवी बार तो नीतीश जी चुनाव तक हार गए। इस वजह से एंटी भाजपा मुहिम में कितने दल साथ खड़े होते हैं, ये अभी देखना बाकी है।
बाधाएं और भी हैं। कांग्रेस के विरुद्ध दिल्ली, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना और बंगाल को एक प्लेटफॉर्म पर लाना भी है। संभव है जब उत्तरप्रदेश में सशक्त गंठबंधन बन जाएगा तो इसका लाभ हिंदी पट्टी के साथ दक्षिण के राज्यों को भी लोकसभा चुनाव के बरक्स तैयार कर लिया जाएगा। विधानसभा में वे अपनी मर्जी के तहत चुनाव लड़ें।
भाजपा के प्रवक्ता प्रेम रंजन पटेल इस प्रकरण पर कहते हैं कि ये पार्टी की घबराहट को शो कर रहा है। उन्हें ये लग रहा है कि देश के विपक्षी दलों को एक करने की मुहिम में वे आगे बढ़े और कहीं प्रदेश में लालू प्रसाद उनकी लुटिया डूबो न दें। इसलिए इस तरह की बात हवा में फेंक कर उत्तरप्रदेश की तमाम दलों की मंशा को भी समझना चाहते हैं। लेकिन अभी तक इस दिशा में किसी भी दल की तरफ से प्रतिक्रिया नहीं आने से जदयू में निराशा की लहर तैर रही है।