बिहार के उप चुनाव में किसकी होगी जीत?

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आने वाले दिनों में बिहार में उप चुनाव होने वाले हैं! मोकामा विधान सभा की चुनावी चर्चा होते ही एक अजीब से गर्माहट भरे माहौल से गुजरने जैसा लगता है। ये केवल विधायकी की लड़ाई में उतरे नामवरों के ही कारण नहीं है। बल्कि यहां की प्रचार शैली भी उतनी ही गरम होती है। यह बीते दिनों की बात हो गई जब मोकामा विधानसभा भी आम चुनावी क्षेत्र की तरह अपना प्रतिनिधि चुना करता था। लेकिन स्थितियां बदली और बदले राजनीतिक तौर तरीके। मोकामा की राजनीति जब गर्म हवा के साथ बही तो प्रारंभ में बाहुबली उम्मीदवारों की जीत तय किया करने लगे। फिर मोकामा को वह दिन देखना पड़ा जब खुद बाहुबली ही मैदान में जीत की नई परिभाषा गढ़ने लगे।

मोकामा विधान सभा के लिए यह कालखंड लोकतंत्र की आस्था के साथ चुनावी संग्राम को आवाज देता रहा। और तब पहली बार कांग्रेस के उम्मीदवार जगदीश नारायण सिन्हा ने बतौर विधायक अपनी एंट्री बिहार विधान सभा में कराई। दूसरी बार 1957 से 1962 के विधान सभा में भी जीत दर्ज कर मोकामा का प्रतिनिधित्व किया। तीसरे विधान सभा चुनाव में कांग्रेस परास्त हुई और निर्दलीय प्रत्याशी सरयू नंदन सिन्हा ने जीत दर्ज कराई। 1967 विधान सभा के चुनाव में पहली बार रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के बी लाल ने जीत का परचम लहराया। यह जीत लोकतंत्र में इसलिए भी इतिहास कायम कर गया कि पहली बार पिछड़ी जाति से आने वाले श्री लाल ने सवर्ण बहुल क्षेत्र में जीत का परचम लहराया। मगर दो साल बाद 1969 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के कामेश्वर प्रसाद सिंह ने फिर से अपना कब्जा बरकरार रखा।

1972 के विधानसभा चुनाव के साथ चुनाव में बाहुबलियों की उपयोगिता बढ़ गई। बाहुबली के प्रभाव सीमा वाले चिन्हित किए जाने लगे। चुनाव में पैसा, हथियार का इस्तेमाल होने लगा। 1972 से 1980 यानी 10 वर्ष तक कांग्रेस उम्मीदवार कृष्णा शाही का वर्चस्व रहा। 1980 से 1990 यानी कुल 10 वर्ष तक श्यामसुंदर सिंह की दबंगई बरकरार रही। ये कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीतते रहे। साल 1989 मोकामा क्षेत्र को पूर्णतः बाहुबलियों के हाथ करने के लिए जाना जाता है। और यह सब हुआ 1989 के लोकसभा क्षेत्र के चुनाव के समय। यह वह समय था जब नीतीश कुमार बाढ़ लोकसभा क्षेत्र से चुनाव में खड़े हुए थे। राजनीतिक गलियारों में तब नीतीश कुमार की जीत में दो बाहुबलियों के सहयोग की बड़ी चर्चा हुई। इनमे से एक थे दिलीप सिंह और दूसरे थे दुलारचंद यादव। दुलारचंद यादव और दिलीप सिंह को एक प्लेटफार्म पर लाने में लालू प्रसाद की प्रमुख भूमिका रही। बदले में नीतीश कुमार ने भी अपनी दोस्ती निभाई।

इस क्षेत्र के बदलाव की कहानी में 1990 का बहुत महत्व है। दरअसल कहा जाता है कि दिलीप सिंह को मोकामा से उम्मीदवारी जनता दल से नीतीश कुमार ने सुनिश्चित कराई। किस्सा है कि नीतीश कुमार अपनी जीत में मददगार दिलीप सिंह को मोकामा विधान सभा से टिकट दिलाने के लिए अड़ गए। तब जनता दल के अध्यक्ष रामजीवन सिंह भी एकदम से अड़ गए कि अपराधी नेचर के शख्स को उम्मीदवार नहीं बनाएंगे। कहा जाता है तब लालू प्रसाद ने रघुनाथ झा को रामजीवन सिंह के पास भेजा। उन्होंने तब रामजीवन सिंह को समझाया। तब उन्होंने कहा कि ‘ठीक है, मैं उस बैठक में नहीं जाऊंगा। अपने कलम से तो अपराधी को टिकट नहीं दूंगा। आप जिसे उम्मीदवार बनाना चाहते हैं बनाएं।’

और फिर तो यह सिलसिला चल पड़ा। 1990 के विधान सभा चुनाव में जनता दल से दिलीप सिंह ने जीत हासिल की। 1995 में दिलीप सिंह फिर खड़े हुए और जीत भी दर्ज की। वर्ष 2000 के विधान सभा में यह सीट निर्दलीय चुनाव लड़ कर बाहुबली सूरजभान सिंह ने चुनाव जीत ली। वर्ष 2005 से शुरू हुई अनंत काल की अनंत कथा। 2005 में दिलीप सिंह की मौत के बाद अनंत सिंह जदयू के टिकट पर चुनावी समर में उतरे। और पहले ही चुनाव में धमाके की जीत के साथ बिहार विधानसभा पहुंचे। इसके बाद तो 2010 से 2015 जदयू के टिकट पर और 2015 से 2020 का विधानसभा चुनाव निर्दलीय जीता। 2020 के विधान सभा चुनाव आरजेडी के उम्मीदवार के रूप में जीता।

वर्ष 2020 का विधानसभा चुनाव अनंत सिंह जीत तो गए। पर एके 47 और हैंड ग्रेनेड रखने के जुर्म में उन्हें 10 वर्ष की सजा सुना दी गई। इसे उनकी विधायक रद्द हो गई। अब 3 नवंबर को चुनाव होना है। अभी यह तय नहीं हुआ है कि अनंत सिंह की पत्नी महागठबंधन की उम्मीदवार होंगी या निर्दलीय। यहां तक यह भी तय नहीं हुआ है कि बीजेपी अपना उम्मीदवार देगी या लोजपा को सीट मिलेगी। हो जो भी लेकिन यहां की चुनावी हवा हर बार की तरह गर्म ही रहेगी।