हाल के दिनों में ज्ञानव्यापी मामले में हिंदू पक्ष के दो भागों में बांट जाने की खबर सामने आई है! वाराणसी के ज्ञानवापी विवाद के मामले में जिला अदालत में ज्ञानवापी मस्जिद परिसर के वजुखाने में मिल कथित शिवलिंग का कार्बन डेटिंग कराए जाने की मांग की गई है। इसके जरिए शिवलिंग की उम्र का पता लगाया जाना है। यह केस अब काफी हद तक कोर्ट के फैसले पर निर्भर हो गया है। हर किसी की नजर अदालत के फैसले पर बनी हुई है। हालांकि हिंदू पक्ष में ही दो तरह के सुर उठने लगे हैं। आखिर कार्बन डेटिंग क्या होती है? शिवलिंग में यह परीक्षण कराये जाने से कौन सी बातें स्पष्ट हो सकती हैं? और इस एक मुद्दे को लेकर हिंदू पक्ष में ही दो फाड़ कैसे हो गया, आइए समझते हैं हर एक पहलू। सबसे पहले कोर्ट के आदेश पर ज्ञानवापी परिसर का सर्वे कराया गया था। सर्वे के दौरान मस्जिद के वजू खाने में एक शिवलिंग नुमा आकृति मिली थी, जिसे हिंदू पक्ष ने आदि विश्वेश्वर का शिवलिंग बताया था। वहीं मुस्लिम पक्ष इसे फव्वारा बता रहा था। श्रृंगार गौरी नियमित दर्शन मामले में कुल 5 वादी महिलाएं हैं, जिनमें से चार वादी महिलाओं के वकील विष्णु शंकर जैन ने सर्वे के दौरान वजू खाने में मिले शिवलिंग के कार्बन डेटिंग की मांग के लिए याचिका दी थी। इस पर सुनवाई पूरी हो चुकी है। हालांकि मुख्य वादी राखी सिंह के वकील की तरफ से इसका विरोध किया गया है।
कार्बन डेटिंग की मांग को लेकर दी गई याचिका के खिलाफ हिंदू पक्ष की ही मुख्य वादिनी राखी सिंह के वकील की तरफ से इसका विरोध किया गया। राखी सिंह के वकील ने इस प्रक्रिया में शिवलिंग के क्षतिग्रस्त होने खतरा बताया। साथ ही धार्मिक भावनाएं आहत होने का भी हवाला दिया। पिछली सुनवाई में दोनों पक्षों के बीच जमकर बहस भी हुई थी सुनवाई पूरी होने के बाद जिला जज अजय कृष्ण विश्वेश ने इस पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था।
मुस्लिम पक्ष की तरफ से भी कार्बन डेटिंग का विरोध किया गया है। अंजुमन इंतेजामिया मस्जिद कमिटी की तरफ से विरोध जताते हुए कहा गया कि कार्बन डेटिंग उन चीजों की होती है जो कार्बन को अवशोषित करे। पेड़-पौधों से लेकर मरे हुए इंसान और जानवर की हड्डियों की जांच की जा सकती है। लेकिन किसी लकड़ी या फिर पत्थर की कार्बन डेटिंग नहीं हो सकती है क्योंकि ये कार्बन को अवशोषित नहीं कर सकते हैं।
दरअसल, कार्बन डेटिंग ऐसी विधि है, जिसकी सहायता से उस वस्तु की उम्र का अंदाजा लगाया जाता है। मान लीजिए कोई पुरातात्विक खोज की जाती है या फिर वर्षों पुरानी कोई मूर्ति मिल जाती है, तो कैसे पता चलेगा कि वह कितनी पुरानी है। कार्बन डेटिंग से उम्र की गणना की जाती है इसे अब्सल्यूट डेटिंग भी कहा जाता है। इसको लेकर भी कई सवाल है कई बार यह इससे भी सही उम्र का अंदाजा नहीं लग पाता है। हालांकि इसकी सहायता से 40 से 50 हजार साल की सीमा का पता लगाया जा सकता है।
कार्बन डेटिंग के तरीके को ऐसे समझा जा सकता है। वायुमंडल में कार्बन के 3 आइसोटोप मौजूद हैं। यह पृ्थ्वी के प्राकृतिक प्रक्रियाओं के हिस्से के रूप में होते हैं। कार्बन के यह तीन रूप हैं- कार्बन 12, कार्बन 13 और कार्बन 14। कार्बन डेटिंग के लिए कार्बन 14 की आवश्यकता होती है। इसमें कार्बन 12 और कार्बन 14 के बीच अनुपात निकाला जाता है। कार्बन 14, कार्बन का रेडियोधर्मी आइसोटोप है। इसका अर्धआयुकाल 5730 साल से भी अधिक का है। वैज्ञानिकों के मुताबिक रेडियो कार्बन का जितनी तेजी से क्षय होता है, उससे 27 से 28 प्रतिशत ज्यादा इसका निर्माण होता है, जिससे संतुलन की अवस्था प्राप्त होना मुश्किल होता है।
कार्बन डेटिंग की तकनीक का इस्तेमाल भारत ही नहीं दुनिया के अधिकतर देशों में किया जाता है। इस तकनीक की खोज 1949 में शिकागो यूनिवर्सिटी के विलियर्ड लिबी ने की थी। इस खोज के लिए विलियर्ड लिबी को साल 1960 में नोबेल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। हालांकि इसकी कुछ सीमाएं हैं। निर्जीव वस्तुओं की उम्र का आंकलन इस विधि से नहीं किया जा सकता है। अब टेराकोटा की मूर्ति की उम्र का अंदाजा इसके जरिए नहीं लगाया जा सकता है।
कथित शिवलिंग की कार्बन डेटिंग की मांग हिंदू पक्ष के 4 याचिकाकर्ताओं की तरफ से की गई है। वहीं मुस्लिम पक्ष और हिंदू पक्ष की मुख्य वादी राखी सिंह की तरफ से विरोध किया गया है। राखी सिंह के वकील का कहना है कि उसके शिवलिंग नहीं होने का कोई सवाल ही नहीं उठता है। शिवलिंग था, है और रहेगा। किसी तरह की वैज्ञानिक जांच कराए जाने की जरूरत नहीं है। कार्बन डेटिंग कराकर शिवलिंग होने के प्रति अविश्वास पैदा किया जा रहा है।