पूर्व राष्ट्रपति कलाम को एक बार नासा में एक मिशन के लिए बुलाया गया था! एपीजे अब्दुल कलाम को एक मिशन पर अमेरिका भेजा गया था। उन्हें 6 महीने में कई चीजों के बारे में जानना था लेकिन एक दिन अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी NASA में उन्होंने ऐसा कुछ देखा, जिससे उनका सीना गर्व से चौड़ा हो गया। वास्तव में, यह कहानी हर भारतीय को अपने गौरवशाली इतिहास पर गर्व करने का मौका देती है। आज अमेरिका, रूस की बातें होती है लेकिन सैकड़ों साल पहले भारत कितना आगे था, यह कलाम ने नासा में महसूस किया था। साल 1962 आधा बीत चुका था। केरल में त्रिवेंद्रम तिरुवनंतपुरम के पास मछुआरों के एक गांव थुंबा में रॉकेट लॉन्चिंग स्टेशन बनाने का फैसला हो चुका था। यह भारत में आधुनिक रॉकेट पर आधारित रिसर्च की शुरुआत थी। वहां एक चर्च था, जिसके बिशप ने इस प्रोजेक्ट के लिए जमीन दिलाने में काफी मदद की। सेंट मैरी मैगडेलिन चर्च थुंबा स्पेस सेंटर का पहला ऑफिस बना। प्रेयर रूम कलाम की पहली लेबोरेट्री थी। कुछ ही समय बाद कलाम को साउंडिंग रॉकेट लॉन्चिंग टेक्निक पर प्रशिक्षण के लिए छह महीने की ट्रेनिंग लेने अमेरिका भेजा गया। वहां उन्हें नासा के वर्क सेंटरों पर काम करना था। परिवार बॉम्बे एयरपोर्ट पर छोड़ने आया था, सबकी आंखों में आंसू थे और कलाम का प्लेन अमेरिका के लिए उड़ चला।
1963 में एपीजे अब्दुल कलाम ने वर्जीनिया में नासा के लैंग्ले रिसर्च सेंटर (LRC) में काम शुरू किया। उन्होंने एडवांस्ड एरोस्पेस टेक्नोलॉजी की बारीकियों को सीखा। यहां से वह मेरीलैंड के स्पेस फ्लाइट सेंटर (GSFC) गए। यहीं पर नासा के लिए ज्यादातर सैटलाइट विकसित और मैनेज की जाती थी। अपने प्रशिक्षण काल के आखिर में वह ईस्ट कोस्ट में वैलप्स आइलैंड स्थित वैलप्स फ्लाइट फैसिलिटी गए। यह नासा के साउंडिंग रॉकेट प्रोग्राम का बेस था। अपनी किताब विंग्स ऑफ फायर में कलाम लिखते हैं, ‘यहां रिसेप्शन लॉबी में मैंने एक पेंटिंग देखी जिसे काफी प्रमुखता से प्रदर्शित किया गया था। इसमें एक लड़ाई का दृश्य दिखाई देता था जिसमें बैकग्राउंड में कुछ रॉकेट उड़ते दिखाई दे रहे थे। फ्लाइट फैसिलिटी में इस तरह की थीम वाली पेंटिंग आम बात थी लेकिन पेंटिंग की एक बात ने मेरा ध्यान खींचा और वह थी रॉकेट दाग रहे सैनिक गोरे नहीं थे बल्कि उनकी स्किन डार्क थी। यह साउथ एशिया का सीन दिखाया गया था।’
कलाम लिखते हैं कि वह पेंटिंग उनके दिमाग में कौंध रही थी, फिर उनकी जिज्ञासा शांत हुई जब उन्होंने जाना कि यह दृश्य टीपू सुल्तान की सेना का दिखाया गया है जो अंग्रेजों से लोहा ले रही है। वह लिखते हैं कि धरती के दूसरे छोर पर इस पेंटिंग के जरिए युद्ध में रॉकेट का इस्तेमाल करने वाले सुल्तान की दूरदृष्टि का गुणगान किया जा रहा है जबकि टीपू के अपने देश में लोग ये बात नहीं जानते या तवज्जो ही नहीं देते। रॉकेट्री वॉरफेयर के हीरो के तौर पर एक भारतीय के गौरवगान को देखकर कलाम काफी खुश हुए।
वह पेंटिंग उनके दिल को छू गई। भारत लौटने के कुछ समय बाद ही 21 नवंबर 1963 को भारत का पहला रॉकेट लॉन्च हुआ। यह साउंडिग रॉकेट था जो नासा में बना था। हालांकि इसे चर्च बिल्डिंग में असेंबल किया गया था। आगे परेशानी और भी थी। रॉकेट को ट्रक से ले जाया गया और हाइड्रोलिक क्रेन की मदद ली गई। जब रॉकेट को क्रेन से लॉन्चर पर रखा जा रहा था तभी यह झुकने लगा। क्रेन के हाइड्रोलिक सिस्टम में लीकेज शुरू हो गया था। समय निकला जा रहा था, शाम को 6 बजे लॉन्च का समय था। अच्छी बात यह थी कि लीक बड़ा नहीं था और सबने मिलकर खुद रॉकेट को अपनी जगह पर फिट किया। आगे चलकर कलाम ने इसरो प्रोजेक्ट डायरेक्टर रहते हुए भारत को पहला स्वदेशी सैटलाइट लॉन्चिंग वीकल SLV-3 दिया।
अटल बिहारी वाजपेयी की कलाम से पहली मुलाकात इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री काल में 1980 में हुई थी। तब वाजपेयी ने हाथ मिलाने की बजाय कलाम को गले लगा लिया था। बाद में जब वाजपेयी दूसरी बार प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने कलाम को अपने मंत्रिमंडल में शामिल होने का ऑफर दिया था। हालांकि इस प्रस्ताव को एक दिन विचार करने के बाद कलाम ने बहुत विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया था। वह परमाणु परीक्षण कार्यक्रम को पूरा करना चाहते थे। हुआ भी वैसा ही। दो महीने बाद पोखरण में भारत ने परमाणु परीक्षण कर दुनिया को अपनी ताकत का एहसास कराया। बाद में वाजपेयी ने ही कलाम को राष्ट्रपति बनने का प्रस्ताव दिया। उन्होंने फोन पर बात करते समय कहा था कि आप सोचने के लिए समय ले लीजिए लेकिन मुझे आपसे हां चाहिए। पर्चा भरते समय वाजपेयी ने मजाक किया था, ‘आप भी मेरी तरह कुंवारे हैं’ तो कलाम ने कहा था, ‘प्रधानमंत्री जी न सिर्फ कुंवारा बल्कि ब्रह्मचारी भी।’