क्या मैनपुरी की सीट पर कब्जा कर सकते हैं शिवपाल यादव?

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शिवपाल यादव मैनपुरी की सीट को लेकर कुछ बड़ा सोच रहे हैं! शिवपाल यादव के इटावा स्थित घर पर पहुंच कर अखिलेश यादव ने मुलाकात की। डिंपल यादव भी पहुंची। चर्चा मैनपुरी लोकसभा उप चुनाव को लेकर हुई। परिवार की एकजुटता पर भी। और शिवपाल यादव मान गए। दो दिन पहले तक शिवपाल अपनी पार्टी प्रसपा को मजबूत बनाने और इसे मुलायमवादी असली समाजवादी पार्टी बताने में जुटे थे। अचानक मान गए। राजनीति में यह असंभव नहीं है। मानना और रूठना तो राजनीति के दो अहम हिस्से हैं। इसके साथ ही चर्चा यह भी शुरू हो गई है कि शिवपाल यादव की समाजवादी पार्टी में वापसी हो सकती है। सच में? ऐसा संभव है क्या? तो, चर्चा उन दोनों परिस्थितियों की। शिवपाल के सपा में आने और उनके सपा में न आने की। यकीन मानिए, आज की परिस्थिति में दोनों ही स्थितियों में शिवपाल यादव की स्थिति बेहतर ही होने वाली है। शिवपाल यादव ने एक झटके में पूरे यादवलैंड की राजनीतिक विसात पर ‘शह’ हासिल कर ली है। यादवलैंड की पॉलिटिक्स में इमोशन और रिश्ते काफी अहम होते हैं। शिवपाल इसे बखूबी जानते और मानते हैं। इसलिए, उनके निर्णय पर खुशी भी जताई जा रही है और उन्हें उचित स्थान देने की मांग भी हो रही है।

अखिलेश यादव को मुलायम सिंह यादव ने वर्ष 2012 में अचानक अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी बना दिया। वर्ष 2010 में जब समाजवादी पार्टी यूपी चुनाव 2012 की चुनावी रणनीति तैयार कर रही थी तो चेहरा मुलायम सिंह यादव थे। सारथी शिवपाल यादव। मतलब, शिवपाल यादव ने बतौर प्रदेश अध्यक्ष हर जिले से लेकर पंचायत स्तर तक की सपा इकाई को मजबूत बनाने का कार्य शुरू किया। वर्ष 2011 में अखिलेश यादव की प्रदेश पॉलिटिक्स में एंट्री हुई। वे साइकिल यात्रा के जरिए उन पंचायत स्तर की कमेटियों को बूथ स्तर तक पहुंचाने और उसे मजबूत बनाने में कामयाब हुए। मायावती सरकार देखती रह गई और यूपी चुनाव में समाजवादी पार्टी पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने में कामयाब हो गई। इसके बाद मुलायम सिंह यादव के सामने तीन विकल्प थे। खुद सीएम बनें। शिवपाल को सत्ता सौंपें। या फिर अपना उत्तराधिकारी घोषित खुद को केंद्र की राजनीति में सीमित कर लें। उन्होंने तीसरे विकल्प को चुना। अखिलेश यादव उत्तराधिकारी चुने गए। हंगामा हुआ। विधायकों को तो मुलायम और आजम खान संभाल ले गए। लेकिन, परिवार में असंतोष का माहौल बनने लगा।

शिवपाल यादव ने खुद को हमेशा मुलायम का उत्तराधिकारी माना। बताया और प्रचारित किया। लेकिन, सत्ता का अधिकार सौंपने की बारी आई तो मुलायम ने अपने बेटे को देखा। अखिलेश सीएम बने। फिर 2014 का चुनाव आया। प्रदेश में सरकार और शिवपाल के हाथ में पार्टी की कमान होने के बाद भी मोदी-शाह की जोड़ी ने बूथ स्तर तक कार्यकर्ताओं की ऐसी फौज तैयार की, जिसका सपा मुकाबला नहीं कर पाई और यूपी की 80 लोकसभा सीटों में से महज 5 पर जीत दर्ज कर पाई। यहां से अखिलेश ने अपने हिसाब से पार्टी को चलाने का फैसला लिया। 2016 आते-आते अखिलेश ने मुलायम को मार्गदर्शक मंडल में भेजकर पार्टी को अपने कब्जे में लिया। मतलब, पूर्ण उत्तराधिकारी। फिर प्रदेश में शिवपाल पर शिकंजा कसने लगा। स्थिति बदली। शिवपाल ने 2017 में पार्टी ही छोड़ दी।

मुलायम के सिद्धांतों के आधार पर प्रगतिशील समाजवादी पार्टी बनाने का ऐलान कर दिया। हालांकि, फायदा उन्हें नहीं मिला। लेकिन, समाजवादी पार्टी को नुकसान जरूर हो गया। 2019 में सपा-बसपा गठबंधन के बाद भी पार्टी ने 2014 से कोई भी बेहतर प्रदर्शन नहीं किया। 5 सीटों पर ही जीत दर्ज कर पाने में कामयाब हो पाए। यूपी चुनाव 2022 में अखिलेश यादव ने शिवपाल को साथ में जोड़ा। हालांकि, पहले तीन चरणों तक उन्हें जसवंतनगर में ही सीमित करके छोड़ा गया। फिर ग्राउंड रिपोर्ट आई और पश्चिमी यूपी में किसान आंदोलन के बाद भी सपा गठबंधन के बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद से संबंधित मामला सामने आया, तो शिवपाल को समाजवादी पार्टी का स्टार प्रचारक बना दिया गया।

यूपी चुनाव का रिजल्ट आया और समाजवादी 111 और सपा गठबंधन 125 सीटों तक ही पहुंच पाई तो सहयोगियों में भगदड़ मची। चूंकि, शिवपाल सपा के ही विधायक हैं तो वे भाग नहीं सकते थे। ऐसे में शिवपाल यादव सपा में अपनी संभावना तलाशते रहे। लेकिन, हर बार उन्हें सपा से दूर ही रखा गया। अखिलेश यादव ने तो एक समय में उन्हें भाजपा तक में जाने की सलाह दे दी थी। फिर सपा को मजबूत बनाने की सलाह दे दी। अखिलेश यादव और शिवपाल यादव के बीच लगातार तनाव की खबरें सामने आती रहीं। लेकिन, मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद स्थिति बदलती दिख रही है।

ऐसे में सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या शिवपाल की सपा में एंट्री हो सकती है? इसका जवाब हां में आता है तो फिर यह शिवपाल के लिए बेहतर हो जाएगा। मुलायम की अनुपस्थिति में वे खुद को पार्टी में उस स्तर पर स्थापित करने का प्रयास करेंगे। निचले स्तर के कार्यकर्ताओं से उनका कनेक्ट पहले से है। अखिलेश यादव की इस स्थिति में पार्टी में पकड़ कमजोर होगी। वे केवल चेहरा बने रहेंगे।

यूपी चुनाव 2022 के बाद जिस प्रकार से शिवपाल यादव को अखिलेश यादव ने किनारे किया। ऐसी ही संभावना जताई जा रही है कि मैनपुरी लोकसभा उप चुनाव के बाद भी उन्हें सपा में कोई बड़ी जिम्मेदारी नहीं मिल सकती है। समाजवादी पार्टी के वे अभी भी विधायक है। आगे भी बने रहेंगे। लेकिन, अखिलेश यादव उन्हें पार्टी में किसी 12 पद देकर खुद के सामने एक नया पावर सेंटर नहीं बनने देना चाहेंगे। इस स्थिति में भी शिवपाल यादव के सामने खुद को उपेक्षित और पीड़ित दिखाने का एक बड़ा मौका होगा। यादवलैंड की राजनीति इमोशन से चलती है।

शिवपाल उन लोगों के बीच जाकर कहेंगे कि हमने हमेशा मुलायम सिंह यादव के लिए काम किया। परिवार के लिए काम किया, लेकिन परिवार ने ही हमें उपेक्षित कर दिया। ऐसी स्थिति में वह बड़ा राजनीतक दांव खेल सकते हैं। मतलब, शिवपाल यादव मैनपुरी लोकसभा उपचुनाव की जगह अगले लोकसभा चुनाव की तैयारी में लगे हुए हैं। उनकी राजनीति तो कुछ यही कह रही है।

सपा में एंट्री न मिलने के बाद वे समाजवादी पार्टी में उपेक्षितों को एक प्लेटफार्म पर लाने की कोशिश करेंगे। खुद को ही असली समाजवादी पार्टी बनाने और बताने दोनों की कोशिश में जुट जाएंगे। यादवलैंड के इमोशन के जरिए वे अखिलेश यादव को अलग-थलग करने का भी प्रयास करेंगे। भले उन्हें बड़ी सफलता न मिल पाए, लेकिन वोट काटने में हुए कामयाब होंगे। इसका सीधा फायदा दूसरे दलों को मिल जाएगा।