किन किन राज्यों में बढ़ेगा आरक्षण?

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कुछ राज्यों में अब आरक्षण बढ़ सकता है! राज्यों में आरक्षण की सीमा बढ़ाने की जैसे होड़ मची हुई है। ताजा मामला छत्तीसगढ़ का है। मुख्यमंत्री भूपेश पटेल की कैबिनेट ने गुरुवार को दो विधेयकों के मसौदे को मंजूरी दी जिससे सूबे में आरक्षण की सीमा 76 प्रतिशत तक पहुंच जाएगी। 1 दिसंबर से विधानसभा का सत्र शुरू हो रहा है जिस दौरान इन विधेयकों को पेश किया जाएगा। पिछले महीने ही छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण को असंवैधानिक घोषित किया था। ईडब्लूएस आरक्षण के बाद पहले ही आरक्षण 50 प्रतिशत के सीमा को पार कर चुकी है। EWS आरक्षण के पहले से ही तमिलनाडु जैसे कुछ राज्यों में 50 प्रतिशत से ज्यादा रिजर्वेशन था। अब तो राज्यों के बीच होड़ सी मची है। इसी महीने झारखंड झारखंड विधानसभा ने भी आरक्षण को 77 प्रतिशत करने से जुड़ा बिल पास किया। पिछले महीने कर्नाटक ने आरक्षण बढ़ाया और उसके लिए संविधान की 9वीं अनुसूची वाला रास्ता अपनाया ताकि न्यायिक समीक्षा न हो सके। हरियाणा ने प्राइवेट सेक्टर में स्थानीय लोगों के लिए 75 प्रतिशत आरक्षण तय किया है। राजस्थान, महाराष्ट्र, बिहार, एमपी समेत कई राज्यों में आरक्षण बढ़ाने की मांग जोर पकड़ रही है। ओपन कैटिगरी सिकुड़ता जा रहा और आरक्षण वोट बैंक पॉलिटिक्स का शॉर्टकट औजार बन चुका है। संविधान में जहां सामाजिक गैरबराबरी दूर करने के लिए आरक्षण को सीमित समय लिए लागू करने की बात कही गई थी, वह अंतहीन सी होती गई। अब तो नया पैमाना आर्थिक आधार भी जुड़ गया है जिसमें आर्थिक रूप से कमजोर सिर्फ सवर्ण शामिल हैं।

छत्तीसगढ़ की बात करते हैं। 1 दिसंबर से राज्य विधानसभा का सत्र शुरू होने जा रहा है। इस दौरान कुल आरक्षण को 76 प्रतिशत तक बढ़ाने से जुड़ा विधेयक किया जाएगा। राज्य कैबिनेट ने गुरुवार को इससे जुड़े दो विधेयकों के मसौदे को मंजूर दे दी। सीएम भूपेश बघेल की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट मीटिंग में छत्तीसगढ़ लोक सेवा एससी/एसटी/ओबीसी (संशोधन) विधेयक 2022 और छत्तीसगढ़ एजुकेशनल इंस्टिट्यूशंस एडमिशन बिल- 2022 को मंजूरी दी गई। हाल ही में छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने 2012 के राज्य सरकार के उस ऑर्डर को असंवैधानिक ठहराया था जिसमें ओवरऑल कोटा को बढ़ाकर 58 प्रतिशत किया था। कोर्ट ने एसटी कोटा को 32 प्रतिशत से घटाकर 20 प्रतिशत कर दिया था। उसके बाद से ही राज्य में आदिवासी समुदाय के बीच जबरदस्त असंतोष था जिसे दूर करने के लिए भूपेश बघेल सरकार दो नए बिल लाने जा रही है। ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि राज्य की कांग्रेस सरकार एसटी कोटा को 20 प्रतिशत से बढ़ाकर 32 प्रतिशथ, एससी कोटा को 12 से बढ़ाकर 13 प्रतिशथ और ओबीसी कोटा को 14 प्रतिशत से बढ़ाकर 27 प्रतिशत और ईडब्लूएस आरक्षण को 4 प्रतिशत पर सीमित करने की तैयारी कर रही है।

इसी महीने झारखंड विधानसभा ने कुल आरक्षण को 60 प्रतिशत से बढ़ाते हुए 77 प्रतिशत करने से जुड़े विधेयक को सर्वसम्मति से मंजूरी दी। उसके मुताबिक, अब अनुसूचित जनजाति को 28 प्रतिशत आरक्षण मिलेगा जो पहले 26 प्रतिशत था। इसी तरह ओबीसी आरक्षण 14 प्रतिशत से बढ़ाकर 27 प्रतिशत और अनुसूचित जाति का आरक्षण 10 से बढ़ाकर 12 प्रतिशत करने का प्रावधान है। इस तरह सूबे में अब कुल आरक्षण 77 प्रतिशत पहुंच जाएगा। अभी यह लागू नहीं हुआ है लेकिन माना जा रहा है हेमंत सोरेन सरकार इसके लिए नौवीं अनुसूची वाला रास्ता अपनाएगी।

पिछले महीने कर्नाटक की बीजेपी सरकार ने भी शिक्षा और नौकरी में एससी/एसटी आरक्षण को बढ़ाने का फैसला किया। इससे जुड़े अध्यादेश को राज्यपाल की मंजूरी के बाद 1 नवंबर को राज्य के स्थापना दिवस पर लागू भी कर दिया गया है। कर्नाटक में पहले ओबीसी के लिए 32 प्रतिशत, एससी के लिए 15 प्रतिशत और एसटी के लिए 3 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था थी। अब एससी आरक्षण को 2 प्रतिशत बढ़ाकर 17 प्रतिशत और एसटी कोटा को 4 प्रतिशत बढ़ाकर 7 प्रतिशत कर दिया गया है। आरक्षण कानून की न्यायिक समीक्षा न हो सके, इसके लिए राज्य सरकार संविधान की नौवीं अनुसूची का सहारा लेगी।

इसी साल मार्च में हरियाणा विधानसभा ने प्राइवेट सेक्टर की नौकरियों में स्थानीय युवाओं के लिए 75 प्रतिशत आरक्षण से जुड़ा कानून हरियाणा स्टेट इम्प्लॉयमेंट ऑफ लोकल कैंडिडेट्स ऐक्ट 2020 पास किया। कानून के मुताबिक, राज्य में 30 हजार रुपये महीने तक वाली प्राइवेट नौकरियों में स्थानीय उम्मीदवारों को 75 प्रतिशत रोजगार दिया जाएगा। यह 10 से ज्यादा कर्मचारी वालीं सभी कंपनियों, सोसाइटी, ट्रस्ट वगैरह पर लागू होगा। इस कानून को 10 साल के लिए लागू किया जाना है।

इनके अलावा अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग जातियां आरक्षण को लेकर उग्र आंदोलन करती रही हैं। मसलन हरियाणा में जाट आरक्षण आंदोलन, गुजरात का पाटीदार आरक्षण आंदोलन, राजस्थान में गुर्जर आरक्षण आंदोलन, महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण आंदोलन। राज्य सरकारों ने कई बार आरक्षण के लिए कानून भी बनाया लेकिन वे अदालत में टिक नहीं सके। सुप्रीम कोर्ट ने इसी महीने ईडब्लूएस आरक्षण को वैध ठहराया। सुप्रीम कोर्ट का वो फैसला इसलिए भी ऐतिहासिक है क्योंकि इसने इंदिरा साहनी केस में तय की गई आरक्षण की अधिकतम 50 प्रतिशत सीमा का बैरियर भी तोड़ दिया है। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 3-2 के बहुमत से दिए अपने फैसले में आरक्षण पर एक नई लकीर खींच दी है। एक तो ये कि 50 प्रतिशत आरक्षण की अधिकतम सीमा ऐसी नहीं है जिसका उल्लंघन न हो सके। दूसरा ये कि पहली बार सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण के लिए सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ेपन से इतर आर्थिक पिछड़ेपन के रूप में किसी अन्य पैमाने को मान्यता दी। इस फैसले के बाद से ही आशंका जताई जा रही थी कि अब चूंकि 50 प्रतिशत आरक्षण का बैरियर टूट गया है, इसलिए राज्यों में अपने-अपने यहां आरक्षण बढ़ाने की होड़ सी मच जाएगी। अब वह आशंका सच होती दिख रही है। आरजेडी, एसपी समेत कई क्षेत्रीय दल लंबे समय से जातिगत जनगणना की मांग करते आए हैं ताकि आबादी के अनुपात में आरक्षण को फिर से तय किया जा सके।

संविधान में आरक्षण का प्रावधान सीमित समय के लिए किया गया था। लेकिन हर 10 साल पर आरक्षण को अगले 10 साल तक के लिए और बढ़ाने का रिवाज चलता आ रहा है। क्या आरक्षण मूल अधिकार है? नहीं। 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण को लेकर बहुत अहम टिप्पणी की थी। कोर्ट ने कहा कि आरक्षण मूल अधिकार नहीं है। दरअसल, तमिलनाडु के तमाम राजनीतिक दलों ने सुप्रीम कोर्ट से राज्य में मेडकल और डेंटल कोर्स के ऑल इंडिया कोटे में ओबीसी के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण लागू करने के लिए केंद्र को निर्देश देने की मांग की थी। उसी पर सुनवाई करते वक्त जस्टिस एल. नागेश्वर राव की अगुआई वाली बेंच ने कहा कि आरक्षण का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है। उसके बाद राजनीतिक दलों ने अपनी याचिका वापस ले ली थी। इससे पहले उसी साल फरवरी 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि प्रमोशन में आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं हो सकता।

सुप्रीम कोर्ट ने ‘इंदिरा साहनी और अन्य बनाम भारत सरकार, 1992’ केस में ऐतिहासिक फैसला दिया था। 9 जजों की संविधान पीठ ने 6-3 के बहुमत से जाति-आधारित आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत तय की। दरअसल, साल 1991 में केंद्र की तत्कालीन पीवी नरसिम्हा राव सरकार ने आर्थिक आधार पर सामान्य श्रेणी के लिए 10 फीसदी आरक्षण देने का आदेश जारी किया था, जिसे इंदिरा साहनी ने कोर्ट में चुनौती दी थी। इसी फैसले की काट के लिए 1993 में तमिलनाडु सरकार ने नौवीं अनुसूची का सहारा लेकर नौकरी और शैक्षिक संस्थानों में दाखिले में अधिकतम आरक्षण को 69 प्रतिशत कर दिया। इसमें 18 प्रतिशत एससी, 1 प्रतिशत एसटी, 20 प्रतिशत ‘मोस्ट बैकवर्ड कास्ट्स’ (MBC) और अन्य पिछड़ी जातियों (OBC) के लिए 30 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है। सूबे में ओबीसी कोटे के अंदर ही अल्पसंख्यक समुदाय के लिए आरक्षण की व्यवस्था है। इसमें मुस्लिमों के लिए 3.5 प्रतिशत आरक्षण भी शामिल है। मई 2021 में भी मराठा आरक्षण मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी फैसले को दोहराया था। कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार के मराठा आरक्षण के फैसले को इंदिरा साहनी जजमेंट के खिलाफ बताते हुए असंवैधानिक करार दिया था।