बिहार में इस बार सवर्ण वोटरों की मारामारी देखने को मिली! जातीय जकड़न से गुजर रहा बिहार इन दिनों नए जातीय समीकरण की दिशा में आगे बढ़ रहा है। राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद ने 90 के दशक में पिछड़ी राजनीति को आवाज देते मुस्लिम-यादव समीकरण को धार दी। देश भर में अतिपिछड़ों की राजनीति को धार देने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कोई जवाब नहीं। अगर बिहार की बात करें तो नीतीश कुमार ने यादव माइनस अन्य पिछड़े की राजनीति के साथ-साथ एक हद तक दलित मतों को साधने की कोशिश की। इस खास समय में सवर्ण वोट प्राथमिकता के आधार पर नहीं रहे। हां, कांग्रेस के समय में सवर्ण और दलित वोटों की प्राथमिकता थी। लेकिन बिहार की सियासत में एक बार फिर सवर्ण को अपनी और आकर्षित करने का खेल चल रहा है। लगभग सभी प्रमुख दल प्राथमिकता के साथ इसे स्वीकारने लगे हैं।
राजद प्रमुख लालू प्रसाद के समय राष्ट्रीय जनता दल जिसे एमवाई समीकरण की पार्टी मानी जाती रही थी, वो तेजस्वी यादव के समय ए-टू-जेड पार्टी हो गई। इतना ही नहीं जब पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष पर किसी को बिठाने की बात आई तो जगदानंद सिंह को सामने लाया गया। उन्होंने जब इनकार कर दिया, यहां तक कि पार्टी कार्यालय से उन्होंने दूरी बना ली। तब भी राजद नेतृत्व ने प्रदेश की कमान जगदानंद सिंह को ही सौंपा। जबकि पार्टी नेतृत्व के भीतर एम-वाई समीकरण को पुष्ट करने के लिए अब्दुल बारी सिद्दीकी का नाम लगभग स्वीकृत स्थिति के पास था। लेकिन फैसला जगदानंद सिंह के साथ रहा। इस बीच दलित राजनीति को साधने के लिए शिवचंद्र राम के नाम पर भी पार्टी के भीतर रायशुमारी भी की गई। मगर अंतिम स्वीकृति जगदानंद सिंह के नाम पर ही मिली।
जनता दल यूनाइटेड भी इस खेल में शामिल हो चली। गत वर्ष राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह को जदयू ने राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया था। इस बार चर्चा थी कि राष्ट्रीय अध्यक्ष किसी अन्य जाति से बनाया जाएगा। इस पद पर बदलाव के संकेत मिल रहे थे और उपेंद्र कुशवाहा का नाम भी चल रहा था। लेकिन एक बार फिर ललन सिंह पर ही पार्टी ने आस्था व्यक्त की। इसे लेकर जदयू के कुशवाहा वोटरों में नाराजगी भी दिखी। उपेंद्र कुशवाहा भी अलग थलग पड़ गए।
अन्य दलों की चाल को समझते कांग्रेस ने भी इस बार प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश सिंह को बनाया। यहां भी अध्यक्ष पद को लेकर कई नाम चल रहे थे। सवर्ण की स्वीकार्यता तो कांग्रेस में लगातार बनी हुई थी।दरअसल, इन दिनों भाजपा के भीतर सवर्ण विशेषकर भूमिहार जाति के वोटरों में नाराजगी देखी गई है। इनके वोटरों का बिखराव भी देखा गया।जनता दल यूनाइटेड भी इस खेल में शामिल हो चली। गत वर्ष राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह को जदयू ने राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया था। इस बार चर्चा थी कि राष्ट्रीय अध्यक्ष किसी अन्य जाति से बनाया जाएगा। इस पद पर बदलाव के संकेत मिल रहे थे और उपेंद्र कुशवाहा का नाम भी चल रहा था। लेकिन एक बार फिर ललन सिंह पर ही पार्टी ने आस्था व्यक्त की। इसे लेकर जदयू के कुशवाहा वोटरों में नाराजगी भी दिखी। उपेंद्र कुशवाहा भी अलग थलग पड़ गए। हाल ही में मोकामा विधानसभा चुनाव में भूमिहारों का वोट बंटता दिखा। कुढ़नी में भी भूमिहार का वोट बंटा। लिहाजन अब इस वोट को अपने दल की तरफ मोड़ने का प्रयास चल निकला है।
भाजपा के इस आधार वोट का खिसकना भाजपा के लिए किसी चुनौती से कम नहीं।लेकिन इस बार भूमिहार जाति से आने वाले अखिलेश सिंह को लाया गया।जनता दल यूनाइटेड भी इस खेल में शामिल हो चली। गत वर्ष राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह को जदयू ने राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया था। इस बार चर्चा थी कि राष्ट्रीय अध्यक्ष किसी अन्य जाति से बनाया जाएगा। इस पद पर बदलाव के संकेत मिल रहे थे और उपेंद्र कुशवाहा का नाम भी चल रहा था। लेकिन एक बार फिर ललन सिंह पर ही पार्टी ने आस्था व्यक्त की। इसे लेकर जदयू के कुशवाहा वोटरों में नाराजगी भी दिखी। उपेंद्र कुशवाहा भी अलग थलग पड़ गए। इनके बनाए जाने के बाद महागंठबंधन के प्रमुख दलों की बागडोर सवर्ण के हाथों में चली गई।दरअसल, इन दिनों भाजपा के भीतर सवर्ण विशेषकर भूमिहार जाति के वोटरों में नाराजगी देखी गई है। इनके वोटरों का बिखराव भी देखा गया। हाल ही में मोकामा विधानसभा चुनाव में भूमिहारों का वोट बंटता दिखा। कुढ़नी में भी भूमिहार का वोट बंटा। लिहाजन अब इस वोट को अपने दल की तरफ मोड़ने का प्रयास चल निकला है। भाजपा के इस आधार वोट का खिसकना भाजपा के लिए किसी चुनौती से कम नहीं।