हाल ही में कई खबर ऐसी आई, जिसमें खाकी वर्दी से इस्तीफा देकर खादी वर्दी से रिश्ता जोड़ लिया गया! पिछले साल एक फरवरी को अचानक एक चौंकाने वाली खबर आती है। इनफोर्समेंट डायरेक्टरेट (ईडी) के जॉइंट डायरेक्टर राजेश्वर सिंह भारतीय जनता पार्टी जॉइन करने वाले हैं। तब तक उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान हो चुका था। वीआरएस मंजूर होने के दिन ही तय हो गया कि राजेश्वर सिंह लखनऊ के सरोजनीनगर विधानसभा चुनाव से बेजीपी कैंडिडेट होंगे। यही हुआ भी। उन्होंने चुनाव जीत लिया और आज वो विधानसभा में भाजपा के सदस्य हैं। उनकी पत्नी लक्ष्मी सिंह हाल ही में नोएडा की पुलिस कमिश्नर बनाई गई हैं। ये बताते हुए स्पष्ट कर दूं कि इन दो बातों का कोई कनेक्शन नहीं है। ये भी स्पष्ट कर दूं कि राजेश्वर सिंह ने ईडी में रहते हुए कॉमनवेल्थ गेम्स, टू जी स्पेक्ट्रम घोटाला, सहारा-सेबी केस, एयरसेल-मैक्सिस डील जैसे मामलों की जांच की जिस पर कितना सियासी तूफान पैदा हुआ हम सबको पता है। इनमें कुछ जांचों में कौन निशाने पर था, वो किस पार्टी से था, किस पॉलिटिकल पार्टी को इससे फायदा पहुंचा, ये सब भी पब्लिक डोमेन में है। लेकिन चर्चा सिर्फ राजेश्वर सिंह की नहीं हो रही। मुझे अजीब लगा जब आज यानी दो जनवरी को राजेश्वर जैसी एक और खबर आती है। प्रयागराज में आईजी रहे कविंद्र प्रताप सिंह विश्व हिंदू परिषद (विहिप) में शामिल हो गए हैं। उन्हें काशी प्रांत का अध्यक्ष भी बना दिया गया है। सोनभद्र के रहने वाले केपी सिंह महज तीन महीने पहले रिटायर हुए हैं। माना जाता है कि कुंभ मेला प्रबंधन से योगी बहुत खुश थे। उन्हें इसके लिए सम्मानित भी किया गया था। राजेश्वर सिंह यूपीपीसीएस से पुलिस अधिकारी बने तो केपी सिंह आईपीएस हैं। एक, दो नहीं आपको ऐसे कई मामले देखने को मिलेंगे जब सत्ता के करीब रहे आईएएस-आईपीएस अफसर ने किसी खास राजनीतिक पार्टी को जॉइन कर लिया और कुछ घंटों में खाकी से कुर्ता-पायजामे पर आ गए। राजेश्वर सिंह के साथ ही कानपुर के पुलिस कमिश्नर रहे असीम अरुण भी भाजपा से विधायक बन चुके हैं।
बिहार के डीजीपी रहे गुप्तेश्वर पांडे ने तो अपने करियर में दो बार वीआरएस लिया। आखिरी बार रिटायरमेंट से ठीक पहले 2020 में। जब उन्हें किसी पार्टी ने कैंडिडेट नहीं बनाया। और, पहली बार इससे 11 साल पहले 2009 में। तब लोकसभा चुनाव होना था। उनकी नजर बक्सर लोकसभा सीट पर थी। वो बीजेपी से टिकट चाहते थे। लेकिन भाजपा ने लालमुनि चौबे पर भरोसा जताया। टिकट कटने के बाद राज्य सरकार उनकी वीआरएस याचिका स्वीकार नहीं करती है और वो वापस पुलिस सेवा में बहाल हो जाते हैं। अब जरा सोचिए। बीजेपी से टिकट की चाह रखने वाला अफसर अगले दस साल तक उस निष्पक्षता के धर्म को कैसे निभाएगा जिसकी कसम ट्रेनिंग के दौरान दिलाई जाती है। नीतीश कुमार कैबिनेट में मंत्री सुनील कुमार भी आईपीएस रहे हैं। ये रिटायरमेंट के 29 दिन बार ही नीतीश की पार्टी जेडीयू में आ गए थे।
अब कुछ आईपीएस और आईएस की लिस्ट देख लें जिन्हें राजनीति से प्यार हो गया। ये प्यार नौकरी करते जगा होगा, इसमें कोई शक है क्या। प्यार परवान चढ़ता है तब आप नौकरी छोड़ते हैं। परवान से मतलब है जब गोटी सेट हो जाए। सेट होने की प्रक्रिया में आप किसी जिम्मेदार पद पर होते हैं। लिहाजा, संविधान का पालन करते होंगे या किसी नेता के ऑर्डर का, ये बताना मुश्किल नहीं है।
के अन्नामलाई – 2011 बैच के आईपीएस अफसर को नौ साल ही नौकरी रास आई। 2020 में बीजेपी जॉइन किया और पार्टी ने उन्हें तमिलनाडु का अध्यक्ष भी बना दिया है।
आर नटराज – ये जनाब एआईएडीएमके के नेता हैं।
सत्यपाल सिंह – महाराष्ट्र कैडर के आईपीएस अफसर रहे। मुंबई के पुलिस कमिश्नर बने। अभी यूपी में बागपत से भाजपा सांसद हैं।
निखिल कुमार – बिहार के रहने वाले निखिल कुमार पूर्व सीएम सत्येंद्र नारायण सिन्हा के बेटे हैं। कांग्रेस से ही जुड़े रहे। राज्यपाल भी रहे। कुछ आईएएस अपने करियर में सफल राजनेता भी रहे। अजीत जोगी छत्तीसगढ़ के सीएम बने। वो राजीव गांधी के बेहद करीबी थे। मणिशंकर अय्यर, यशवंत सिन्हा, मीरा कुमार, नटवर सिंह जैसे नेताओं ने केंद्रीय कैबिनेट में अहम जिम्मेदारियां निभाईं। लेकिन पिछले दो दशकों में गति तेज हो गई है। वीआरएस ले-लेकर अफसर नेता बनने निकल पड़े हैं। ये प्रोसेस इलेक्शन से पहेल और तेज हो जाता है। जैसे, 2019 चुनाव से पहले 1994 बैच की आईएस अफसर अपराजिता सारंगी भाजपा में शामिल हो गईं। चुनाव से ही पहले रायपुर के जिला कलेक्टर ओपी चौधरी इस्तीफा देते हैं और बीजेपी जॉइन कर टिकट पा जाते हैं। ये बात और है कि चौधरी की तेज चाल उलटी पड़ गई क्योंकि वो चुनाव हार गए।
हर राज्य का यही हाल है। मैं इसके लिए किसी खास पार्टी को जिम्मेदार नहीं मानता। लेकिन ऑल इंडिया सर्विसेज के अधिकारी अगर नौकरी के बीच राजनीति के दंगल में रुचि लेने लगे तो स्टील फ्रेम भी फ्रैक्चर होगा और कानून-व्यवस्था भी गर्त में जाएगी। राजस्थान का एक उदाहरण तो हैरान करने वाला है। क्राइम ब्रांच के एसपी मदन मेघवाल 2018 के चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर खजुवाला से चुनाव लड़ना चाहते थे। उन्होंने टिकट रिलीज से एक दिन पहले वीआरएस का आवेदन दिया। टिकट लिस्ट में नाम नहीं आया तो अगले ही दिन वीआरएस वापस लेने की अर्जी दे दी। बताइए, ऐसा अफसर क्या अपनी कुर्सी के साथ न्याय कर सकता है?
चीफ इलेक्शन कमिश्नर रह चुके वीएस संपत ने इस ट्रेंड पर जबर्दस्त नाराजगी जताई थी। सर्विस छोड़ कर तुरंत राजनीतिक दल जॉइन करने को उन्होंने अनैतिक करार दिया। ये स्थिति विचित्र है। शायद रूल बनाने वालों ने भी नहीं सोचा होगा। नौकरशाह रिटायरमेंट या वीआरएस के तुरंत बाद कोई कॉरपोरेट जॉब नहीं कर सकते। इसके लिए कनफ्लिक्ट ऑफ इंट्रेस्ट का क्लॉज है। फिर राजनीतिक दल जॉइन करने से तो ज्यादा बड़ा कनफ्लिक्ट ऑफ इंट्रेस्ट पैदा हो सकता है, इस पर कोई पार्टी नहीं सोच रही है। 2012 में चुनाव आयोग ने सरकार से एक सिफारिश की थी। रिटायरमेंट लेने वाले या वीआरएस लेने वाले आईएएस-आईपीएस अफसर कम से कम दो साल तक चुनावी राजनीति से दूर रहें। लेकिन सरकार ने इसे नहीं माना। जबकि ऑल इंडिया सर्विसेज रूल के मुताबिक किसी अफसर का कोई रिश्तेदार अगर चुनाव लड़ता है तो वो उसके लिए प्रचार भी नहीं कर सकता।