पिछले 6 साल से लगता है कि महबूबा मुफ्ती की राजनीति समाप्त हो चुकी है! जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री, देश के पूर्व गृहमंत्री और पीपल्स डेमॉक्रेटिक पार्टी के संस्थापक मुफ्ती मोहम्मद सईद का इंतकाल हुए शनिवार को 6 साल पूरे हो गए। कभी श्रीनगर की गुपकार रोड से दिल्ली के राजपथ तक जो मुफ्ती मोहम्मद सईद अपनी राजनीति का लोहा मनवाया करते थे। आज कश्मीर उनकी पार्टी पीडीपी की कमान उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती के हाथ में है। महबूबा मुफ्ती फिलहाल पीडीपी की अध्यक्ष हैं, लेकिन जम्मू-कश्मीर की सियासत को जानने वाले तमाम लोग ये मानते हैं कि कश्मीर की आवाम के बीच महबूबा मुफ्ती पर भरोसा कम हुआ है। साथ ही महबूबा अब ऐसी स्थितियों में नहीं दिखतीं कि वह खुद राज्य की सरपरस्त बन सकें या किसी को बनवा सकें। तारीख से 6 बरस पहले यानि 7 जनवरी 2016 को दिल्ली के ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज में अंतिम सांस लेने वाले मुफ्ती मोहम्मद सईद, जिस रोज़ दुनिया से विदा हुए उस रोज़ तक उनका ओहदा जम्मू-कश्मीर के वज़ीर-ए-आला का था। मुफ्ती मोहम्मद सईद के इंतकाल के बाद जम्मू-कश्मीर की कमान उनकी बेटी महबूबा को मिली। लेकिन मुफ्ती मोहम्मद के जाने के 6 बरस बात उनकी पीडीपी कहां पहुंच गई, वो साफ दिखने लगा है। मुफ्ती मोहम्मद सईद के जमाने में पीडीपी के पावरफुल चेहरे रहे तमाम नेता पार्टी छोड़ चुके हैं। महबूबा का बनाया गुपकार गठबंधन का एजेंडा ध्वस्त हो गया है। कश्मीर में 370 की बहाली और अस्मिता के कथित एजेंडे को जाहिर कर रही पीडीपी को कश्मीर की आवाम ही राजनीतिक तौर पर अप्रासंगिक करने लगी है।
महबूबा मुफ्ती अपने पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद की उदारवादी राजनीति को संभाल नहीं पाईं ये बात सही है। मुफ्ती मोहम्मद सईद की विरासत पर सरकार बनाने वाली महबूबा मुफ्ती की सरकार खुद बीजेपी ने ही गिराई है। ऐसे में हाल की दिल्ली से महबूबा मुफ्ती दूर हुई हैं ऐसा दिखता है। लेकिन ये बात भी समझनी होगी कि महबूबा मुफ्ती कश्मीर कश्मीर में कट्टरपंथ वाली राजनीति में फिट दिखती हैं। महबूबा मुफ्ती के बयानों ने उन्हें एक तरीके से देश विरोधी या कट्टरपंथी रूप में लाकर खड़ा कर दिया है। कश्मीर में उस धड़े को महबूबा में अपना नेता दिखता है, जो 370 के अंत से खुश नहीं हैं। लेकिन ये धड़ा सरकार बनाने को काफी नहीं होगा। वहीं फारुक अब्दुल्ला दोनों धड़ों में हैं। वो पक्के हिंदुस्तानी भी हैं और कश्मीरियों के अपने भी। ऐसे में जम्मू-कश्मीर में बीजेपी या कांग्रेस दोनों संग सरकार बनाना फारुक के लिए सहज है। महबूबा के लिए ये विकल्प सिर्फ कांग्रेस तक सीमित है।
महबूबा मुफ्ती को कश्मीर में बिल्कुल अप्रासंगिक नहीं कहा जा सकता। ये बात जरूर है कि उनके जनाधार और राजनीतिक विकल्पों में कटौती हो गई है। फिलहाल महबूबा के पास दिल्ली में कोई सांसद नहीं है। राज्य में विधानसभा भी नहीं है और ना ही महबूबा ऐसे तस्वीरों में हैं कि वो दिल्ली में किसी राष्ट्रीय दल के करीबी चेहरों में हों। लेकिन महबूबा के बराबर खड़ी नैशनल कॉन्फ्रेंस फिलहाल मजबूत हालत में है। श्रीनगर की लोकसभा सीट समेत नैशनल कॉन्फ्रेंस का कश्मीर की 3 सीटों पर कब्जा है। कश्मीर में 370 के अंत के बाद हुए डीडीसी चुनाव में भी नैशनल कॉन्फ्रेंस ने 67 सीटें जीती हैं। ऐसे में कश्मीर के दो सबसे बड़े दलों में फारुक अब्दुल्ला की पार्टी महबूबा से ज्यादा मजबूत हैं। लेकिन फिर भी महबूबा प्रासंगिक नहीं है, ये नहीं कहा जा सकता। राजौरी में हाल में हुई आतंकी घटनाओं से उपजा असंतोष और कश्मीर में लंबे वक्त से चुनाव ना हो पाने से पैदा हुई स्थितियां दोनों की स्थितियों में महबूबा मुफ्ती जैसे नेताओं की प्रासंगिकता लोगों के लिए दिखती है।
जम्मू-कश्मीर में पिछला चुनाव 2015 में हुआ था। इस वक्त महबूबा मुफ्ती की पार्टी के सबसे पावरफुल चेहरे रहे हसीब द्राबू, अल्ताफ बुखारी और मुजफ्फर हुसैन बेग जैसे नेता उनकी पार्टी छोड़ चुके हैं। हसीब द्राबू उन चेहरों में से थे, जिन्हें पीडीपी और बीजेपी के बीच समन्वय की कड़ी कहा जाता था। अल्ताफ बुखारी की पहचान भी वही थी। महबूबा मुफ्ती ने तमाम मंत्रियों के विभाग लेकर इन दोनों मंत्रियों को सौंपे थे, लेकिन अल्ताफ बुखारी वो चेहरा बने जिसने महबूबा से सबसे पहले बगावत की। अल्ताफ फिलहाल जम्मू-कश्मीर अपनी पार्टी बना चुके हैं। उनपर दिल्ली के करीबी होने की तोहमत लगती है।
ये समझना होगा कि जम्मू-कश्मीर में अगर इस साल चुनाव होते हैं तो महबूबा के अपनों में कौन-कौन होगा? चुनाव सालों बाद होने जा रहे, इसलिए बीजेपी, कांग्रेस और नैशनल कॉन्फ्रेंस तीनों अपनी ताकत झोकेंगे। लेकिन जो महबूबा मुफ्ती 2015 में अपने तमाम सिपहसालारों के साथ सरकार में आई थीं, उनके अपनों के बागी होने पर अब साथ कौन-कौन है ये देखना होगा। ये जानना होगा कि महबूबा चुनी हुई नहीं, बल्कि पिता की मौत के बाद नामित मुख्यमंत्री बनी थीं। ऐसे में अपने खासों के ना होने पर वो चुनाव में जनाधार कैसे जुटाएंगी, ये उनके लिए चुनौती जैसा होगा।