आज हम आप को फांसी की सजा पाने वाले पहले सांसद की कहानी सुनाने जा रहे हैं! बिहार में एक दौर था जब राजनीति में आने की सबसे बड़ी सीढ़ी होती थी क्राइम। अस्सी के दशक में यूपी और बिहार से कई ऐसा नेता निकले जिन्होंने अपनी दंबगई के दम पर ही राजनीति की पहली सीढ़ी चढ़ी और फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। सहरसा के डॉन कहे जाने वाले आनंद मोहन भी एक ऐसे ही नेता थे। अस्सी के दशक में बिहार में क्राइम के हर किस्से में आनंद मोहन का नाम मिल जाता था। मार-पीट हो या फिर हत्या हर तरफ के मुकदमे इस नेता की दबंगई के कहानी को बया करते हैं। इस बाहुबली की गुंदागर्दी का इसी बात से अंदाजा लगा लीजिए कि ये देश के पहले ऐसे नेता बन गए जिन्हें कोर्ट ने मौत की सजा सुनाई। आनंद मोहन का जन्म 26 जनवरी 1956 को बिहार के सहरसा जिले के नवगछिया गांव में हुआ। उनके दादा राम बहादुर सिंह स्वतंत्रता सेनानी थे और इसलिए पूरे परिवार की इलाके में काफी इज्जत थी, लेकिन आनंद मोहन का रुख तो किसी और ही तरफ था। उस दौर में जेपी मूवमेंट की तरफ हर छात्र का जुड़ाव था और आनंद मोहन भी इससे अछुते नहीं थे। कहते है वो इमरजेंसी के दौरान दो साल तक जेल में भी रहे। इसी मूवमेंट के कारण उन्होंने अपना कॉलेज तक छोड़ दिया था।
आनंद मोहन राजपूत समाज से थे और अस्सी के दशक में ही सहरसा में उनकी दबंगई शुरू हो चुकी थी। उनके ऊपर कई मुकदमे दर्ज हो चुके थे। कोसी इलाके में वो एक बड़े राजपूत दबंग के रूप पहचाने जाने लगे थे।1983 में पहली बार तीन महीने के लिए वो जेल गए, लेकिन कहते हैं उस दौर में बिहार के जिस शख्स पर जितने मुकदमे वो उतना ही बड़ा नेता। 1990 में पहली बार जनता दल के टिकट पर उन्होंने सहरसा विधानसभा सीट पर चुनाव लड़ा और जीत भी दर्ज की। हालांकि वो लंबे समय तक जनता दल से नहीं जुड़े रहे। ये वो समय था जब देश में मंडल आयोग लागू हुआ था। इसके तहत सरकारी नौकरियों में ओबीसी को 27% का आरक्षण देने की बात थी। जनता दल इसे सपोर्ट कर रहा था जबकि आनंद मोहन इसके कट्टर विरोधी थे। 1993 में आनंद मोहन ने ‘बिहार पीपल्स पार्टी’ यानी बीपीपी बनाई और बाद में समता पार्टी के साथ मिल गए।
इसी दौर में बिहार के दूसरे बाहुबली पप्पू यादव भी अपना राजनैतिक जीवन शुरू कर रहे थे। आनंद मोहन की तरह ही वो भी सीमांचल और कोसी के 7 जिलों समेत पूरे बिहार में सियासी पैर जमाने में लगे थे। आनंद मोहन की सवर्ण जातियों में पूछ बढ़ रही थी, जबकि पप्पू यादव पिछड़ों और यादवों के नेता के रूप में उभर रहे थे। इन दोनों की सियासी लड़ाई अक्सर सामने आती। दोनों गुटों में मारपीट, लड़ाई झगड़े खून खराबा आम बात थी। कोसी क्षेत्र में वर्चस्व को लेकर दोनों के बीच कई बार मुठभेड़ भी हुई और कितने लोगों की जानें गईं। दोनों ने एक दूसरे की जान लेने की भी कई बार कोशिश की थी।
आनंद मोहन का सियासी सफर तेजी से आगे बढ़ रहा था, लेकिन 1994 का साल उनके राजनीतिक करियर के लिए बेहद घातक साबित हुआ। आनंद मोहन पर मुज्जफपुर के डीएम जी कृष्णैया की हत्या के आरोप लगे। 2007 में निचली अदालत ने उन्हें मौत की सजा सुनाई। हालांकि बाद में पटना हाईकोर्ट ने दिसंबर 2008 में मौत की सजा को उम्रकैद में तब्दील किया। आनंद मोहन सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उम्र कैद की सजा को बरकरार रखा। तब से आनंद मोहन जेल में ही बंद हैं। हालांकि जेल के अंदर से भी बिहार के इस बाहुबली रुतबा वैसा ही कायम रहा। 1996 में जेल से ही समता पार्टी के टिकट पर आनंद मोहन ने लोकसभा चुनाव लड़ा और जीत हासिल की।
आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद भी लोकसभा सांसद रह चुकी हैं। 1994 में लवली आनंद ने वैशाली लोकसभा का बाइलेक्शन जीतकर राजनीति में कदम रखा था। आनंद मोहन और लवली आनंद की शादी 1991 में हुई थी। जेल में रहते हुए भी वे साल 2010 में वे अपनी पत्नी लवली को कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा चुनाव और 2014 में लोकसभा का टिकट दिलवाने में कामयाब रहे थे। 2020 में लवली आनंद ने आरजेडी का दामन थाम लिया।
आनंद मोहन जब पैरोल पर बाहर आए तो बिल्ली की चर्चा ने भी हर किसी की ध्यान अपनी तरफ खींचा। दरअसल बिहार के बाहुबली आनंद मोहन खुद को एनिमल लवर यानी पशु प्रेमी बताते हैं। जेल में वो अपने साथ एक बिल्ली को भी रखते हैं। जब उन्हें पैरोल मिली तो वो जेल से बिल्ली को भी अपने साथ शादी में लेकर आए।