बिहार में जातिगत जनगणना की जा रही है! अंततः राजनीति का दबाव झेलते राज्य में जातीय जनगणना शुरू हो गई है। वर्षों से राजनीति करने वाले नेता इस जातीय जनगणना का प्रभाव भी जानते हैं। पिछड़ों की राजनीति के नायक तात्कालिक लाभ के लिए जनगणना करा तो रहे हैं लेकिन सच ये भी है कि जातीय स्वरूप का जो नया जिन्न निकलेगा, वो वर्तमान में पिछड़ों की सत्ता की मलाई खाने वाले सबसे ज्यादा प्रभावित होने जा रहे हैं। ऐसा इसलिए कि जातीय जनगणना के बाद हिस्सेदारी के एक नए वर्ग का उदय होगा। जिसकी हिस्सेदारी के विरुद्ध पिछड़ों की कुछ जातियां सत्ता का स्वाद चख रही हैं। पिछड़ों की वर्तमान राजनीति पर यादव, कुर्मी, कोयरी और वैश्य सबसे ज्यादा हावी है। वैश्य में तो देखे मारवाड़ी के नाम पर अशोक खेमका, संजय सरावगी, सुशील मोदी जैसे लोगों की जातीय हिस्सेदारी कितनी है? दशमलव में आएगा। जातीय जनगणना के बाद इनसे संख्या में ज्यादा तेली, सूड़ी और कलवार की हिस्सेदारी बढ़ेगी। भाजपा ने इसी रास्ते पर चल कर संजय जायसवाल, तार किशोर प्रसाद को आगे इसलिए किया कि ये कलवार जाति से आते हैं। इन्होंने सुशील मोदी को पीछे रखा। वजह उनकी जातीय संख्या काफी कम है।
नीतीश कुमार की जाति कुर्मी है। 1931 की जनगणना के अनुसार कुर्मी की जनसंख्या 4 प्रतिशत के आसपास थी। झारखंड के बंटवारे के बाद इनकी जातीय जनसंख्या डेढ़ से दो प्रतिशत बची होगी। ऐसा इसलिए भी कि आदिवासी के बाद झारखंड में दूसरी सबसे बड़ी जाति कुर्मी है। आगे आने वाले समय में जब राजनीत की धारा काफी नीचे तक जाएगी तो हिस्सेदारी के सवाल पर लालू प्रसाद या तेजस्वी यादव 11-14 प्रतिशत की राजनीति कर जाएंगे, मगर नीतीश कुमार की जाति 1.5 और 2 प्रतिशत पर कितनी हिस्सेदारी मांगेंगी?
जातीय जनगणना का जो नया स्वरूप जाति के भीतर से फूटेगा वो हिस्सेदारी का एक नया दबाव लेकर आएगा। कुर्मी जाति को ही लें तो अवधिया, घमेला, कोचेसा आदि आदि। वैश्य के भीतर में भी विभाजन होगा। मसलन मारवाड़ी, चौरसिया, तेली, सूड़ी, कलवार आदि आदि। वैश्य के नाम पर जो सत्ता का सुख मारवाड़ी भोग रहे हैं, उनके खिलाफ भी कई जातियां सक्रिय राजनीति का दबाव बनाएंगी। राज्य में पिछड़ों के भीतर एक नया पिछड़ी जातियां उभर कर आएंगी। जो सत्ता की हिस्सेदारी का नया खेल खेलेंगी। जाहिर है ये दबाव झेलने में एक दशक लग जाए लेकिन तात्कालिक लाभ की छतरी में जनगणना का मूल्यांकन किया जा रहा है।
राज्य के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने शुक्रवार को कहा कि योजनाओं का लाभ जनगणना के बाद देखने को मिलेगा। बजट का प्रावधान किया जाएगा। सवाल ये है कि राज्य में शिक्षा, स्वस्थ या सड़क या परिवहन की सुविधाएं जाति आधार पर थोड़े ही दी जा रही है, जो किसी खास वर्ग को प्रभावित करेगा।कुर्मी जाति को ही लें तो अवधिया, घमेला, कोचेसा आदि आदि। वैश्य के भीतर में भी विभाजन होगा। मसलन मारवाड़ी, चौरसिया, तेली, सूड़ी, कलवार आदि आदि। वैश्य के नाम पर जो सत्ता का सुख मारवाड़ी भोग रहे हैं, उनके खिलाफ भी कई जातियां सक्रिय राजनीति का दबाव बनाएंगी। राज्य में पिछड़ों के भीतर एक नया पिछड़ी जातियां उभर कर आएंगी। जो सत्ता की हिस्सेदारी का नया खेल खेलेंगी। जाहिर है ये दबाव झेलने में एक दशक लग जाए लेकिन तात्कालिक लाभ की छतरी में जनगणना का मूल्यांकन किया जा रहा है। जनगणना में आर्थिक जनगणना भी शामिल हैं तो सवर्णों के बीच भी जो गरीब हैं, उन्हें भी आर्थिक आधार वाली योजनाओं का लाभ मिलेगा। इतना जरूर होगा कि पिछड़ी जातियों का वो समूह जो सत्ता की जुबां नहीं बन सकी, उनके मुखर होने का एक रास्ता जरूर निकलेगा।
जनगणना से अगर कुछ फर्क पड़ेगा तो वो है आरक्षण। जनसंख्या के आधार पर आरक्षण की सूरत बदल सकती है।कुर्मी जाति को ही लें तो अवधिया, घमेला, कोचेसा आदि आदि। वैश्य के भीतर में भी विभाजन होगा। मसलन मारवाड़ी, चौरसिया, तेली, सूड़ी, कलवार आदि आदि। वैश्य के नाम पर जो सत्ता का सुख मारवाड़ी भोग रहे हैं, उनके खिलाफ भी कई जातियां सक्रिय राजनीति का दबाव बनाएंगी। राज्य में पिछड़ों के भीतर एक नया पिछड़ी जातियां उभर कर आएंगी। जो सत्ता की हिस्सेदारी का नया खेल खेलेंगी। जाहिर है ये दबाव झेलने में एक दशक लग जाए लेकिन तात्कालिक लाभ की छतरी में जनगणना का मूल्यांकन किया जा रहा है। संभव हैं पिछड़ों की बढ़ती जनसंख्या के कारण आरक्षण का प्रतिशत बढ़ सकता है। राजनीतिक दबाव के कारण संभव है, आरक्षण का जो दायरा अधिकतम 50 प्रतिशत है, उसे नए कानून बनाकर 50 से भी ज्यादा करने की जरूरत पड़े। संभव है सवर्ण गरीबों के लिए जो आरक्षण है, उसमें भी कोई बदलाव आए। परंतु ये परिवर्तन तो पूरी आबादी को प्रभावित करेगी किसी खास एक जाति को नहीं।