आज हम आपको महामारी में आई अनाथ बच्चों की कहानियां सुनाने जा रहे हैं! सफेद कोट और ऐपरन में बदहवाश दौड़ते डॉक्टर। खुलते-बंद होते दरवाजे। अस्पताल का बुझा कमरा। मॉनिटरों और मशीनों से ‘टिक-टिक’ करती आवाजें। नर्सों के बुझे चेहरे। मोहित को वह दिन आज भी याद है। तब वह 15 साल का था। वह दरवाजे पर ही खड़ा था। मॉनिटर को एक टक देखता। कुछ देर में वो लाइन जो हलचलें कर रही थी एकदम से सपाट सीधी हो गई। एक नर्स आई और उसके कंधे पर हाथ रखा। मोहित को नीचे ले गई और मैगी खिलाई। फिर उसने वह बताया जो मोहित जानता था। दो साल पहले मई में मोहित ने अपने पिता को गंवाया था। इसके एक साल पहले दिल का दौड़ा पड़ने से मां का निधन हो गया था। पिता झज्जर में शराब की फैक्ट्री में एग्जीक्यूटिव थे। 2021 में कोरोना की दूसरी लहर में उनके पिता वायरस की चपेट में आए। यह इन्फेक्शन उनके लिए जानलेवा साबित हुआ।
मोहित अब अनाथालय में रहता है। वही उसका घर है। इससे करीब 90 किमी दूर प्रांजल और आराध्या अपने दादा के घर में रहते हैं। प्रांजल 6 साल का है। आराध्या 10 साल की। भाई-बहन ने अप्रैल 2021 में अपने माता-पिता को गंवाया था। उनकी उम्र तब तीन साल और 7 साल थी। उनसे कोई माता-पिता के बारे में बात नहीं करता है। एक हफ्ते के अंतराल में दोनों के सिर से माता-पिता का साया उठ गया था। शुरू में बच्चे माता-पिता के बारे में पूछते थे। धीरे-धीरे उन्होंने ऐसा करना बंद कर दिया।
रुचिर 17 साल का था जब कोरोना की दूसरी लहर आई थी। उसके माता-पिता में से कोई भी इस लहर का कहर नहीं झेल पाए। रुचिर को वे डॉक्टर बनाना चाहते थे। तब से रुचिर ने मेडिकल कॉलेज में दाखिले को ही जीवन का उद्देश्य बना लिया। पिछले साल उसने ऐसा कर भी लिया। लेकिन, जो दो लोग उसके साथ खड़े होने चाहिए थे वो नहीं थे।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, देश में कोरोना की महामारी के दौरान 10,386 बच्चे अनाथ हुए। इनके सिर से मां-बाप दोनों का साया उठ गया। कुछ अनाथालय में गए। वहीं, तमाम सगे-संबंधियों के साथ रहने लगे। केंद्र और राज्य सरकारों ने महामारी के दौरान अपने परिवार को गंवाने वाले बच्चों के लिए कई कदम उठाए हैं। इनमें हेल्थ इंश्योरेंस देना शामिल है। हरियाणा में मुख्यमंत्री बाल सेवा योजना के तहत ऐसे बच्चों को मासिक 2,500 रुपये और अभिभावकों को सालाना 12,000 रुपये दिए जाते हैं। सरकार की ओर से चलाए जाने वाले 59 अनाथालयों में सरकार पूरा खर्च उठाती है। कोरोना के तीन साल बाद दुनिया भले आगे बढ़ गई है। लेकिन, इन बच्चों को इस महामारी ने वो जख्म दिया है जो शायद ही कभी भर पाए।
मोहित को अनाथालय की वैन रोजाना पिक और ड्रॉप करती है। वह रोज अपनी मां को याद करता है। जब वह 5 साल का था तो उसे अपनी मां जया की देखरेख करने के लिए स्कूल छोड़ना पड़ा था। जया बीमार रहती थीं। अपने बेटे से जया कहती थीं कि जब वह ठीक होंगी तो उसे हर रोज स्कूल छोड़ने जाएंगी। उनकी हंसी और मां के हाथ का बना खाना मोहित को भूलता नहीं है। उसे लगता है कि उसके साथ ही ऐसा क्यों हुआ।
प्रांजल और आराध्या दादा सुखबीर सिंह के साथ रहने लगे हैं। बेटा और बहू मैथ्स के प्रोफेसर थे। 65 साल के सुखबीर कहते हैं कि वह बच्चों से इस बात को छुपाते हैं। लेकिन, उन्हें लगता है कि आराध्या को पता है। कई दिनों तक वह किसी से कुछ नहीं बोलती थी। अप्रैल 2021 में कोविड ने बच्चों के सिर से माता-पिता का साया उठाया था। भाई-बहन अब अपनी दुनिया में रहते हैं।
आराध्या कहती है कि उन दोनों को मैथ से प्यार है। उनके टीचर उनकी बहुत तारीफ करते हैं। लेकिन, आराध्या डॉक्टर बनाना चाहती है। प्रांजल को वह आईएएस बनते देखना चाहती है। हालांकि, प्रांजल कहता है कि वह डॉक्टर बनना चाहता है ताकि वह आराध्या को इंजेक्शन लगा सके। सुखबीर को दोनों का साथ बहुत अच्छा लगता है।
रुचिर के माता-पिता का निधन मई 2021 में रेवाड़ी में हुआ था। इसके 10 दिन बाद उसने नीट की तैयारी शुरू कर दी। यह किशोर रो-रोकर पढ़ रहा था। घंटों वह पब्लिक लाइब्रेरी में निकाल देता था। रुचित बताते हैं कि वह 13 घंटे तक पढ़ा करते थे। उनके माता-पिता रुचिर को डॉक्टर बनाना चाहते थे। ऐसे में रुचिर का सिर्फ एक ही मकसद था। पिछले साल उन्होंने एंट्रेंस टेस्ट निकाल लिया। हिसार के महाराजा अग्रसेन मेडिकल कॉलेज में उन्हें दाखिला मिल गया। रुचिर की मां सरकारी कर्मचारी थीं। पिता इंजीनियर थे। अपने दादा-दादी के साथ रहने वाले रुचिर बताते हैं कि उनकी मां का ऑक्सिजन लेवल गिर रहा था और वेंटिलेटर उपलब्ध नहीं थे। उन्हें लग रहा था- काश, मैं कुछ कर पाता।