तमिलनाडु में तमीझगम पर तनातनी की खबरे लगातार सामने आ रही है! राज्यपाल और द्रविड़ियन राजनीति का पूरा विवाद समझने से पहले बात तमीझगम की। विधानसभा में जो विवाद सामने आया उसकी पृष्ठभूमि 4 जनवरी को ही तैयार हो गई थी। दरअसल राज्यपाल आरएन रवि ने 4 जनवरी को एक कार्यक्रम में कहा, ‘तमिलनाडु में सब कुछ अलग चल रहा है। जो बात देश में लागू होती है, उसे लागू करने से तमिलनाडु इनकार कर देता है। ये एक आदत बन चुकी है। यहां पर काफी झूठा और गलत साहित्य लिखा गया है। राज्य का ज्यादा सटीक नाम तमीझगम है।’ राज्यपाल ने जिस तमीझगम का जिक्र किया, उसका शाब्दिक अर्थ होता है- तमिल लोगों का निवास। वहीं तमिलनाडु का अर्थ है तमिलों का राष्ट्र। गवर्नर आरएन रवि के मुताबिक एक ये नैरेटिव गढ़ने का प्रयास होता है कि तमिलनाडु देश का हिस्सा नहीं है। 1938 में पेरियार ने भी तमीझगम का इस्तेमाल किया था। हालांकि मद्रास प्रेसीडेंसी का नाम बदलने के लिए उन्होंने तमिलनाडु शब्द को भी ठीक बताया था। सत्ताधारी डीएमके दलील देती है कि तमिलनाडु उनकी भाषा और संस्कृति को प्रतिबिंबित करता है। डीएमके ने अपने मुखपत्र मुरासोली में लिखा है, ‘क्या महाराष्ट्र भी मराठा लोगों का राष्ट्र है? क्या केरल का स्लोगन गॉड्स ओन कंट्री अलग देश की मांग है? क्या तेलुगुदेशम पार्टी के नाम से आपत्ति नहीं है?’
डीएमके का आरोप है कि राज्यपाल आरएन रवि ने तमिलनाडु की कुछ महान शख्सियतों और द्रविड़ियन मॉडल शब्द के संदर्भ वाले एक पैराग्राफ को छोड़ा। विधानसभा के स्पीकर एम अप्पावु ने राज्यपाल के विधानसभा के पटल पर रखे गए अभिभाषण का तमिल अनुवाद पढ़ा। इसमें उन्होंने वह हिस्सा पढ़ा, जिसमें पेरियार, आंबेडकर, कामराज और करुणानिधि का जिक्र था। इसी पैराग्राफ में प्रशासन के द्रविड़ मॉडल की तारीफ की थी। इसमें तमिलनाडु को शांति का स्वर्ग बताया गया था। सत्ताधारी डीएमके का आरोप है कि गवर्नर ने जानबूझकर इस पैराग्राफ को नहीं पढ़ा।
संविधान में दी गई जिम्मेदारी के चलते राज्यपाल चुनी गई सरकार के तैयार अभिभाषण को पढ़ता है। इस हिसाब से राज्यपाल को वह पढ़ना चाहिए जो अभिभाषण के तौर पर बनाकर दिया गया है। ऐसी परंपरा रही है लेकिन चूंकि राज्यपाल संवैधानिक प्रमुख है, राज्य का सर्वेसर्वा है तो आप राज्यपाल को बाध्य तो नहीं कर सकते हैं। उत्तर प्रदेश में ऐसे कई वाकये आए हैं, जबकि राज्यपाल को केंद्र में किसी अन्य दल की सरकार ने नियुक्त किया, लेकिन परंपरा नहीं तोड़ी। इस लिहाज से यह परंपरा ही रही है। यूपी में टीवी राजेश्वर और राम नाईक के कार्यकाल में कुछ मौके आए जब सरकार और राज्यपाल में टकराव हुआ। हालांकि उन्हें समय रहते सुलझा लिया गया। ऐसा कोई नियम अथवा कानून नहीं है, जिसे तमिलनाडु के राज्यपाल ने तोड़ा है। लेकिन भारतीय लोकतंत्र और संविधान में परंपराओं का अपना महत्व है, इसलिए उस परंपरा को नहीं तोड़ा जाना चाहिए, जिससे टकराव की स्थिति हो।’
तमिलनाडु में एक तरह की भावना रही है। तमिल राष्ट्र की एक भावना रही है, भले ही वह छिपी रही हो। श्रीलंका में जो आतंकी संगठन एलटीटीई था, उसने भी तमिल ईलम की बात की थी, राष्ट्र की संकल्पना की थी। इस तरह के स्वर पहले भी तमिलनाडु से उठते रहे हैं। राज्यपाल के तमीझगम का जिक्र करने के बाद जो क्षेत्रीय राजनीति है, उसको कहीं न कहीं हवा मिल गई। वहां सत्ताधारी पार्टी डीएमके का राज्यपाल से पहले भी विरोध रहा है। राज्यपाल को हटाने की मांग भी तेज हो रही है।’
संवैधानिक पद पर बैठा कोई व्यक्ति अगर किसी परंपरा से हटकर कदम उठाता है तो उसको राजनीतिक चश्मे से देखने की जरूरत नहीं है। उस पर संवैधानिक गरिमा के दायरे में ही चर्चा होनी चाहिए। किसी भी तरह का राजनैतिक विरोध या उसके खिलाफ आंदोलन चलाना गलत है।’
तमिलनाडु का मामला कुछ दूसरा है। यहां केंद्र और राज्य सरकार के बीच एक खुला टकराव चल आ रहा है। तमिलनाडु की सरकार हर तरह की समस्या और परेशानी का जिम्मेदार केंद्र सरकार को मानती है। तमिल हितों की अनदेखी का आरोप लगाकर वह जनता में भी इसी बात को प्रचारित करती है। तमिलनाडु में बीजेपी का कोई विशेष आधार नहीं है। तमिलनाडु के गवर्नर और प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष दोनों एक पूर्व आईपीएस हैं। डीएमके इसे संघीय ढांचे से खिलवाड़ कह रही है और तमिल गौरव की बात हो रही है। संभव है कि जिन राज्यों में बीजेपी की सरकार नहीं है, वहां से डीएमके को समर्थन मिल सकता है, क्योंकि कई राज्य ऐसे हैं। महाराष्ट्र में जब उद्धव ठाकरे की सरकार चल रही थी तो ऐसी स्थिति आई थी। केरल की स्थिति सबके सामने है। दूसरे विपक्षी दलों की जहां-जहां सरकारें हैं, वहां से डीएमके को इस मामले में समर्थन मिल सकता है। ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति और गृहमंत्री को भी विवाद खत्म करने के लिए पहल करनी चाहिए।’
खास तौर से जो विपक्षी पार्टियों के शासित राज्य हैं, वहां पर राज्यपालों के खिलाफ एक मुहिम चल रही है। चाहे बंगाल में जगदीप धनखड़ (अब उपराष्ट्रपति) का मामला रहा हो या महाराष्ट्र की बात हो। महाराष्ट्र में भगत सिंह कोश्यारी ने शिवाजी पर जो बयान दिया, उसका तीखा विरोध हुआ। इसके दो पक्ष हैं एक पक्ष स्थानीय राजनीति का है। तमिलों के अंदर शुरू से एक भावना मुखर रही है। दूसरा पक्ष है कि ऐसे में क्षेत्रीय राजनीति के उभार का मौका मिलता है। राज्यपाल को घेरकर बीजेपी को घेरने का प्रयत्न है, क्योंकि बीजेपी वहां पर खुद को मजबूत करने की कोशिश कर रही है। तीसरा पक्ष ये है कि गवर्नर के खिलाफ बोलने और उन्हें हटाने की मांग का एक मौका मिल गया।’