बिहार में फिलहाल सियासी राजनीति खेली जा रही है! 1991 में जब भारत आर्थिक उदारीकरण की दौर से गुजर रहा था तो बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने ये नारा दिया था। इस नारे में कोई बुराई नहीं है, लेकिन सपना बड़ा होना चाहिए। जब कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु में आईटी पार्क लग रहे थे, तब बिहार में चरवाहा विद्यालय खुल रहे थे। उस चरवाहा विद्यालय को भी लालू-राबड़ी सरकार ने अपने 15 साल के शासन में ही मटियामेट कर दिया। इन्हीं 15 सालों में बंगलुरू, पुणे, चेन्नई, गुरुग्राम, नोएडा, हैदराबाद जैसे शहर अंतरराष्ट्रीय स्तर के होते चले गए। 21वीं शताब्दी में जब लोग मंगल ग्रह पर प्लॉट खरीद रहे हैं तो बिहार में सरकार लोगों से पूछ रही है कि ‘आपकी जाति क्या है’। अमीर-गरीब की पहचान, जाति के हिसाब से बिहार सरकार करेगी। वैसे, समाज में न तो अमीर की कोई जाति होती है और ना ही गरीब की। दोनों की जरूरतें बिल्कुल एक जैसी होती है। जब भारत में आर्थिक उदारीकरण शुरू हुआ तो बिहार में चरवाहा विद्यालय खुला। बिल्कुल नया कॉन्सेप्ट था। दुनियाभर के सामाजिक संगठनों का ध्यान खींचा। बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने 23 दिसंबर 1991 को पहला चरवाहा विद्यालय मुजफ्फरपुर में खुलवाया। तुर्की में 25 एकड़ जमीन एलॉट की गई। इसमें जान फूंकने के लिए, लालू प्रसाद ने नारा दिया था- ‘ओ गाय-भैंस चराने वालों, ओ सूअर-बकरी चराने वालों, ओ घोंघा चुनने वालों, पढ़ना-लिखना सिखो’। तुर्की के बाद दूसरा चरवाहा विद्यालय रांची के पास झीरी में खोली गई। इस योजना के लिए राजकोष से फंड भी दिए गए। मीडिया में मिल रही सुर्खियों से लालू यादव उत्साहित थे और अविभाजित बिहार में कुल 354 चरवाहा विद्यालय खोल डाले
1995 विधानसभा चुनाव जीतने के कुछ दिनों बाद से लालू यादव घपले-घोटाले में फंसने लगे। ऐसे में चरवाहा विद्यालय को कौन पूछता है? कुर्सी बची रहे, इसकी चिंता ज्यादा हो गई। विकास और गरीब, जाति की खूंटी पर टांग दिए गए। लालू यादव और उनकी पत्नी राबड़ी ने बिहार पर 15 साल तक शासन किया। इन 15 सालों में देश के कई शहर आईटी और बिजनेस के हब बन गए। लालू-राबड़ी के शासनकाल में ही चरवाहा विद्यालय इतिहास हो गया। बिहार में शहर-दर-शहर माफिया पैदा हो गए। पलायन की रफ्तार और तेज हो गई। बिहार के लोग देश के दूसरे शहरों को आबाद करने लगे।
बिहार में जातीय जनगणना पर सियासी दंगल हो रहा है। वैसे लोकतंत्र के हिसाब से नीतीश कुमार पॉलिटिकली करेक्ट हो सकते हैं। विधानसभा में लालू और नीतीश के अलावा भारतीय जनता पार्टी ने भी जातीय जनगणना के प्रस्ताव का समर्थन किया था। तब वो सत्ता में हुआ करती थी। अब वो ‘राजसुख’ से बाहर है तो उसे जातीय जनगणना गले की फांस लग रहा है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का कहना है कि इससे (कास्ट सेंसस) ये मालूम होगा कि बिहार में कितनी जातियां निवास कर रही हैं। उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थति क्या है? डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव का तर्क है कि कास्ट बेस्ड सर्वे से हमारे पास साइंटिफिक डेटा होगा, उसी हिसाब से जरूरी और कल्याणकारी योजनाएं बनेंगी। सदन में समर्थन करनेवाली बीजेपी का तीसरा नेत्र अब खुला है। प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल ने कहा कि ये सोचने की बात है कि 1931 के बाद आजाद भारत के किसी सरकार ने जातीय जनगणना की आवश्यकता क्यों नहीं समझी? क्षेत्रीय दलों की जाति आधारित राजनीति खतरे में पड़ गई तो वो फिर से समाज को आपस में लड़ाकर अपना उल्लू सीधा करना चाहती हैं।
सवाल ये नहीं है कि बिहार जैसे गरीब राज्य में जातीय जनगणना होने चाहिए या नहीं। सवाल ये है कि अभी हमारी जरूरतें क्या हैं? 500 करोड़ और पांच लाख कर्मचारियों को लगाकर नीतीश सरकार क्या हासिल करना चाहती है? अगर सरकार को गरीबों की इतनी ही चिंता है तो अमीरी-गरीबी का डेटा जुटा सकती थी। आमतौर पर सरकार के पास इस तरह के डेटा मौजूद होते हैं। इस पैसे को स्कूल, कॉलेज या फिर यूनिवर्सिटी पर खर्च किया जा सकता था।
मगर, जिसकी रोजी-रोजगार और सुख-सुविधा जाति से जुड़ जाए तो वो भला इससे समझौता कैसे कर सकता है? नीतीश कुमार ने तो जातियों को ऐसे खंड-खंड में बांटा है कि जातियों के सबसे बड़े अलमबरदार माननेवाले लालू यादव की बोरिया-बिस्तर तक पटना से बंधा गया था। दिल्ली में जाकर राबड़ी देवी छठ करने लगीं थीं। बीजेपी ने नीतीश कुमार का इगो हर्ट कर दिया तो वो एक बार फिर अपने सियासी दुश्मन और पुराने दोस्त के पाले में चले गए। 1990 वाली राजनीति पर 33 साल बाद 2023 में पॉलिस मारकर चमकाने की कोशिश हो रही है।
ये भी बिल्कुल उसी तरह है, जैसे 1991 में जब देश आर्थिक उदारीकरण की दौर से गुजर रहा था तो बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री चरवाहा विद्यालय से गरीब बच्चों की किस्मत संवारने में जुटे थे। तब देश में हाई टेक सिटी डेवलप किए जा रहे थे, चमचमाती सड़कें और ऊंची-ऊंची गगनचुंबी इमारतें खड़ी हो रही थीं। उस वक्त बिहार के लोगों को सफलता की झूठी-सच्ची कहानियां सुनाई जा रही थी। जब चरवाहा विद्यालय में पढ़नेवाले बच्चे, वोट डालने की उम्र में आए तो उन्होंने उस सत्ता को उखाड़ फेंका, जिसने उसके नाम के साथ चरवाहा शब्द चस्पा किया था।
15 साल सत्ता से बाहर रहने के बाद लालू यादव की दूसरी पीढ़ी को थोड़े दिनों के लिए राजसुख मिला। चेहरे की रौनक लौटी। मगर कुछ दिनों बाद फिर छिटक गया। एक बार फिर सत्ता का सुख सिर चढ़कर बोल रहा है। कहने को तो तेजस्वी यादव नौजवान हैं। ज्यादा पढ़े-लिखे भले न हों लेकिन कम से कम दुनिया तो देखे हैं। नीतीश कुमार ने भी 2025 के बाद का गारंटी दे दिया है। मगर अब तक कोई विजन नहीं दिखा कि सड़क, पानी, बिजली और जाति जनगणना से आगे का बिहार कैसा होगा? कहीं ऐसा न हो कि जिसकी भलाई के नाम पर जाति गिनवा रहे हैं, उसे ये पसंद ही न आए।