Monday, December 23, 2024
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क्या राहुल गांधी के साथ आएंगे वरुण गांधी?

वरुण गांधी और राहुल गांधी के साथ आ सकते हैं! राहुल गांधी ने नौ जनवरी, 2023 को संघ पर एक बयान दिया जिसका मतलब अब तक खोजा रहा है। उन्होंने कहा कि 21 वीं सदी में भी कौरव हैं जो खाकी हाफ पैंट पहनते हैं। फिर वो बोले कि पांडव होते तो जीएसटी नहीं लगाते, नोटबंदी नहीं करते। हाफ पैंट वाली बात तो अब तथ्यात्मक तौर पर भी गलत है क्योंकि परिधान बदला है। पांडवों के समय नोटबंदी और जीएसटी पर उनका आशय क्या था, इसे समझने के लिए राजनीतिक पंडित अभी भी सिर खुजला रहे हैं। हालांकि उनके बयान के बाद भाजपा के कई नेताओं ने उन्हें संघ के दफ्तर आने का न्योता दिया। इस न्यौते पर राहुल गांधी ने आठ दिनों बाद रिएक्ट किया है। सवाल था, क्या अपनी ही सरकार के विरोध में पत्रजीवी बने चचेरे भाई वरुण गांधी को अपने साथ लेंगे। इस पर राहुल ने कहा .. मेरी विचारधारा उनसे नहीं मिलती। मैं आरएसएस के दफ्तर में कभी नहीं जा सकता। उससे पहले मेरा गला काटना पड़ेगा। मेरे परिवार की विचारधारा है। उसका एक थॉट सिस्टम है। जो वरुण हैं, उन्होंने एक समय और शायद आज भी उस विचारधारा को अपनाया तो मैं उस बात को स्वीकार नहीं कर सकता। मैं जरूर प्यार से मिल सकता हूं, गले लग सकता हूं मगर उस विचारधारा को मैं स्वीकार नहीं कर सकता। पार्टी नहीं परिवार में ला सकते हैं.. इस पर उन्होंने कहा कि वो अलग रिश्ते होते हैं।

आगे बढ़ने से पहले ये क्लियर हो जाए कि राहुल गांधी को वरुण गांधी अपनी पार्टी में नहीं बुला रहे। राहुल के जवाब से यही लगता है। सवाल तो ये था कि क्या वो वरुण गांधी को अपने साथ लाएंगे। ऐसा करने के लिए राहुल को संघ के ऑफिस जाने की क्या जरूरत है? फिर गला कटवाने की नौबत कहां से आ गई। राहुल ने प्यार से वरुण को गले लगाने की बात तो कह दी लेकिन परिवार में वापस लाने की गुंजाइश भी खत्म कर दी। उन्होंने साफ कहा कि मेरे परिवार की विचारधारा अलग है और वरुण की अलग जिसे मैं कभी स्वीकार नहीं कर सकता।

जब राहुल गांधी अपने भाई वरुण गांधी को नकार रहे थे उससे कुछ देर पहले पीलीभीत में एक कार्यक्रम हो रहा था। वरुण अपने संसदीय क्षेत्र में जन-संवाद कार्यक्रम कर रहे थे। राहुल की तरह मोदी सरकार को पूंजीपतियों का रखवाला बताने वाले वरुण गांधी ने खुद की तुलना अपने परनाना जवाहरलाल नेहरू से कर दी। इसके लिए उन्होंने किस्सा सुनाया कि कैसे एक लाख की सैलरी का चेक मिलने पर वो उसे लौटाने पीएम मनमोहन सिंह के पास पहुंचे। मनमोहन सिंह ने उनको बताया कि ऐसी ही भावना आधुनिक भारत के निर्माता कहे जाने वाले नेहरू की भी थी। हालांकि अभी नेहरू की रईसी पर चर्चा मुनासिब नहीं है। वरुण तो एक कदम आगे बढ़ कर ये भी कह चुके हैं कि न वो कांग्रेस के खिलाफ हैं न ही पंडित नेहरू के खिलाफ। वही कांग्रेस जिससे लड़कर वरुण की मां मेनका गांधी ने अपना अलग वजूद बनाया।

ये बात जरूर है कि आज मेनका और वरुण दोनों भाजपा में हाशिए पर हैं। बल्कि ये कहा जाए तो कमतर नहीं कि सुब्रमण्यम स्वामी की तरह वरुण गांधी भी भाजपा नेतृत्व को अनुशासनात्मक कार्रवाई के लिए उकसा रहे हैं। वरुण की मां मेनका गांधी चार सरकारों में मंत्री रही हैं। नरेंद्र मोदी के पहले कार्यकाल में भी वो केंद्रीय मंत्री रहीं। इस बीच वरुण गांधी को पार्टी का महासचिव भी बनाया गया और पश्चिम बंगाल की जिम्मेदारी भी। लेकिन मोदी के पीएम बनने के बाद गांधी परिवार से मुकाबले के लिए उन्हें किसी और गांधी की जरूरत नहीं थी। इस बीच वरुण की महत्वाकांक्षी बढ़ती गई। उन्होंने 2017 के यूपी चुनाव से पहले खुद को सीएम कैंडिडेट घोषित करने की कोशिश की जो अमित शाह और मोदी को रास नहीं आया। उसके बाद से ही जनसंपर्क के नाम पर वरुण गांधी मोदी सरकार की नीतियों को चुन-चुन कर टारगेट करते गए। लखीमपुर खीरी कांड के बाद किसान आंदोलन के दौरान वो खुल कर मोदी सरकार के खिलाफ हो गए।

पर कांग्रेस के भीतर उनके लिए क्या उम्मीदें हो सकती हैं? ये बात जरूर है कि कांग्रेस मुख्यालय 24 अकबर रोड में आज भी ऐसे नेता मौजूद हैं जो संजय गांधी के खास रहे। लेकिन आज से 40 साल पहले एक सफदरजंग रोड में जो कुछ भी हुआ उसके बाद क्या मेनका और सोनिया साथ रह सकती हैं? शायद जवाब ना है। 23 जून 1980 के दिन संजय गांधी की मौत के बाद राजीव गांधी तो कहीं सीन में भी नहीं थे। 1972 से लेकर इमरजेंसी के झंझावात तक संजय गांधी ने ही पार्टी पर पकड़ रखी और मां इंदिरा के मुख्य सलाहकार बने रहे। या कहें बिना उनकी रजामंदी के इंदिरा भी कोई फैसला नहीं करती थीं। इसलिए मौत के बाद मेनका ही खुद को राजनीतिक वारिस मानकर चल रही थीं लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। राजीव गांधी अमेठी से उपचुनाव जीते और इधर घर के भीतर तल्खियां बढ़ती गई। पापा के निधन के समय वरुण महज तीन महीने के थे। अंत में मेनका ने 1982 में एक सफदरजंग सदा के लिए छोड़ दिया। संजय विचार मंच बनाया और 1984 में राजीव को ही चुनौती दे दी। पर, उनके खाते में हार मिली। तब से जनता दल होते हुए मेनका भाजपा में अपना सियासी रसूख बढ़ाती गईं और आज मां-बेटे इस मुकाम पर हैं। यानी, भाजपा में भी हाशिए पर और राहुल की नो एंट्री का बोर्ड। क्या पता आगे का रास्ता साइकिल पर तय करें वरुण गांधी।

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