आज हम आपको बताएंगे कि गुजारा भत्ता को लेकर सुप्रीम कोर्ट क्या कहता है! कहा जाता है कि आप हर कर्ज उतार सकते हैं लेकिन माता-पिता का कर्ज कभी नहीं चुका सकते। हमारे समाज और हमारी परंपराओं में मां-बाप का दर्जा ईश्वर से कम नहीं। लेकिन क्या वाकई ऐसा है? अफसोस की बात है कि अंधे और बुजुर्ग मां-बाप को कांवड़ पर बिठाकर तीर्थ कराने वाले श्रवण कुमार की धरती पर मां-बाप को बुढ़ापा में वृद्धाश्रमों में छोड़ा जाना हैरान नहीं करता। बुढ़ापे में अपनी ही संतान घर से निकाल दे, इससे ज्यादा शर्मनाक कुछ नहीं हो सकता। इस महीने की शुरुआत में छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने अपने एक अहम फैसले में कहा कि अगर बेटा बुजुर्ग पिता की सेवा नहीं करता है तो उसके पिता के मकान पर उसका कोई हक नहीं है। सबसे पहले बात छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट के बीते दिनों आए फैसले की। रायपुर के कासिमपारा क्षेत्र के रहने वाले सेवालाल बघेल का आरोप था कि उनके बेटे और बहू रायपुर में उनके ही मकान में रहते हैं लेकिन उनकी देखभाल नहीं करते हैं। वह सरकारी नौकरी से रिटायर हुए थे। मकान को बुजुर्ग ने खुद खरीदा था लेकिन बेटे-बहू उन्हें अपने ही घर से निकालने के धमकी दिया करते थे। इस वजह से वह अपने बड़े बेटे के यहां रह रहने को मजबूर थे। बेटे-बहू की प्रताड़ना से तंग आकर सेवालाल ने रायपुर कलेक्टर के यहां मैंटिनेंस ऐंड वेल्फेयर ऑफ पैरेंट्स ऐंड सीनियर सिटिजन ऐक्ट, 2007 के तहत शिकायत दर्ज कराई। कलेक्टर ने उन्हें राहत देते हुए बहू-बेटे को 7 दिनों के भीतर मकान खाली करने का आदेश दिया। साथ में बुजुर्ग को हर महीने 5 हजार रुपये गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया। कलेक्टर के इस आदेश को बेटे नीरज बघेल ने छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट में चुनौती दी लेकिन कोर्ट ने उसकी याचिका खारिज कर दी। जस्टिस दीपक तिवारी की बेंच ने बेटे को 7 दिनों के भीतर मकान खाली करने के कलेक्टर के आदेश को सही ठहराया। हालांकि, बुजुर्ग को हर महीने 5 हजार रुपये गुजारा भत्ता का आदेश निरस्त कर दिया क्योंकि पेंशन की वजह से उनके सामने गुजारे के संकट जैसी कोई समस्या नहीं थी। हाई कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि अगर बुजुर्ग पिता की देखभाल नहीं करते हैं तो बेटे का मकान पर अधिकार नहीं है। कोर्ट ने कहा कि परंपरा की अनदेखी, लोकाचार और नैतिकता में गिरावट की वजह से बुजुर्गों को नजरअंदाज करने की भावना बढ़ी है।
पिछले साल यूपी के बस्ती में वंशराम नाम के एक 83 साल के बुजुर्ग ने नदी में कूदकर खुदकुशी की कोशिश की। उन्होंने अयोध्या में सरयू नदी में छलांग लगा दी लेकिन गनीमत रही कि समय रहते स्थानीय मल्लाहों और जल पुलिस उन्हें बचा लिया। वंशराम के एक-दो नहीं बल्कि 3 बेटे थे लेकिन बुढ़ापे में उन्होंने अपने पिता को ही बेसहारा छोड़ दिया। उन्होंने अपनी सारी जमीन-जायदाद बेटों के नाम कर दी थी लेकिन तीनों में से किसी के पास भी बुजुर्ग को रखने तक की जगह नहीं रही!
नवंबर 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने बुजुर्ग बाप को हर महीने 10 हजार रुपये गुजारा भत्ता देने में आनाकानी करने वाले एक बेटे को कड़ी फटकार लगाई थी। कोर्ट ने कहा कि बुढ़ापे में मां-बाप की देखभाल करना न सिर्फ बेटे का नैतिक फर्ज है बल्कि कानूनी बाध्यता भी है। 72 साल के बुजुर्ग राजमिस्त्री थे। उनके 2 बेटे और 6 बेटियां थीं। बुजुर्ग दिल्ली के कृष्णानगर में 30 वर्गगज के मकान में अपने बड़े बेटे के परिवार के साथ रहते थे। घर का पहले ही परिवार के सदस्यों के बीच बंटवारा हो चुका था। लेकिन शादीशुदा बेटियों ने अपनी हिस्सेदारी को पिता के लिए छोड़ रखा था जिस वजह से उन्हें घर के कोने में रहने के लिए एक बहुत ही छोटी सी जगह मिली थी। लेकिन बेटों ने उनके गुजारे और उनकी बुनियादी जरूरतों के लिए खर्च देना बंद कर दिया। 2015 में बुजुर्ग ने फैमिली कोर्ट का रुख किया। कोर्ट ने उनके रियल एस्टेट डीलर बेटे को अपने पिता को गुजारे के लिए हर महीने 6 हजार रुपये गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया, वह भी 2015 की शुरुआत से। इस तरह बेटे को मासिक गुजारा भत्ता के अलावा एरियर के साथ एकमुश्त 1,68,000 रुपये अदा करने को कहा लेकिन उसने सिर्फ 50 हजार रुपये ही जमा किए। बाद में ट्रायल कोर्ट ने गुजारा भत्ता की रकम को 6 हजार से बढ़ाकर 10 हजार रुपये महीना कर दिया और बकाया एरियर को नए रेट पर अदा करने को कहा। इसके बाद बेटा गुजारा भत्ता देने से बचने के लिए तमाम फोरमों में याचिकाएं दाखिल करने लगा। कभी डिस्ट्रिक्ट कोर्ट तो कभी दिल्ली हाई कोर्ट और आखिरकार सुप्रीम कोर्ट में। शीर्ष अदालत में बेटे ने दलील दी कि उसकी आर्थिक स्थिति 10 हजार महीना गुजारा भत्ता देने की नहीं है। उसकी बहानेबाजियों पर सुप्रीम कोर्ट ने कड़ी फटकार लगाते हुए कहा कि बुजुर्ग मां-बाप की देखभाल करना बेटे का न सिर्फ नैतिक फर्ज है बल्कि कानूनी बाध्यता भी है।
जुलाई 2021 में पंजाब ऐंड हरियाणा हाई कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि बच्चों को मां-बाप की देखभाल करनी ही होगी। मामला 76 साल की बुजुर्ग विधवा से जुड़ा था। महिला का आरोप था कि 2015 में उसके बेटे ने फर्जी तरीके से उसकी संपत्ति को अपने नाम करा लिया। इसके बाद वह उन्हें बात-बात पर पीटना शुरू कर दिया। सुलह के लिए 2-3 बार पंचायत भी हुई लेकिन बेटे के रवैये में कोई तब्दीली नहीं आई। आखिरकार महिला ने कानून का सहार लिया। जस्टिस एजी मसीह और अशोक कुमार वर्मा की बेंच ने अपने फैसले में कहा कि बच्चों को अपने बुजुर्ग मां-बाप की देखभाल करनी ही होगी। इसके साथ ही अदालत ने बेटे के नाम महिला की संपत्ति के ट्रांसफर को भी रद्द कर दिया।
2011 की जनगणना के मुताबिक देश में तब सीनियर सिटिजन की तादाद 7.7 करोड़ थी जो कुल आबादी का करीब 7.5 फीसद थी। ये संख्या समय के साथ और बढ़ी है। मिनिस्ट्री ऑफ सोशल जस्टिस ऐंड एम्पावरमेंट की बुजुर्गों के लिए एनुअल ऐक्शन प्लान (2022-23) के अनुसार, 2021 में देश में बुजुर्गों की आबादी करीब 14 करोड़ थी यानी आबादी में उनकी हिस्सेदारी 10 फीसदी से ज्यादा है। बुजुर्गों के गरिमाभरे जीवन को सुनिश्चित करने के लिए तामाम कानूनी प्रावधान किए गए हैं। कभी कभार लोकलाज के भय और कभी जागरुकता की कमी की वजह से बुजुर्ग अपने ही संतान की प्रताड़ना सहने को मजबूर होते हैं। अगर आप बुजुर्ग हैं और आपकी संतान आपकी देखभाल नहीं कर रहे तो आपको कानून का सहारा लेना चाहिए। अगर आप अपने आसपास किसी बुजुर्ग को प्रताड़ित होते देख रहे हैं तो इन कानूनी रास्तों से उसे इंसाफ दिला सकते हैं।
वे बुजुर्ग माता-पिता जो अपनी आय या संपत्ति के जरिए अपना गुजारा करने में सक्षम नहीं हैं और उनके बच्चे या रिश्तेदार उनका ध्यान नहीं रख रहे तो वे भरण-पोषण का दावा कर सकते हैं। ऐसे बुजुर्गों को प्रति महीने 10 हजार रुपये तक का गुजारा-भत्ता मिल सकता है। भरण-पोषण के आदेश का एक महीने के भीतर पालन करना अनिवार्य है। 60 वर्ष से ऊपर के ऐसे शख्स यानी सीयिर सिटिजन जिनकी कोई संतान न हो, वे भी अपने रिश्तेदारों/अपनी संपत्ति के उत्तराधिकारियों से भरण-पोषण की मांग कर सकते हैं। कानून में ऐसे मामलों की सुनवाई के लिए मैंटिनेंस ट्राइब्यूनल और अपीलेट ट्राइब्यूनल का प्रावधान किया गया है। देश के ज्यादातर जिलों में ऐसे ट्राइब्यूनल हैं। बुजुर्ग से शिकायत मिलने के बाद ट्राइब्यूनल को 90 दिनों के भीतर उसका निपटारा करना होता है।
इसके लिए ट्राइब्यूनल में आवेदन करना होगा। इसके लिए किसी वकील की भी जरूरत नहीं है। बुजुर्ग खुद अर्जी दे सकता है या किसी व्यक्ति या एनजीओ को भी इसके लिए अधिकृत कर सकता है। ट्राइब्यूनल खुद भी संज्ञान ले सकता है। अगर ट्राइब्यूनल संतुष्ट हो जाता है कि बच्चे या रिश्तेदार बुजुर्ग की देखभाल करने में लापरवाही बरत रहे हैं या इनकार कर रहे तो उन्हें हर महीने गुजारा भत्ता देने का आदेश दे सकता है जो अधिकतम 10 हजार रुपये प्रति महीने तक हो सकती है। हालांकि, अब सरकार इस अपर लिमिट को खत्म करने की तैयारी में है। ट्राइब्यूनल के फैसले से संतुष्ट नहीं होने पर बुजुर्ग उसे अपीलेट ट्राइब्यूनल में चुनौती भी दे सकता है।
माता-पिता और वरिष्ठ नागरिक देखभाल एवं कल्याण कानून 2007′ के अलावा सीआरपीसी में भी बुजुर्गों के अधिकारों की रक्षा के प्रावधान हैं। सीआरपीसी की धारा 125 (1) (डी) और हिंदू अडॉप्शन ऐंड मैंटिनेंस ऐक्ट 1956 की धारा 20 (1 और 3) के तहत भी मां-बाप अपनी संतान से भरण-पोषण के हकदार हैं। सीआरपीसी की धारा 125(1) के मुताबिक अगर संतानें अपने माता-पिता की देखभाल नहीं कर रहे हैं तो प्रथम श्रेणी का मैजिस्ट्रेट उन्हें भरण-पोषण देने का आदेश दे सकता है। हालांकि, यह राशि तय नहीं है और मैजिस्ट्रेट केस के आधार पर अपने विवेक के मुताबिक तय कर सकता है।