परवेज मुशर्रफ कश्मीर का मुद्दा सुलझा सकते थे! आज से करीब 24 साल पहले एक बस नई दिल्ली से पाकिस्तान गई थी। उस बस पर सवार थे तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी। साथ में कपिल देव, देव आनंद, जावेद अख्तर, कुलदीप नैयर, शत्रुघ्न सिन्हा जैसी मशहूर हस्तियां। 20 फरवरी 1999 को बस लाहौर पहुंची और भारत-पाकिस्तान के रिश्ते थोड़े समय के लिए ही सही, पटरी पर लौटते दिखे। दिल्ली और लाहौर के बीच पहली बार बस चली थी। बॉर्डर पर नवाज शरीफ बाहें पसारे वाजपेयी और अन्य मेहमानों की अगवानी को तैयार खड़े थे। वाजपेयी और शरीफ ने एक संधि पर हस्ताक्षर किए जिसे लाहौर घोषणा कहते हैं। दोनों देशों की संसद ने उसी साल संधि को मंजूरी दे दी। इतने दोस्ताना माहौल के बावजूद दो-तीन महीनों में सब कुछ बदल गया। मई 1999 में पाकिस्तान ने करगिल में युद्ध छेड़ दिया। वाजपेयी और भारत ने दोस्ती का जो हाथ बढ़ाया था, उसे झटककर पाकिस्तान ने दुश्मनी चुनी। उस वक्त भारत की पीठ में छुरा घोंपने वाले शख्स का नाम है परवेज मुशर्रफ। मुशर्रफ उस वक्त पाकिस्तान के तानाशाह राष्ट्रपति थे। उन्हीं की सरपरस्ती में पाकिस्तान की सेना ने भारत पर हमला बोला। करगिल युद्ध में पाकिस्तान को धूल चटाने के बावजूद भारत विनम्र रहा। एक बार फिर दोस्ती का पैगाम भेजा गया। इस बार उधर से मुशर्रफ आए। आगरा में ऐतिहासिक बैठक हुई लेकिन नतीजा वही रहा। एक बार फिर भारत की पीठ में छुरा घोंपा गया। इस बार भी सूत्रधार थे जनरल परवेज मुशर्रफ। रविवार को दुबई में मुशर्रफ का निधन हो गया। कहानी भारत की पीठ में बार-बार छुरा घोंपने वाले जनरल की।
लाहौर में जबरदस्त स्वागत के बीच वाजपेयी ने कहा था, ‘मैं अपने साथी भारतीयों की सद्भावना और आशा लेकर आया हूं जो पाकिस्तान के साथ स्थायी शांति और सौहार्द चाहते हैं… मुझे पता है कि यह दक्षिण एशिया के इतिहास में एक निर्णायक क्षण है और मुझे उम्मीद है कि हम चुनौती का सामना करने में सक्षम होंगे।’ दोनों प्रधानमंत्रियों के बीच बातचीत के बाद लाहौर समझौते पर दस्तखत हुए।
दोनों देश परमाणु हथियारों के दुर्घटनावश या अवैध इस्तेमाल से जुड़े खतरे कम करने के लिए कदम उठाने पर राजी हुए। हालांकि, तस्वीर में वाजपेयी के चेहरे पर दिख रही मुस्कान ज्यादा दिन नहीं टिकी। कुछ महीने बाद ही, पाकिस्तान ने जम्मू कश्मीर के करगिल में अपने लड़ाके भेज दिए। इसके पीछे दिमाग था जनरल परवेज मुशर्रफ का। नवाज ने बाद में कहा भी कि ‘कुछ जनरलों ने पाकिस्तान को युद्ध में झोंक दिया।’
नवाज शरीफ ने जनरल परवेज मुशर्रफ को अक्टूबर 1998 में सेना प्रमुख नियुक्त किया। कई रक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि मुशर्रफ की नियुक्ति के ठीक बाद ही भारत पर हमले के ब्लूप्रिंट को फिर निकाला गया। 1984 में ऑपरेशन मेघदूत के बाद से ही पाकिस्तान छटपटा रहा था जिसमें उसके हाथ से सियाचिन ग्लेशियर निकल चुका था। 1999 में सेना प्रमुख रहे जनरल वेद प्रकाश मलिक के अनुसार, पाकिस्तान ने हमले की बैकग्राउंड प्लानिंग कई बार की, करगिल में घुसपैठ का प्रस्ताव पहले भी दिया गया था मगर युद्ध का खतरा भांपकर जिया उल हक और बेनजीर भुट्टो ने सेना को हरी झंडी नहीं दी। मुशर्रफ खुद एक जनरल थे, दिल में आग तो जल ही रही थी। कई रिपोर्ट्स बताती हैं कि मुशर्रफ ने ही करगिल में हमले का पूरा प्लान डिवाइस किया। मुशर्रफ के इशारे पर मार्च से ही करगिल में घुसपैठिए भेजे जाने लगे थे।
भारत को घुसपैठ की खबर लगी मई 1999 में। फौरन सेना को हुक्म मिला कि घुसपैठियों को खदेड़ा जाए। भारतीय सेना के पराक्रम के आगे पाकिस्तानी नहीं टिके। जुलाई में जब तक अंतरराष्ट्रीय दबाव के आगे नवाज घुटने टेकते, पाकिस्तान की करारी शिकस्त हो चुकी थी। करगिल की विफलता के लिए जनरल मुशर्रफ की खूब फजीहत हुई। सीनियर आर्मी ऑफिशियल्स के मुशर्रफ से भिड़ने की खबरें आईं। मुशर्रफ अब सेना प्रमुख से तानाशाह बढ़ने की सोच रहे थे। युद्ध के बाद नवाज शरीफ ने दावा किया था कि उन्हें मुशर्रफ के प्लान की कोई जानकारी नहीं थी। हालांकि, मुशर्रफ ने दावा कि नवाज को करगिल में ऑपरेशन की जानकारी वाजपेयी की लाहौर यात्रा से पहले ही दी जा चुकी थी।
पाकिस्तान के पूर्व पीएम नवाज शरीफ ने एक रैली में कहा था कि कारगिल युद्ध से हमें कुछ हासिल नहीं हुआ। शरीफ ने दावा किया कि करगिल युद्ध में सैनिकों के पास हथियार नहीं थे , मगर कुछ जनरलों ने युद्ध में झोंक दिया। युद्ध के दौरान नवाज शरीफ ही पाकिस्तान के प्रधानमंत्री थे। शरीफ ने तत्कालीन सेना प्रमुख परवेज मुशर्रफ पर हमला करते हुए कहा कि कारगिल में हमारे सैकड़ों जवानों को शहीद करवाने और पाकिस्तान को दुनिया में रुसवा कराने का फैसला चंद जनरलों का था, जिन्होंने फौज को ही नहीं देश और कॉम को ऐसी जंग में झोंक दिया, जिसमें कोई फायदा नहीं हो सका। मेरे बहादुर सिपाहियों ने बताया कि कारगिल की ऊंची चोटियों पर खुराक तो दूर की बात हथियार तक नहीं भिजवाया गया। उन्होंने कहा, इसके पीछे कुछ किरदार शामिल थे, जिन्होंने खुद को बचाने के लिए सेना और देश को युद्ध की आग में झोंक दिया।
आगरा में मुशर्रफ और वाजपेयी के बीच बातचीत बेनतीजा रही। एक्सपर्ट्स इसकी कई वजहें गिनाते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, मुशर्रफ ने कश्मीर मसला सुलझाने के लिए चार सूत्रीय प्रस्ताव रखा था जिसपर वाजपेयी भी काफी हद तक रजामंद थे। मुशर्रफ ने 2004 में दावा किया कि आगरा में समझौते का ड्राफ्ट तैयार था लेकिन भारत पीछे हट गया। वहीं, कसूरी ने अपनी किताब में अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गीलानी को जिम्मेदार ठहराया। रॉ के पूर्व प्रमुख एएस दुलत ने 2015 के एक इंटरव्यू में कहा कि तत्कालीन डिप्टी-पीएम लालकृष्ण आडवाणी के चलते बातचीत पटरी से उतर गई। आडवाणी या गीलानी बातचीत फेल होने की वजह थे या वाजपेयी के मन में मुशर्रफ को लेकर बैठा अविश्वास… लाहौर बस यात्रा के कुछ दिन बाद ही करगिल में युद्ध छिड़ा था। वाजपेयी चाहकर भी वह धोखा भूल नहीं सके।
2001 में पहली बार भारत आने के बाद मुशर्रफ 2005 में फिर भारत आए। इस बार उन्होंने तत्कालीन पीएम मनमोहन सिंह के साथ बैठकर नई दिल्ली में भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच देखा। हालांकि रिश्तों के मोर्चे पर कोई सार्थक बातचीत नहीं हुई। भारत और पाकिस्तान के बीच दूरियां कम होने के बजाय बढ़ती ही गईं। एक उम्मीद 2015 में जरूर जगी थी जब पीएम नरेंद्र मोदी ने अचानक लाहौर में उतरकर नवाज शरीफ को सरप्राइज किया था। लेकिन उसके बाद कई आतंकी हमलों और सीमा पर तनाव ने आगे बढ़ने नहीं दिया। अब भारत का साफ रुख है कि बातचीत की मेज पर आने से पहले पाकिस्तान को सभी तरह के आतंकवादी समूहों का पालना-पोसना बंद करना पड़ेगा।