क्या नीतीश कुमार को मना पाएगी बीजेपी?

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नीतीश कुमार को बीजेपी मना पाएगी या नहीं यह सबसे बड़ा सवाल है! बीजेपी के लिए फिलवक्त सबसे महत्वपूर्ण 2024 का लोकसभा चुनाव फतह करना है। यह सबसे बड़ी चुनौती भी है। लोकसभा चुनाव में बीजेपी के पास हिन्दुत्व के साथ दलित-पिछड़ों का भरोसा जीतने की भी चुनौती है। बिहार की बात करें तो बीजेपी के पास अभी तक कोई ऐसा चेहरा नहीं है, जो भरोसा जगा सके कि वह उसकी नैया पार लगा देगा। सियासत के दगे कारतूस जैसे सहयोगी नेता-समर्थक या दल बीजेपी के लिए डूबते के लिए तिनके का सहारा ही साबित हो सकते हैं। उनके जरिये बड़ा खेल बिहार में संभव नहीं है। कौन-कौन हो सकते हैं बीजेपी के खेवनहार, जरा इस पर गौर करते हैं। बिहार में बीजेपी के एक कद्दावर नेता हैं सुशील कुमार मोदी, लेकिन बीजेपी ने उन्हें राज्यसभा का सदस्य बना कर बिहार की राजनीति से विदा ही कर दिया है। सुशील मोदी को नीतीश कुमार का सबसे भरोसेमंद माना जाता था। लालू परिवार के खिलाफ उनका हल्ला बोल सर्वविदित है। लालू परिवार के खिलाफ उनके बयानों और ट्वीट का अगर आकलन किया जाये तो शायद इस मामले में उनकी जगह गिनीज बुक आफ रिकार्ड्स में जरूर दर्ज हो जाएगी। रोज-रोज लालू परिवार की आलोचना के साथ सुशील मोदी के निशाने पर तो अब नीतीश भी आ गये हैं। इसके बावजूद बीजेपी सुशील मोदी पर भरोसा करेगी, इसमें संदेह लगता है।

बीजेपी के पास लव-कुश समीकरण साधने के लिए सहयोगी उपेंद्र कुशवाहा और आरसीपी सिंह जैसे नेता जरूर हैं, लेकिन वे चुनाव नहीं जिता सकते। इसलिए बीजेपी उन पर भी दांव लगा सकती है। उनके आने से बीजेपी के पारंपरिक वोट तो मिल ही जाएंगे, नीतीश के न रहने पर लव-कुश समीकरण वाले वोटों में भी सेंध लग सकती है। अब सवाल है कि बीजेपी को उनको कितना तरजीह देती है।

अपवाद छोड़ दें बीजेपी को यादव वोट कभी नहीं मिलते। इसलिए किसी यादव नेता पर बीजेपी दांव लगाने से परहेज करेगी। आरजेडी जब खस्ताहाल था, तब भी यादवों के 16-17 प्रतिशत वोट उसे मिलते रहे हैं। यह 2015 और 2020 के विधानसभा चुनावों के परिणामों से स्पष्ट है। बीजेपी के भूपेंद्र यादव लंबे समय तक बिहार के प्रभारी रहे। इसके बावजूद यादव वोटरों को वे नहीं लुभा पाये। हालांकि यादव बिरादरी के दो दमदार चेहरे बीजेपी के पास हैं। इनमें एक हैं नित्यानंद राय तो दूसरे नंदकिशोर यादव। रामकृपाल यादव भी शुमार किये जा सकते हैं। इसके बावजूद बीजेपी इनमें किसी चेहरे को बिहार में अपने नेता के तौर पर उभारेगी, इसमें संदेह है। इसलिए कि जिस तरह मुसलमानों के वोट बीजेपी को कभी नहीं मिलते, उसी तरह यादवों के वोट भी आरजेडी के अलावा कोई दल अब तक झटक नहीं पाया।

बीजेपी अगर सवर्ण नेता को सामने करती है तो इससे पिछड़ी जाति और दलितों के वोटर बिदक सकते हैं। हालांकि नेता प्रतिपक्ष विजय कुमार सिन्हा खुद को खेवनहारों की कतार में आगे निकलने के लिए कम सक्रिय नहीं हैं। वे भी नीतीश और लालू परिवार के खिलाफ हल्ला बोलने में सुशील मोदी के साथ कदम ताल कर रहे हैं। अब सवाल उठता है कि बीजेपी को अगर बिहार में 2024 के लोकसभा और 2025 के विधानसभा चुनाव में अगर पार पाना है तो उसे कोई एक चेहरा सामने लाना ही पडेगा, ताकि वोटरों को अपना मन बनाने में सहूलियत हो। बीजेपी की अभी ताकत उसके पारंपरिक वोटर हैं, लेकिन बिहार का जैसा मिजाज रहा है, उसमें कोई सर्वस्वीकार्य चेहरा तो सामने रखना ही पड़ेगा।

अभी तक नीतीश कुमार का साथ बीजेपी की कामयाबी का सबसे बड़ा कारण रहा है। नीतीश ने न सिर्फ अपने लव-कुश समीकरण वाले वोट पर अधिकार जमाये रखा,इनमें एक हैं नित्यानंद राय तो दूसरे नंदकिशोर यादव। रामकृपाल यादव भी शुमार किये जा सकते हैं। इसके बावजूद बीजेपी इनमें किसी चेहरे को बिहार में अपने नेता के तौर पर उभारेगी, इसमें संदेह है। इसलिए कि जिस तरह मुसलमानों के वोट बीजेपी को कभी नहीं मिलते, उसी तरह यादवों के वोट भी आरजेडी के अलावा कोई दल अब तक झटक नहीं पाया। बल्कि आरजेडी के वोटर आधार को भी उन्होंने अपने पाले में किया। यही वजह रही कि वे लालू यादव के बाद बिहार में दमदार पोलिटिशियन बने रहे। सच कहें तो लालू को टक्कर देते रहे। 2015 ऐसा ही मौका था, जब यह साबित हुआ कि लालू का साथ उनको फायदे में रख सकता है। अगर एंटी इन्कंबैंसी को फैक्टर भी मानें तो नीतीश कुमार बीजेपी के साथ रह कर लव-कुश समीकरण के 10-11 प्रतिशत वोट थोक में ट्रांसफर करा सकते हैं। यही वजह है कि बीजेपी के लीडर नीतीश की खुल कर आलोचना नहीं करते।