राजनेता अमरमणि पूर्वांचल की राजनीति में एक बड़ा अहम हिस्सा रखते थे! उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक अलग ही माहौल बनता दिखने लगा है। लोकसभा चुनाव से पहले कई बड़े संदेश देने की कोशिश की जा रही है। पिछले दिनों में बाहुबलियों के जेल से बाहर आता देखा जा रहा है। पिछले दिनों बिहार सरकार ने कानून में बदलाव कर गोपालगंज के डीएम रहे जी. कृष्णैया हत्याकांड मामले में करीब 16 साल से जेल में बंद आनंद मोहन सिंह की रिहाई का रास्ता साफ कर दिया। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद अब यूपी की राज्यपाल आनंदी बेन पटेल की अनुमति के बाद कवियत्री मधुमिता हत्याकांड के आरोपी पूर्व मंत्री अमरमणि त्रिपाठी की रिहाई हो गई। जिस प्रकार से आनंद मोहन की रिहाई पर बिहार से लेकर यूपी तक राजनीतिक विवाद गहराया था, उसी प्रकार की स्थिति यूपी में भी दिख रही है। हालांकि, आरोपों और पीड़ा प्रदर्शित करने का सिलसिला पीड़ित पक्ष की तरफ से ही दिख रहा है। विपक्षी दल लोकसभा चुनाव से पहले अमरमणि पर बड़ा राजनीतिक हमला कर एक वर्ग के वोटरों की नाराजगी मोल नहीं लेना चाहते हैं। अमरमणि की रिहाई की चर्चा के बाद से अब तक कोई बड़ा बयान विपक्षी पार्टियों की ओर से अब तक नहीं आया है। यूपी की राजनीति में अमरमणि त्रिपाठी का राजनीतिक कद काफी मायने रखता है। वर्ष 1956 में जन्मे अमरमणि त्रिपाठी ने अपराध की दुनिया से राजनीति तक का सफर तय किया। अमरमणि की राजनीति में एंट्री से पहले ही उस पर हत्या, मारपीट, किडनैपिंग जैसे आरोप लग चुक थे। जैसे-जैसे अपराध का ग्राफ बढ़ता गया, अमरमणि के नाम की गूंज लखनऊ तक सुनाई देने लगी। दरअसल, तब पूर्वांचल में ब्राह्मण और राजपूत के बीच वर्चस्व की लड़ाई चल रही थी। ब्राह्मणों का नेतृत्व हरिशंकर तिवारी कर रहे थे। वहीं, ठाकुरों के बीच वीरेंद्र प्रताप शाही अपनी पकड़ बनाए हुए थे। गोरखपुर में छात्र राजनीति चरम पर थी। ऐसे में दोनों गुट लगातार आमने-सामने आ रहे थे। इलाके पर वर्चस्व की लड़ाई में हर प्रभावशाली वर्ग किसी न किसी किनारे पर लगा हुआ था। ऐसे ही दौर में अमरमणि त्रिपाठी की एंट्री हुई। उसने हरिशंकर तिवारी का साथ देना शुरू किया। देखते ही देखते अमरमणि ने हरिशंकर तिवारी के खास होने का तमगा हासिल कर लिया।
हरिशंकर तिवारी को भी एक ऐसे ही हथियार की तलाश थी, जो वीरेंद्र प्रताप शाही को टक्कर दे सके। हरिशंकर तिवारी ने अमरमणि को 1980 के चुनाव में वीरेंद्र शाही के खिलाफ लक्ष्मीपुर सीट से चुनावी मैदान में उतार दिया। अमरमणि को कम्युनिस्ट पार्टी का भी समर्थन मिला। वीरेंद्र शाही ने इसके बाद भी अमरमणि को चुनाव में हरा दिया। 1985 में एक बार फिर वे लक्ष्मीपुर से चुनावी मैदान में उतरे। इस बार भी हार मिली। महाराजगंज की लक्ष्मीपुर सीट वर्ष 2008 के परिसीमन के बाद नौतनवां कही जाने लगी।
अमरमणि त्रिपाठी ने दो चुनावों में हार के बाद अपनी रणनीति में बदलाव किया। कांग्रेस की सदस्यता हासिल की। 1989 के चुनाव में उतरे और पहली बार जीत हासिल की। अमरमणि त्रिपाठी पहली बार विधायक बने। हालांकि, वर्ष 1991 और 1993 के विधानसभा चुनाव में फिर अमरमणि हारे। कुंवर अखिलेश प्रताप सिंह ने अमरमणि को हराया। हालांकि, वर्ष 1996 में एक बार फिर कांग्रेस के टिकट पर उतरे अमरमणि ने जीत हासिल की। हालांकि, तब यूपी में भाजपा-बसपा गठबंधन की सरकार बनी। इसके बाद उन्होंने कांग्रेस छोड़कर भाजपा की सदस्यता हासिल की। भाजपा ने उन्हें पार्टी में आते ही मंत्री बना दिया। बाद में वे पार्टी से निकाले गए, लेकिन पूर्वांचल में अमरमणि की धमक और पकड़ बढ़ती गई। ब्राह्मण वोट बैंक के बीच मजबूत होते अमरमणि राजनीतिक दलों की जरूरत बन गए। हर सरकार में उन्हें मंत्री बनाया जाने लगा।
बहुजन समाज की बात करने वाली बसपा ने अपने रुख में बदलाव शुरू कर दिया था। वर्ष 2002 में विधानसभा चुनाव की तैयारी थी। भाजपा से किनारे किए गए अमरमणि ने तब बसपा का दामन थामा। बसपा ने उन्हें नौतनवां से उम्मीदवार बना दिया। वे फिर वहां से जीते। मायावती की सरकार बनी, उसमें वे रहे। हालांकि, बसपा-भाजपा सरकार एक साल तक ही चली। इसके बाद राज्य की सत्ता में सपा पावर में आई। मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने। अमरमणि ने भी पाला बदला और मुलायम सिंह यादव के करीब हो गए। अमरमणि को मुलायम ने अपनी कैबिनेट में शामिल किया। इसी दौरान अमरमणि की लखीमपुर खीरी की वीर रस की कवियत्री मधुमिता शुक्ला से पहचान बढ़ी। इसके बाद अमरमणि का बुरा दौर शुरू हो गया।
कोर्ट की उम्र कैद की सजा को 16 साल बाद राज्यपाल की अनुमति के बाद खत्म करने का निर्देश दिया गया है। अमरमणि और मधुमणि की उम्र, सजा की अवधि और सजा के दौरान जेल में अच्छे आचरण को देखते हुए सजा माफ की गई। राज्यपाल की अनुमति के बाद जेल प्रशासन और सुधार विभाग ने रिहाई के आदेश जारी किया। करीब 20 साल बाद अमरमणि के जेल से बाहर आने के बाद पूर्वांचल में राजनीतिक समीकरण बदल सकता है। दरअसल, कभी भाजपा के साथ में रहे अमरमणि की रिहाई को लेकर इस इलाके के ब्राह्मण वोट के बीच संदेश जाएगा।
भले वर्ष 2007 के बाद अमरमणि ने चुनाव नहीं लड़ा हो, लेकिन उसकी राजनीतिक विरासत को बेटे अमनमणि ने आगे बढ़ाया। एक बड़े वर्ग में उसका रसूख है। राजनीतिक विशेषज्ञों का कहना है कि पूर्वांचल में भाजपा ने ओम प्रकाश राजभर और दारा सिंह चौहान जैसे चेहरों को साधकर ओबीसी वोट बैंक में अपनी पैठ बढ़ाई है। वहीं, अमरमणि के जरिए ब्राह्मणों के बीच पार्टी के आधार के और जमने का संदेश जाना तय माना जा रहा है।