क्या घोसी विधानसभा चुनाव को हर जाना बीजेपी के लिए है खतरे की घंटी?

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घोसी विधानसभा चुनाव को हार जाना बीजेपी के लिए एक खतरे की घंटी है! यूपी की घोसी विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में समाजवादी पार्टी ने जीत हासिल की है। उसके उम्मीदवार सुधाकर सिंह ने बीजेपी के दारा सिंह चौहान को 42 हजार से भी ज्यादा वोटों के अंतर से हराया है। 2022 में भी एसपी ने यहां से जीत हासिल की थी तो कह सकते हैं कि पार्टी ये सीट बचाने में कामयाब रही। लेकिन उपचुनाव क्यों हुआ? पिछली बार सपा के टिकट पर जीते दारा सिंह चौहान ने फिर पाला बदलकर बीजेपी का दामन थाम लिया। घोसी उपचुनाव बीजेपी और एसपी या यूं कहें कि एनडीए और I.N.D.I.A. के बीच NDA vs I.N.D.I.A. प्रतिष्ठा की लड़ाई से कम नहीं था। एसपी चीफ अखिलेश यादव का PDA यानी ‘पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक’ फॉर्म्युला काम कर गया। बीजेपी ने उपचुनाव में एड़ी-चोटी का दम लगाया। मंत्रियों की फौज लगा रखी थी। एनडीए के सहयोगी ओपी राजभर और संजय निषाद की भी ताबड़तोड़ रैलियां कराईं। लेकिन अखिलेश के ‘PDA’ चक्रव्यूह को भेद नहीं पाई। एसपी चीफ ने इसे बीजेपी की राजनीतिक ही नहीं, नैतिक हार भी करार दिया है। घोसी उपचुनाव के नतीजे 2024 में योगी-बीजेपी के लिए खतरे की घंटी से कम नहीं हैं। आखिर घोसी में बीजेपी क्यों हारी? वो कौन से फैक्टर थे जो एसपी और उसके उम्मीदवार सुधाकर सिंह के पक्ष में काम किए? आइए समझते हैं। घोसी विधानसभा सीट की बात करें तो यहां कुल करीब 4.37 लाख वोटर हैं। अनुमानों के मुताबिक, यहां मुस्लिम वोटरों की तादाद करीब 90 हजार के आसपास हैं। दलित वोटर भी करीब 80 से 85 हजार के बीच हैं। अनुमान के मुताबिक, घोसी में सवर्ण मतदाता करीब 70 से 80 हजार के बीच हैं। इनमें भूमिहार 45000, राजपूत 16000 और ब्राह्मण 6 हजार के करीब हैं। पिछड़े समुदाय से ताल्लुक रखने वाले वोटरों की तादाद करीब 2 लाख है। अखिलेश यादव 2022 के यूपी चुनाव के बाद से सपा के पक्ष में नया सियासी, सामाजिक समीकरण गढ़ने की कोशिश में लगे हैं। उन्होंने ‘पीडीए’ यानी ‘पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यकों’ का फॉर्म्युला अपनाया है जो घोसी उपचुनाव में हिट साबित हुआ। बीएसपी उपचुनाव लड़ नहीं रही थी लिहाजा उसके कोर वोटरों यानी दलित समुदाय को लुभाने के लिए एसपी और बीएसपी दोनों ने पूरा जोर लगाया। नतीजों से ऐसा लग रहा है कि एसपी को दलित वोटों को साधने में कामयाबी मिली है।

2022 के उपचुनाव में तीसरे नंबर पर रही बीएसपी घोसी उपचुनाव से दूर रही। उसकी गैरमौजूदगी में एसपी और बीजेपी ने दलित वोटों को साधने के लिए पूरा जोर लगा दिया। बीजेपी ने तो अपने एससी/एसटी मोर्चा की टीम को गांव-गांव में दलित वोटरों को लुभाने के मिशन पर लगा दिया। यूपी बीजेपी एससी-एसटी मोर्चा के अध्यक्ष राम चंद्र कन्नौजिया समेत तमाम नेताओं ने गांव-गांव, गली-गली जाकर दलितों को साधने की कोशिश की। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपनी रैलियों में दलितों को साधने के लिए 1995 के कुख्यात ‘गेस्ट हाउस कांड’ की भी बार-बार याद दिलाई जब सपा कार्यकर्ताओं ने लखनऊ में मायावती पर जानलेवा हमला किया था।

समाजवादी पार्टी अबतक MY समीकरण पर चलती रही है लेकिन अखिलेश यादव ने उसे विस्तार देते हुए अब ‘PDA’ का नया फॉर्म्युला गढ़ा है। यूपी में बसपा के कमजोर होने के बाद समाजवादी पार्टी रणनीति के तहत दलितों को अपने पाले में खींचने की कोशिश कर रही है। इस साल 15 मार्च को सपा ने बसपा संस्थापक कांशी राम की जयंती जोर-शोर से मनाई थी। एक महीने बाद 14 अप्रैल को बीआर आंबेडकर की जयंती को भी पार्टी ने बड़े पैमाने पर मनाया। सूबे के हर जिले में पार्टी दफ्तरों में आंबेडकर जयंती की धूम रही। अखिलेश यादव बसपा से उसके कोर दलित वोटरों को छीनने की रणनीति के तहत मायावती पर आंबेडकर और कांशीराम के दिखाए रास्ते से हटने का आरोप लगा रहे हैं। इसी साल कोलकाता में जब समाजवादी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हुई तो मंच पर अखिलेश यादव के ठीक बगल में एसपी विधायक अवधेश प्रसाद को जगह दी गई जो दलित समुदाय से आते हैं। घोसी उपचुनाव की कामयाबी के बाद अखिलेश अब ‘पीडीए’ फॉर्म्युले पर और आक्रामक होकर काम कर सकते हैं।

घोसी में पिछड़े वोट निर्णायक भूमिका निभाते हैं। चौहान, निषाद, कुशवाहा जैसी तमाम गैर-यादव ओबीसी जातियों की यहां अच्छी खासी तादाद है। प्रतिष्ठा की लड़ाई को जीतने के लिए बीजेपी ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। विधानसभा क्षेत्र में दर्जनों मंत्रियों ने कैंप किया हुआ था। इन्हें अपने-अपने समाज के वोटरों को साधने की जिम्मेदारी दी गई थी। इनमें स्वतंत्रदेव सिंह, विजय लक्ष्मी गौतम, दयाशंकर सिंह, एके शर्मा, नरेंद्र कश्यप, असीम अरुण, दानिश आजाद अंसारी जैसे मंत्री शामिल थे। इसके अलावा डेप्युटी चीफ मिनिस्टर केशव प्रसाद मौर्य और ब्रजेश पाठक भी मोर्चा संभाले हुए थे। मंत्रियों के अलावा कई सांसदों और विधायकों को भी बीजेपी ने चुनाव प्रचार में उतारा था। सपा के यादव वोट बेस में सेंध लगाने के लिए बीजेपी ने आजमगढ़ के सांसद और भोजपुरी फिल्मों के सुपरस्टार दिनेश लाल यादव निरहुआ और राज्यसभा सांसद संगीता यादव को मोर्चे पर लगाया था। दोनों वहां कैंप कर रहे थे। निरहुआ ने रोडशो के जरिए माहौल बनाने की कोशिश की। गैर-यादव ओबीसी वोटों को साधने के लिए बीजेपी के सहयोगी दलों सुभासपा, निषाद पार्टी और अपना दल के नेता भी लगातार जनसंपर्क और रैलियां कर रहे थे। सुभासपा चीफ ओम प्रकाश राजभर, निषाद पार्टी के अध्यक्ष डॉक्टर संजय निषाद की ताबड़तोड़ रैलियां कराई गईं। बीजेपी विधायक जय प्रकाश निषाद भी निषाद वोटों को साधने के लिए लगातार सक्रिय थे। लेकिन बीजेपी के एड़ी-चोटी का जोर लगाने के बावजूद समाजवादी पार्टी बाजी मार ले गई।

सुधाकर सिंह पहले भी सपा से दो बार विधायक रह चुके हैं। वह राजपूत समाज से ताल्लुक रखते हैं। चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने ‘बाहरी बनाम मिट्टी के लाल’ का मुद्दा उछाला। दारा सिंह चौहान मूल रूप से आजमगढ़ के रहने वाले हैं। हालांकि, वह घोसी से सांसद और विधायक भी रह चुके हैं। लेकिन सुधाकर सिंह अपनी हर सभाओं में बार-बार ये भावनात्मक मुद्दा उठाते थे कि घोसी की माटी पर बाहरी नेताओं ने कब्जा कर लिया है जो आते हैं तो सिर्फ चुनाव के वक्त। जीत हासिल करने के बाद वो क्षेत्र से गायब हो जाते हैं। दारा सिंह की दलबदलू छवि के बीच सुधाकर सिंह का बाहरी भगाओ, घोसी बचाओ का नारा हिट हो गया। दारा सिंह के दल बदलने की वजह से घोसी पर उपचुनाव थोपा गया जिससे जनता में नाराजगी दिखी।

घोसी उपचुनाव में बीजेपी को ऐसे समय में झटका लगा है जब वह अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए कमर कस रही है। उपचुनाव में जीत से अखिलेश यादव का I.N.D.I.A. गठबंधन में कद बढ़ेगा। दूसरी तरफ, बीजेपी के लिए ये खतरे की घंटी है। आयातित नेताओं के दम पर पिछड़ों को लुभाने की बीजेपी की रणनीति घोसी में नाकाम हुई है।