Monday, December 23, 2024
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क्या कानून की सभी खामियों को दूर करेगा UCC?

UCC कानून में आने वाली सभी खामियों को दूर कर सकता है! वर्ष 1996 में दीपिका मेहता की फिल्म आई। नाम था- फायर। इस फिल्म में दो विवाहित महिलाओं को जुनूनी प्रेम के आगोश में एक-दूसरे के साथ शारीरिक सुख पाते हुए दिखाया गया। इस फिल्म पर लोगों की जबर्दस्त प्रतिक्रिया आई। फिर पिछले वर्ष 2022 में, हर्षवर्धन कुलकर्णी की बधाई दो आई। इसमें भी एक महिला पुलिसकर्मी और शारीरिक शिक्षा विषय की एक महिला शिक्षक के बीच समलैंगिंक संबंधों को दिखाया गया। इनमें एक झूठमूठ की शादी भी कर लेती है ताकि वो अपना असली जीवन जी सके। इस फिल्म को समीक्षकों की प्रशंसा और बॉक्स ऑफिस पर भी बढ़िया रिटर्न, दोनों मिले। इससे पता चलता है कि पिछले 25 वर्षों में आदर्श भारतीय परिवार की अवधारणा बदली है। समलैंगिक संबंधों और गैर-पारंपरिक परिवार संरचनाओं जैसे आधुनिक परिवारों को समाज तेजी से स्वीकार करने लगा है। दूसरी तरफ, कानून में भी बदलाव हुए हैं। अदालती दखल के बाद आपराधिक कानून जैसे कुछ क्षेत्रों में कानूनों को नए समाज की संरचना के अनुकूल बनाया गया है। लेकिन परिवार का कानून, जो विवाह, तलाक, गोद लेने, संरक्षण और उत्तराधिकार से संबंधित है, वो अब भी घिसा-पिटा और दशकों पुराना है। केंद्र सरकार ने 18 से 22 सितंबर तक संसद के पांच दिवसीय विशेष सत्र की घोषणा की तो चर्चा है कि समान नागरिक संहिता यूसीसी का विधेयक पेश किया जा सकता है। इस साल की शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट में विवाह समानता के मामले में भी सुनवाई हुई थी जिस पर फैसला आने वाला है। परिवार कानून अचानक चर्चा के केंद्र में आ गया है।

भारत में परिवार का कानून मुख्य रूप से धर्म के आधार पर बने ‘व्यक्तिगत कानून’ के भीतर है। पर्सनल लॉ एक ऐसा सिस्टम है जो किसी व्यक्ति की धार्मिक पहचान के आधार पर अलग-अलग नियम लागू करती है। भारतीय परिवार के कानून के बड़े हिस्से पुराने सिद्धांतों पर आधारित हैं जिनकी प्रासंगिकता आज के समय में बहुत कम है। उदाहरण के लिए, भारत में घर का औसत आकार घटकर 4.4 हो गया है, लेकिन हिंदू उत्तराधिकार कानून में अभी भी सहदायिकता संयुक्त उत्तराधिकार की अवधारणा को मान्यता मिली हुई है। दरअसल, कानून की यह अवधारणा उस वक्त सामने आई थी जब संयुक्त परिवारों का चलन था और उनके खान-पान एवं पूजा-पाठ जैसी व्यवस्था साथ होती थी। इस अवधारणा को आधुनिक बनाना समय की मांग है। वर्षों से शिक्षाविदों और कानून से जुड़े लोगों, दोनों ने तत्काल सुधार की मांग की है। यूसीसी को लेकर हाल की चर्चा आदर्श भारतीय परिवार की अवधारणा पर पुनर्विचार करने का एक उत्कृष्ट अवसर प्रदान करती है।

भारत में फैमिली लॉ के तहत अलग-अलग तरह की व्यवस्था के परिवारों को मान्यता दी जानी चाहिए और सुधारों को मूल सिद्धांतों से शुरू करना चाहिए, जैसे कि लैंगिक न्याय, समानता, सम्मान और समावेश। इन सिद्धांतों पर आधारित एक यूसीसी कई महत्वपूर्ण उद्देश्यों को प्राप्त कर सकती है। व्यस्कों के बीच आपसी प्रेम, एक-दूसरे की देखभाल और निर्भरता की मूलभूत जरूरतों से बने अलग-अलग तरह के संबंध आज के युग की सामाजिक वास्तविकता हैं। उदाहरण के लिए, हिजड़ा घराना एक परिवार के रूप में कार्य करता है लेकिन कानून उसे इस रूप में मान्यता नहीं देता है। इससे स्वास्थ्य देखभाल संबंधी निर्णय लेने के लिए व्यक्तियों को नियुक्त करने के अधिकार, संपत्ति को विरासत में देने के अधिकार आदि तक पहुंच प्रतिबंधित हो जाती है। 21वीं सदी के फैमिली लॉ में असामान्य परिवारों को समायोजित करना चाहिए और उन्हें पारंपरिक परिवारों को प्राप्त लाभ भी दिया जाना चाहिए।

क्वीर लोगों को शादी करने के अधिकार से वंचित किया जाता है और साथ ही जीवनसाथियों के लिए उपलब्ध सामाजिक-आर्थिक अधिकारों से भी। केवल यौन अभिविन्यास सेक्सुअल ऑरियेंटेशन के आधार पर विवाह संस्थान से बाहर रखा जाना उनके मौलिक अधिकारों के खिलाफ है। लैंगिक पहचान और सेक्सुअल ऑरियेंटेशन के बावजूद सभी के लिए विवाह संस्थान को सुलभ बनाने की तत्काल जरूरत है। कानून आज भी मानता है कि महिलाएं ससुराल की संपत्ति बढ़ाने में कोई योगदान नहीं करती हैं। भारत में विवाह के बाद खरीदी गई संपत्ति का स्वामित्व अक्सर उन महिलाओं के पास नहीं होता है जो परिवार को पैसे कमाकर नहीं देती हैं। वक्त की मांग है कि फैमिली लॉ फ्रेमवर्क पति-पत्नि, दोनों द्वारा अर्जित संपत्ति को ‘साझा वैवाहिक संपत्ति’ की मान्यता मिले, जिसे तलाक के समय दोनों में समान रूप से बांटा जाए।

असामान्य परिवार कोई नई बात नहीं है। भारतीय पौराणिक कथाओं में, कार्तिकेय या मुरुगन का पालन-पोषण कई माता-पिता ने किया था, जिनमें देवी और देवता, दोनों शामिल थे। उनके जैविक पिता शिव ने उनका पालन नहीं किया था। यह सोशल पैरेंटहुड है – एक ऐसा रिश्ता जो रक्त से नहीं, बल्कि प्यार और देखभाल पर आधारित है। यह सच है कि ‘पारंपरिक’ परिवार मानक रहे हैं, लेकिन कानून केवल बहुमत की जरूरतें पूरा करने के लिए नहीं है। यह फैमिली लॉ के लिए विशेष रूप से सच है, जो सभी भारतीयों के लिए सुरक्षात्मक और सशक्त होने वाला है।

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