आखिर क्यों खत्म हो रहा है राजद्रोह कानून?

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आज हम आपको बताएंगे कि राजद्रोह कानून आखिर क्यों खत्म हो रहा है! सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता आईपीसी की धारा 124ए के तहत निर्धारित देशद्रोह कानून की वैधता को चुनौती देने वाली कई याचिकाओं को कम से कम पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के पास भेजने का फैसला किया है। इस फैसले ने एक बार फिर इस विवादास्पद औपनिवेशिक कानून को चर्चा में ला दिया है। प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की पीठ ने स्पष्ट किया कि पिछले छह दशकों में संवैधानिक सिद्धांतों और कानून के विकास के साथ-साथ यह आवश्यक है कि धारा 124ए को हरी झंडी देने वाले सुप्रीम कोर्ट के 1962 के फैसले को इस मामले में आखिरी मानने से पहले एक बड़ी पीठ इस पर गंभीरता से विचार करे। पीठ ने केंद्र सरकार की इस दलील को भी खारिज कर दिया कि इस मामले को तब तक के लिए टाल दिया जाए जब तक कि इस विषय पर एक नया कानून नहीं आ जाता है क्योंकि 124ए की समीक्षा प्रस्तावित प्रावधानों को प्रभावित कर सकती है। पीठ ने कहा कि नया कानून आ रहा है, इस आधार पर धारा 124ए को चुनौती देने वाली एक ‘जीवंत चुनौती’ पर विचार करने से हाथ पीछे नहीं खींचा जा सकता है। पीठ ने यह भी कहा कि धारा 124ए अभी भी कानून की किताब में है और इसके तहत पहले से ही दर्ज मामले तो चलते रहेंगे भले ही भविष्य में नया कानून बन जाए।

औपनिवेशक युग का यह कानून मूल रूप से आंदोलनों को कुचलने और सरकार की आलोचनाओं पर रोक लगाने के लिए लाया गया था जिसमें अधिकतम उम्रकैद की सजा का प्रावधान किया गया। इस कानून के तहत पुलिस किसी आरोपी को बिना किसी वारंट ही गिरफ्तार कर सकती है। स्वतंत्रता के बाद इस कानून में संशोधन करके इसे और सख्त बना दिया गया और बिना वारंट के गिरफ्तारी को तगड़ा कानूनी आधार दे दिया गया। केंद्र सरकार ने 11 अगस्त, 2023 को लोकसभा में एक नया कानून पेश किया, जिसे बाद में एक संसदीय समिति के पास भेज दिया गया। इस नए कानून में देशद्रोह को अलग नाम के तहत और एक व्यापक परिभाषा के साथ अपराध बनाए रखा गया है।

ऐसे समय में जब केंद्र सरकार देशद्रोह के कानून को नया चोला पहनाने पर विचार कर रही है, सुप्रीम कोर्ट ने धारा 124ए की जांच करने का फैसला किया है। यह एक दिलचस्प घटना है, जिस पर गहराई से विचार करना आवश्यक है। देशद्रोह कानून की वैधता को स्वतंत्र भारत में पहली बार 1951 में तत्कालीन पंजाब उच्च न्यायालय में ‘तारा सिंह गोपी चंद बनाम राज्य’ मामले में चुनौती दी गई थी। हाई कोर्ट ने धारा 124ए को भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध बताते हुए रद्द कर दिया था। इसी फैसले के बाद जवाहरलाल नेहरू सरकार ने संविधान संशोधन लाकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को उचित रूप से प्रतिबंधित करने के लिए नए आधार पेश किए थे।

देशद्रोह कानून की वैधता को विभिन्न उच्च न्यायालयों में कई बार चुनौती दी गई है। वर्ष 1954 में पटना हाई कोर्ट ने देवी सोरेन और अन्य बनाम राज्य मामले में धारा 124ए की वैधता को बरकरार रखा, यह कहते हुए कि यह कानून भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 का उल्लंघन नहीं करता है। सात साल बाद इलाहाबाद हाई कोर्ट ने धारा 124ए को अमान्य घोषित कर दिया। वर्ष 1958 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने ‘राम नंदन बनाम राज्य’ मामले में कानून को अमान्य घोषित करते हुए कहा कि सरकार को लोकप्रिय स्वीकृति या अस्वीकृति के अलावा एक मजबूत विपक्ष का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। उच्च न्यायालयों के विभिन्न विचारों से उत्पन्न उलझन पर अंततः सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 1962 में ‘केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य’ मामले में फैसला दिया, जिसे अब तक का सबसे अधिकारिक निर्णय माना जाता है।

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को कम से कम पांच न्यायाधीशों की पीठ की जरूरत बताते हुए कहा कि 1962 के फैसले में चर्चा इस बात पर प्रकाश डालती है कि धारा 124ए का परीक्षण अनुच्छेद 19 के मापदंडों पर किया गया था क्योंकि उस समय संवैधानिक स्थिति यह थी कि किसी कानून को चुनौती केवल एक विशिष्ट मौलिक अधिकार का हवाला देकर दी जा सकती है।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने रेफरेंस ऑर्डर में कहा है: ‘जिस समय संविधान पीठ ने इस प्रावधान की वैधता पर फैसला दिया था, उस समय यह चुनौती कि धारा 124A संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) का उल्लंघन करती है, केवल उस अनुच्छेद के आधार पर ही परीक्षण की गई थी। इसे उस समय इस न्यायालय द्वारा निर्धारित संवैधानिक स्थिति की पृष्ठभूमि में पढ़ा जाना चाहिए। इस आधार पर कोई चुनौती नहीं दी गई थी कि धारा 124ए अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करती है और न ही संविधान पीठ के पास अनुच्छेद 14 के आधार पर इस प्रावधान की वैधता पर विचार करने का अवसर था।’

शीर्ष अदालत के आरसी कूपर और मेनका गांधी मामलों में दिए गए निर्णयों में घोषित ज्यूरिशप्रूडेंशियल ट्रांसफोर्मेशन का जिक्र करते हुए आदेश में कहा गया है कि संवैधानिक न्यायशास्त्र में विकसित स्थिति यह है कि मौलिक अधिकार अलग-थलग नहीं हैं। दूसरे शब्दों में, भाग III द्वारा संरक्षित कई अधिकार आपस में मिलते-जुलते हैं। अनुच्छेद 14, जो युक्तियुक्तता का एक व्यापक सिद्धांत प्रस्तुत करता है, अनुच्छेद 19 और 21 में भी व्याप्त है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चूंकि केवल समान क्षमता वाली पीठ या बड़ी पीठ ही पिछले फैसले को स्पष्ट या उसकी समीक्षा कर सकती है, इसलिए पांच या अधिक न्यायाधीशों की पीठ गठित की जानी चाहिए ताकि यह निर्णय लिया जा सके कि क्या 1962 में केदार नाथ सिंह मामले में दिए गए फैसले पर पुनर्विचार की आवश्यकता है या वर्तमान न्यायशास्त्रीय और कंस्टिट्यूशनल डिजाइन के अनुरूप इसकी व्याख्या करना पर्याप्त होगा। किसी भी तरह से, आईपीसी में धारा 124ए का फिर से परीक्षण किया जाएगा, जो देश की सर्वोच्च अदालत का ध्यान आकर्षित करेगा। सरकार प्रतिबंधों के बचाव में व्यापक सार्वजनिक हित का हवाला देगी। वह संविधान की संरचनात्मक व्याख्या और मौलिक अधिकारों के परस्पर संबंधों की अवधारणा का विरोध करेगी!