आज हम आपको बिहार की जातिगत जनगणना का संदेश बताने जा रहे हैं! बिहार सरकार ने सोमवार को गांधी जयंती के अवसर पर जाति आधारित जनगणना की रिपोर्ट जारी कर दी। नतीजों की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रदेश की आबादी में में अन्य पिछड़ा वर्ग ओबीसी 63% हिस्सेदारी है। ध्यान रहे कि बिहार में ओबीसी को दो वर्गों- पिछड़ा वर्ग बीसी और अत्यंत पिछड़ा वर्ग ईबीसी में बांटा गया है। जाति आधारित जनगणना में उप-जातिवार जनसंख्या के अलावा और भी बहुत सारे आंकड़े हैं और यह देखा जाना बाकी है कि उन्हें कब जारी किया जाएगा। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कह रहे हैं कि वो आर्थिक सर्वेक्षण के आंकड़े भी विधानसभा में पेश करेंगे। पहली महत्वपूर्ण बात तो यह है कि बिहार की जातीय जनगणना, वर्ष 1931 की जनगणना के बाद पहली ऐसी कवायद थी जिसमें जाति के आधार पर आबादी का आंकड़ा जुटाया गया। 1931 के बाद से हर दस साल में होने वाली जनगणना में सिर्फ अनुसूचित जाति एससी और अनुसूचित जनजाति एसटी की हिस्सेदारी का ही आकलन हुआ करता है। इस बीच मांग जोर पकड़ती रही कि आरक्षण के दायरे में आने वाले अन्य पिछड़े वर्ग के आंकड़ों का पता लगाया जाए। भले ही जनगणना में एससी-एसटी के सिवा किसी अन्य जाति का जिक्र नहीं होता था, बता रहे 10.6 प्रतिशत हिस्सेदारी से भी आगे हैं बल्कि 17.7 प्रतिशत वाली मुसलमान और 19.7 प्रतिशत वाली अनुसूचित जाति एससी के आसपास हैं। ऐसी और तुलना करें तो यादवों की आबादी, पिछड़े वर्ग की सभी जातियों की कुल जनसंख्या से ज्यादा है। बिहार में आबादी के लिहाज से दूसरे स्थान पर दुसाध जबकि तीसरे स्थान पर चमार हैं। ये दोनों उप-जातियां अनुसूचित जाति वर्ग की हैं। उनके बाद नंबर पिछड़े वर्ग में शामिल कोयरी कुशवाहा का आता है। लेकिन कई अन्य सरकारी सर्वेक्षणों में ओबीसी समेत अन्य सभी नॉन-एससी, नॉन-एसटी जातियों की आबादी का पता चलता ही रहा है। राष्ट्रीय परिवार एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण NFHS या सावधिक श्रम बल सर्वेक्षण PLFS आदि के आकड़े बताते हैं कि बिहार में ओबीसी की आबादी 55 प्रतिशत के करीब है।
बिहार जाति सर्वेक्षण में 215 उप-जातियों को शामिल किया गया। इससे लग सकता है कि प्रदेश में सामाजिक फैलाव का दायरा कितना विस्तृत है। लेकिन सच्चाई कुछ और है। सिर्फ 10 जातियां मिलकर बिहार की पूरी आबादी का 50 प्रतिशत हो जाती हैं। अगर टॉप 26 जातियों को मिला दिया जाए तो यह आंकड़ा 80 प्रतिशत तक पहुंच जाता है। बिहार कास्ट सर्वे बताता है कि प्रदेश की 198 उप-जातियां ऐसी हैं जिनकी आबादी 1 प्रतिशत से भी कम है।
बिहार की जातीय जनगणना की रिपोर्ट की सबसे बड़ी बात यह है कि प्रदेश में सबसे बड़ी आबादी यादवों की है। यूं तो हमेशा से माना जाता रहा है कि बिहार में यादवों की जनसंख्या अच्छी-खासी है, लेकिन ताजा सर्वे रिपोर्ट से साफ हो गया है कि 15 प्रतिशत के साथ यादव न केवल हिंदुओं की सभी अगड़ी जातियों को मिलाकर बनी 10.6 प्रतिशत हिस्सेदारी से भी आगे हैं बल्कि 17.7 प्रतिशत वाली मुसलमान और 19.7 प्रतिशत वाली अनुसूचित जाति एससी के आसपास हैं। ऐसी और तुलना करें तो यादवों की आबादी, पिछड़े वर्ग की सभी जातियों की कुल जनसंख्या से ज्यादा है। बिहार में आबादी के लिहाज से दूसरे स्थान पर दुसाध जबकि तीसरे स्थान पर चमार हैं। ये दोनों उप-जातियां अनुसूचित जाति वर्ग की हैं। उनके बाद नंबर पिछड़े वर्ग में शामिल कोयरी कुशवाहा का आता है।
बिहार की जातीय जनगणना से निश्चित तौर पर 1931 की जनगणना के बाद पहली बार जाति आधारित आबादी के आंकड़े मिले हैं। हालांकि, इससे यह भी पता चल गया है कि सामाजिक-आर्थिक स्तर पर अन्य पिछड़ा वर्ग ओबीसी के अंदर की जातियों के बीच आबादी के लिहाज से बहुत बड़ा गैप है। बिहार में ओबीसी दो वर्गों, पिछड़ा वर्ग और अत्यंत पिछड़ वर्ग में विभाजित है। पीएलएफएस जैसे स्रोतों से प्राप्त आंकड़े बताते हैं कि उपभोग के आधार पर ओबीसी जातियों के बीच बहुत बड़ा अंतर है। 215 उप-जातियों को शामिल किया गया। इससे लग सकता है कि प्रदेश में सामाजिक फैलाव का दायरा कितना विस्तृत है। लेकिन सच्चाई कुछ और है। सिर्फ 10 जातियां मिलकर बिहार की पूरी आबादी का 50 प्रतिशत हो जाती हैं। अगर टॉप 26 जातियों को मिला दिया जाए तो यह आंकड़ा 80 प्रतिशत तक पहुंच जाता है। बिहार कास्ट सर्वे बताता है कि प्रदेश की 198 उप-जातियां ऐसी हैं जिनकी आबादी 1 प्रतिशत से भी कम है।इसलिए अब जरूरी है कि ओबीसी की किन उप-जातियों की आर्थिक हैसियत कैसी है, इसका पता चले। आखिर तभी तो सामाजिक न्याय का मूल मकसद पूरा हो सकेगा। सवाल है कि क्या ऐसा होने वाला है या फिर पिछड़ों-दलितों की राजनीति करने वाले नेता और दल कुल 63% ओबीसी की रट लगाकार अब तक की सड़ी-गली सियासत को ही आगे बढ़ाएंगे?