एक ऐसा समय भी था जब भारत का इसराइल ने कभी साथ नहीं छोड़ा! इतिहास गवाह है। इजरायल के लिए भारत कभी नहीं खड़ा हुआ। इसके उलट जब-जब भारत को जरूरत पड़ी इजरायल ने दोनों हाथों से उसकी मदद की। 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ। कूटनीतिक स्तर पर उसके सामने सबसे पहली चुनौती कुछ ही महीनों में आ गई। यह थी फिलिस्तीन विभाजन की। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में भारत ने 29 नवंबर, 1947 को फिलिस्तीन के विभाजन पर संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव के खिलाफ मतदान किया। नेहरू का रुख नैतिक और भूराजनीतिक दोनों पर आधारित था। यहां उन्होंने महात्मा गांधी की बात मानी थी। गांधी के अनुसार, फिलिस्तीन अरबों का था। ठीक वैसे ही जैसे इंग्लैंड अंग्रेजों या फ्रांस फ्रांसीसियों का था। नवंबर 1938 में हरिजन में उनके लेख में इसके बारे में कहा गया था। इजरायल 14 मई, 1948 को अस्तित्व में आया। कुछ ही समय बाद इसने भारत सहित तमाम देशों को चिट्ठी भेजकर यहूदी राष्ट्र को मान्यता देने का अनुरोध किया था। हालांकि भारत ने शुरू में इसका जवाब नहीं दिया। 17 सितंबर, 1950 को उसने औपचारिक रूप से इजरायल को मान्यता दी। ऐसा भी तब हुआ जब तुर्किये जैसे मुस्लिम देशों तक ने 1949 में ही इजरायल का मान्यता दे दी। जिस इजरायल के जन्म तक का भारत ने विरोध किया। संयोग देखिए कि वही हर मुसीबत में भारत के साथ खड़ा रहा।7 अक्टूबर को हमास के हमले के बाद पहला मौका था जब भारत ने इजरायल का खुला समर्थन किया। नेहरू का इजरायल के साथ पहला पत्राचार 1962 में हुआ था। तब उन्होंने चीन के साथ युद्ध के दौरान इजरायली प्रधानमंत्री डेविड बेन-गुरियन को चिट्ठी लिखी थी। नेहरू ने इजरायल से हथियारों और गोला-बारूद के रूप में सहायता मांगी थी। यह इस शर्त के साथ मांगी गई थी कि अरब देशों के साथ भारत के संबंधों को तनावपूर्ण होने से बचाने के लिए इन्हें इजरायली झंडे के बिना भेजा जाएगा। बेन-गुरियन ने भारत की स्थिति के प्रति सहानुभूति जताते हुए ऐसी शर्त के साथ सहायता देने से मना कर दिया था। जब भारत इजरायली झंडे वाले शिपमेंट को स्वीकार करने के लिए तैयार हुआ तभी उसने रणनीतिक स्तर पर भारत के साथ जुड़ना शुरू किया।
1971 में पाकिस्तान के साथ युद्ध के दौरान भारत को फिर से इसरायल के पास जाने के लिए मजबूर होना पड़ा। अमेरिका ने पाकिस्तान को अपना समर्थन दिया था। इसके बावजूद इजरायल ने मदद के लिए भारत के आह्वान का जवाब दिया। इतिहासकार श्रीनाथ राघवन ने अपनी पुस्तक ‘1971: ए ग्लोबल हिस्ट्री ऑफ द क्रिएशन ऑफ बांग्लादेश’ में लिखा है कि इजरायल खुद हथियारों की कमी का सामना कर रहा था। भारत को सीधे हथियारों की आपूर्ति करने में वह असमर्थ था। लेकिन, इजरायली प्रधानमंत्री गोल्डा मेयर ने सिर्फ एक अनुरोध के साथ ईरान जाने वाली खेप का रुख भारत की ओर कर दिया। अनुरोध यह था कि हथियारों के बदले में भारत राजनयिक संबंध स्थापित करेगा।
हालांकि, 1971 में इजरायल की मदद के बावजूद इंदिरा गांधी के नेतृत्व में भारत फिलिस्तीनी मुद्दे का कट्टर समर्थक बना रहा। इंदिरा गांधी सरकार ने लगातार फिलिस्तीनियों के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन किया। इजरायली कब्जे की निंदा की। टू-स्टेट सॉल्यूशन की वकालत की। 1974 में भारत ने आधिकारिक तौर पर यासर अराफात के नेतृत्व वाले फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन पीएलओ को फिलिस्तीनी लोगों के एकमात्र और वैध प्रतिनिधि के रूप में मान्यता दी। अराफात के इंदिरा गांधी के साथ गहरे संबंध थे। अराफात उन्हें ‘मेरी बहन’ कहकर बुलाते थे। बाद में वह फिलिस्तीनी अथॉरिटी के अध्यक्ष बने।
3 मई, 1999 को भारत को जम्मू-कश्मीर के कारगिल-द्रास सेक्टर में पाकिस्तानी सैनिकों की घुसपैठ के बारे में पता चला। तीन सप्ताह बाद जवाब में ऑपरेशन विजय शुरू किया गया। हालांकि, पुराने सैन्य और तकनीकी उपकरणों से भारतीय रक्षा बलों को बंकरों में छिपे पाकिस्तानी सैनिकों का पता लगाना और उन पर हमला करना मुश्किल था। भारत ने मदद की गुहार लगाई। लेकिन, 1998 में परमाणु परीक्षण के कारण उसे अमेरिका के नेतृत्व वाले देशों की ओर से तकनीकी, आर्थिक और हथियार प्रतिबंध का सामना करना पड़ रहा था। भारत के समर्थन में सिर्फ एक ही देश खुलकर सामने आया। वह था इजरायल। अमेरिका का सहयोगी होने के बावजूद इजरायल ने भारत को मोर्टार और गोला-बारूद से मदद की। यहां तक कि भारतीय वायु सेना को उसके मिराज 2000H लड़ाकू जेट के लिए लेजर-डायरेक्टेड मिसाइलें भी दीं। इजराइल को भारत को रक्षा उपकरणों की खेप भेजने में देरी करने के लिए अमेरिका और अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने दबाव भी बनाया था। लेकिन, इजरायल ने आगे बढ़कर जरूरी हथियार समय पर पहुंचा दिए। इतना ही नहीं, इजरायल ने पाकिस्तानी सेना के रणनीतिक ठिकानों का पता लगाने के लिए अपने सैन्य उपग्रहों से तस्वीरें भी उपलब्ध कराईं।