वर्तमान में नीतीश कुमार सियासत के कठिन दौर से गुजर रहे हैं! बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने राजनीतिक जीवन के सबसे कठिन दौर से गुजर रहे हैं। कभी बीजेपी तो कभी आरजेडी की गोद में बैठक कर मुख्यमंत्री के पालने में बेखटके झूलते रहने वाले नीतीश कुमार के सामने विकट स्थिति पैदा हो गई है। इंडी अलायंस में उनकी छीछालेदर जितनी हो रही है, वैसे दिन तो एनडीए के साथ वर्षों गुजारने पर भी उन्हें देखने को नहीं मिले थे। पश्चाताप भी अब उन्हें वह रुतबा नहीं लौटा सकता, जैसा उन्हें एनडीए में हासिल था। नरेंद्र मोदी को पीएम बनने के पहले और बाद में भी चुनौती देकर वे एनडीए में उतना अपमानित नहीं हुए, जितना इंडी अलायंस बना कर उन्हें जलील होना पड़ रहा है। पूर्व सीएम जीतन राम मांझी छह माह पहले तक नीतीश के ही साथ रहे। नीतीश कुमार ने ही उन्हें सीएम बनाया था। उन्होंने इसका जिक्र भी अपने अंदाज में विधानसभा में किया था। उनके उस अंदाज की चौतरफा आलोचना भी हुई थी। मांझी कहते हैं कि नीतीश कुमार रंग बदलते रहते हैं। आगे भी वे रंग बदलें तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। मांझी कहते हैं कि नीतीश कुमार की नीयत ही ऐसी रही है कि वे समय-समय पर अपना रंग बदलते रहते हैं। अभी जैसी परिस्थिति उनके सामने है, मैं ऐसा समझता हूं कि आज उनकी न आरजेडी में कोई पैठ रह गई है और न एनडीए में वापसी का नैतिक साहस ही बचा है। उन्हें खुद नहीं समझ आ रहा कि वे क्या करें। ऐसे में वे कोई भी कदम उठा सकते हैं।
नीतीश कुमार की पहचान उनकी ईमानदारी, उनके गवर्नेंस और कामकाज के तरीके से एक गंभीर राजनीतिज्ञ के रूप में रही है। उन्हें गठबंधन चलाने का भी व्यापक अनुभव है। इसलिए 2005 से अब तक उनकी सियासत गठबंधन की ही रही है। दूसरे नेताओं की तरह उन पर परिवारवाद या वंशवाद का ठप्पा भी नहीं लगा है। गठबंधन की राजनीति में वह पारंगत हैं। इसके बावजूद उनका अपनी रणनीति के हिसाब से इधर-उधर आते-जाते रहना, अब उनके लिए खतरनाक साबित हो रहा है। कभी एनडी तो कभी महागठबंधन की उनकी आवाजाही अब उनके ही गले की हड्डी बन गई है। एनडीए में रहते बीजेपी के नेता भी उनसे मिलते थे। सुशील कुमार मोदी तो शुरू से ही रिश्ता टूटने तक उनके डेप्युटी सीएम रहे। इंडी अलायंस में आने के बाद उन्हें जरूर इस बात का एहसास हो रहा होगा कि आरजेडी या कांग्रेस के नेता उन्हें घास भी नहीं डालते। जीतन राम मांझी की जुबानी यह भी सुनने को आया है कि दिल्ली में अपने डेप्युटी सीएम तेजस्वी यादव से उन्होंने मिलने की कोशिश की, पर उन्होंने मिलने से इनकार कर दिया।
नीतीश के सामने दूसरा बड़ा संकट यह है कि एनडीए में उनकी वापसी का दरवाजा बीजेपी ने बंद कर दिया है। हालांकि बीजेपी को नीतीश कुमार जैसे सहयोगी की सख्त जरूरत है। बीजेपी अभी तमाशा देखने के मूड में है। नीतीश बीजेपी से सौदेबाजी करते रहे। सीएम की कुर्सी पर दावेदारी उस वक्त भी नहीं छोड़ी, जब उन्हें बीजेपी से कम सीटें विधानसभा में मिलीं। बीजेपी की नीतियों की आलोचना करने का कोई मौका नीतीश ने नहीं छोड़ा। इसके बावजूद बुरे दिन में बीजेपी ने ही उनका साथ दिया। वह चाहे 2005 हो या 2017, नीतीश ने उन्हें संकट से उबारने में बड़ी भूमिका निभाई। इसके बावजूद उन्होंने 2022 में बीजेपी का साथ छोड़ दिया और उसी के खिलाफ विपक्षी दलों की गिरोहबंदी शुरू कर दी।
यह भी सच है कि नीतीश के सामने सरेंडर करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है। वे अब आरजेडी के आगे हथियार डाल दें या बीजेपी के सामने सरेंडर करें। बीजेपी उन्हें अपना सकती है, लेकिन अपनी शर्तों पर। शर्तें उनके लिए टेढ़ी हो सकती हैं। मसलम सीएम पद का मोह त्यागें। वर्ष 2019 की तरह सीटों पर बारगेनिंग का तो सवाल ही नहीं उठता। इसके लिए बीजेपी इस बात का इंतजार करेगी कि उन्हें इंडी अलायंस में कितनी सीटें मिलती हैं। नीतीश के सामने एक और संकट है। वह है अपनी पार्टी को टूट से बचाए रखना। इंडी अलायंस में सीटें कम मिलीं तो जेडीयू में टूट का खतरा है। जेडीयू के कई सांसद नीतीश को यह बता चुके हैं कि एनडीए में उनकी जीत जितनी आसान थी, इंडी अलायंस में उतनी ही मुश्किल होगी। आरजेडी की ओर से विधायकों को तोड़ने का खतरा अलग मंडरा रहा है। कुल मिला कर नीतीश की हालत किंकर्तव्य विमूढ़ जैसी हो गई है। वे समझ नहीं पा रहे कि उनका अगला कदम क्या हो।