जब उच्चतम न्यायालय में पहली बार आया राम मंदिर का केस!

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एक ऐसा समय जब उच्चतम न्यायालय में पहली बार राम मंदिर का कैसे आया था! मुगल आक्रांता बाबर की सेना ने तो एक बार मेरी छाती को छलनी कर मेरे प्रभु रामलला के मंदिर को तहस- नहस किया। लेकिन, अगले 500 सालों तक सत्ता और राजनीतिक महत्वाकांक्षा की लड़ाई में बार- बार मेरी छाती पर घाव लगे। मेरे प्रभु के अस्तित्व पर ही सवाल उठाया गया। जिस राम का प्रवाह भारतीय संस्कृति की रग- रग में रक्त सा संचारित होता है, उस राम को कभी काल्पनिक तक करार दिया गया। मेरे प्रभु की जन्मस्थली को लेकर विवाद हुआ है। मैं देखती रही। सहती रही। चुपचाप खामोश। मुझे उम्मीद थी, समय का पहिया जरूर घूमेगा। वक्त कभी एक- सा तो नहीं रहता। मैं अयोध्या हूं और मैं आपको अपने भगवान राम के अस्तित्व की लड़ाई की कहानी सुनाती हूं। मंदिर- मस्जिद को लेकर जब अयोध्या की धरती लाल हुई तो भगवान को कानूनी मदद पहुंचाने का प्रयास शुरू हुआ। भगवान राम के नाम पर रामलला विराजमान खुद कोर्ट पहुंचे। केस दायर किया। अपनी जन्मभूमि की जमीन पर हक हासिल करने की कानूनी लड़ाई। लेकिन, क्या आपको पता है कि राम के नाम पर कानूनी लड़ाई कब शुरू हुई थी। स्वतंत्र भारत में 1950 में। लेकिन, इससे 65 साल पहले 1885 में फैजाबाद कोर्ट में एक और केस दायर हुआ था।  मेरे प्रभु श्री राम के नाम पर 1853 में पहली बार अयोध्या की धरती लाल हुई। राम जन्मभूमि को गिराने पहुंचे हिंदुओं और मुस्लिम समुदाय की हिंसक झड़प हुई। इस प्रकार की झड़प अगले पांच साल चलती रही। 1859 में ब्रिटिश सरकार ने विवाद का हल निकालने की कोशिश की। राम जन्मभूमि विवाद को शांत करने के लिए मस्जिद के सामने एक दीवार बना दी गई। परिसर के भीतरी हिस्से में मुसलमानों और बाहरी हिस्से में हिंदुओं को प्रार्थना करने की अनुमति दी गई। हिंदू पक्ष इस बंटवारे से सहमत नहीं था। हिंदू साधु बाबरी मस्जिद के मुख्य गुंबद के नीचे राम की जन्मस्थली बताकर उस पर अपने अधिकार का दावा करते रहे। 1885 में हिंदू साधु महंत रघुवर दास ने इस विवाद का कानूनी हल निकालने की कोशिश शुरू की। वे फैजाबाद कोर्ट पहुंचे। बाबरी मस्जिद पर हिंदुओं के अधिकार का दावा किया।

1528 में मुगल सिपहसालार मीरबाकी के मस्जिद बनाने के 330 साल बाद 1858 में मामला लड़ाई कानूनी हो गई। पहली बार बाबरी परिसर में हवन और पूजन करने के लिए प्राथमिकी दर्ज की गई। अवध के थानेदार शीतल दुबे को दर्ज एफआईआर का जांच अधिकारी बनाया गया। अयोध्या रिविजिटेड किताब में इस घटना का जिक्र किया गया है। किताब में जिक्र किया गया है कि 1 दिसंबर 1858 को थानेदार शीतल दुबे ने अपनी रिपोर्ट दी। इसमें लिखा गया कि विवादित परिसर में चबूतरा बना हुआ है। यह पहला कानूनी दस्तावेज है, जिसमें बाबारी परिसर के भीतर प्रभु रामलला के प्रतीक होने के प्रमाण मिलते हैं। अंग्रेजी सरकार ने इस रिपोर्ट के आधार पर विवादित भाग को दो भागों में बांट दिया। विवादित भूमि के आंतरिक परिसर में मुस्लिमों और बाहरी परिसर में हिंदुओं को इबादत का अधिकार दिया गया।

बाबरी परिसर को दो भाग में बांटने के 27 साल बाद 1885 में राम जन्मभूमि की लड़ाई कोर्ट पहुंच गई। निर्मोही अखाड़े के मंहत रघुबर दास ने फैजाबाद कोर्ट में स्वामित्व को लेकर दीवानी मुकदमा दायर किया। महंत दास ने बाबरी ढांचे के बाहरी आंगन में स्थित राम चबूतरे पर बने अस्थायी मंदिर को पक्का बनाने की मांग की। इस पर छत डालने की अर्जी दी गई। जज इस मामले में फैसला सुनाया कि वहां हिंदुओं को पूजा- अर्चना का अधिकार है। हालांकि, कोर्ट ने अपने आदेश में साफ किया कि डीएम के फैसले के खिलाफ मंदिर को पक्का बनाने और छत डालने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।

कोर्ट के फैसले से निराश हिंदू पक्ष सड़क पर इंसाफ पाने की कोशिश में जुटा। आजादी की लड़ाई के बीच 1934 में मेरे दर पर एक बार फिर घमासान हुआ। करीब 40 हजार हिंदू जुटे। मस्जिद को तोड़कर मंदिर बनाने की नीयत से यह भीड़ आई थी। मस्जिद पर हमला हुआ। तीनों गुंबद तोड़ दिए गए। अंग्रेजी सरकार को जैसे ही इस हमले की जानकारी मिली। फैजाबाद प्रशासन की मदद से भीड़ को हटाया गया। इसके बाद तोड़े गए गुंबद की मरम्मत फैजाबाद डीएम ने करवा दिया। इसके बाद 1949 में रामलला बाबरी मस्जिद के मुख्य गुंबद के नीचे प्रगट हो गए। इस बार फैजाबाद डीएम के असहयोग के कारण रामलला को मस्जिद से बाहर निकाला जाना संभव नहीं हुआ। हालांकि, डीएम के सुझाव पर केंद्र की जवाहरलाल नेहरू और यूपी की गोविंद वल्लभ पंत सरकार ने रामलला को सींखचों में कैद कर दिया।

रामलला अपने जन्मस्थान तक तो पहुंच चुके थे, लेकिन बेड़ियों में कैद थे। सामान्य भक्त की पहुंच से दूर। मेरे प्रभु के दर्शन करने वाले वाले भक्तों को यह अखड़ने लगा। देश में संविधान लागू हुआ तो सभी धर्म के लोगों को अपने- अपने आराध्य की अराधना का अधिकार दिया गया। हिंदू पक्ष अपने भगवान की पूजा का अधिकार चाहता था। उनके दर्शन करना चाहता था। केंद्र और यूपी सरकार किसी प्रकार का विवाद नहीं होने देना चाहती थी। ऐसे में आजाद देश में पहली बार मेरे राम एक बार फिर कोर्ट पहुंचे। रामलला विराजमान की ओर से 16 जनवरी 1950 को गोपाल सिंह विशारद ने सिविल जज, फैजाबाद कोर्ट में अपील दायर की। याचिका में भगवान राम की पूजा की इजाजत मांगी गई। करीब 11 माह बाद 5 दिसंबर 1950 को महंत रामचंद्र दास ने मस्जिद में हिंदुओं की ओर से पूजा जारी रखने की याचिका दायर की। इसी दौरान पहली बार बाबरी मस्जिद को ढांचा कहकर संबोधित किया गया। 3 मार्च 1951 को गोपाल विशारद केस में कोर्ट ने मुस्लिम पक्ष को पूजा- अर्चना में बाधा न डालने की हिदायत दी। इसी प्रकार का आदेश महंत दास की याचिका पर भी दिया गया।

धर्मो रक्षति रक्षित: यानी जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है, सूत्र वाक्य के साथ एक संगठन अस्तित्व में आया। इसका नाम रखा गया विश्व हिंदू परिषद। हिंदुत्व की विचारधारा के साथ इस संगठन ने अपना विस्तार शुरू किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अनुसांगिक इकाई के तौर पर इसकी पहचान बनी। बाद में विश्व हिंदू परिषद ने अपनी पहचान अलग संगठन के तौर पर बनाई। वर्ष 1964 में विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना हुई। इसके संस्थापकों में स्वामी चिन्मयानंद, एसएस आपटे, मास्टर तारा सिंह शामिल थे। 21 मई 1964 में मुंबई के संदीपनी साधनाशाला में वीएचपी का पहला सम्मेलन हुआ।

आरएसएस सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर ने यह बैठक बुलाई थी। सम्मेलन में हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध के प्रतिनिधियों की मौजूदगी थी। गोलवलकर ने इस सम्मेलन में सभी मतों के लोगों को एकजुट होने की बात ही। हिंदू को सभी धर्मों से ऊपर करार दिया। इसक हिंदुस्तानियों के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्द से जोड़ा। वर्ष 1966 में प्रयाग के कुंभ मेले में विश्व सम्मेलन के साथ इसका स्वरूप सामने आया। इस गैर राजनीतिक संगठन का मुख्य उद्देश्य हिंदू समाज को मजबूत करना था। राम मंदिर का मुद्दा जब गरमाने लगा तो वीएचपी ने इसे टेकओवर किया। इसके बाद से यह संगठन आज तक राम मंदिर से जुड़ा हुआ है।