जब कारसेवकों पर हुई दनादन गोलीबारियाँ!

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एक ऐसा समय जब कारसेवकों पर दनादन गोलीबारियाँ की गई! 1853, 1858 से 1934 और 1949 का वक्त भी जिया। लेकिन, 90 के दशक ने मेरी धरती को राजनीति का केंद्र बिंदु बना दिया। राजीव गांधी जिस सॉफ्ट हिंदुत्व की विचारधारा के साथ हिंदू और मुस्लिम वर्ग के बीच संतुलन बनाने का प्रयास कर रहे थे। राजनीति कहीं उससे काफी आगे बढ़ चुकी थी। देश की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी ने राजीव के छोड़े गए हिंदुत्व की डोर को थामा और मंदिर आंदोलन के मुद्दे को जन-जन तक पहुंचाने की रणनीति पर काम शुरू कर दिया। लालकृष्ण आडवाणी सोमनाथ से राम मंदिर का रथ लेकर निकाले थे। उनके रथ को बिहार के समस्तीपुर में लालू प्रसाद यादव ने रोक दिया। अयोध्या पहुंचने से पहले रथ यात्रा रुक चुकी थी। वैदिक काल में अश्वमेध यज्ञ की परंपरा थी। इसमें यज्ञ कराने वाला राजा घोड़े छोड़ता था और अगर कोई राजा उसे पकड़ता तो अश्वमेध यज्ञ करने वाले राजा से उसे युद्ध करना होता था। रामायण काल में भगवान राम के अश्वमेध यज्ञ का जिक्र आता है। उनके छोड़े घोड़े को उनके ही वन में रह रहे पुत्रों लव और कुश ने पकड़ा था। इस घोड़े को छुड़वाने के लिए प्रभु राम को स्वयं अपने पुत्रों से युद्ध करने मैदान में उतरना पड़ा। हालांकि, अब राजतंत्र नहीं था। भाजपा केंद्र की सत्ता में साझीदार थी। मतलब पावर में थी। अश्वमेध यज्ञ की तरह उनका रथ देश के तमाम हिस्सों से होते 30 अक्टूबर को अयोध्या पहुंचनी थी। लालू यादव ने 23 अक्टूबर 1990 को ही आडवाणी की गिरफ्तारी के साथ रथ रोक दिया। इसके बाद युद्ध यानी आक्रोश का प्रदर्शन तय था। लालू के रथ रोकने के कदम को चैलेंज माना गया। हालांकि, जिस हिंदुत्व के एजेंडे को सेट करने के लिए यह रथ यात्रा निकली थी, वह आडवाणी की 2गिरफ्तारी से पूरा होता दिखा। विश्व हिंदू परिषद ने अयोध्या में मैदान सजा रखा था। आजाद देश में सबसे बड़ी कारसेवा का ऐलान किया गया था। वहीं, यूपी की मुलायम सिंह यादव की सरकार किसी भी स्थिति में कारसेवा को पूरी नहीं होने देना चाहती थी। यह मेरे प्रभु राम के मंदिर आंदोलन के लंका कांड की शुरुआत थी।

बिहार में लालू सरकार ने राम मंदिर रथ यात्रा को रोक कर मंदिर आंदोलन को बाधित करने का संदेश दिया। वहीं, यूपी की मुलायम सरकार ने दावा किया कि 30 अक्टूबर 1990 को प्रस्तावित कारसेवा को किसी भी स्थिति नहीं होने दिया जाएगा। यहां कारसेवा के मतलब को समझ लेना आवश्यक है। दरअसल, राजीव सरकार ने 1989 में विश्व हिंदू परिषद को राम मंदिर का शिलान्यास करने की अनुमति दे दी थी। यह मंदिर आंदोलन का सबसे अहम पड़ाव था। एक प्रकार से राजीव सरकार ने मंदिर के अस्तित्व को मान्यता दे दी थी। लेकिन, विवादित स्थल खड़ा था। वहां जर्जर मस्जिद थी। इसमें हर शुक्रवार को जुमे की नमाज पढ़ी जाती थी। हिंदू पक्ष यहां पर मंदिर बनाने की योजना तैयार कर रहा था। इसी मंदिर निर्माण के लिए कारसेवा होनी थी। बाहर में अंग्रेजों के जमाने में निर्धारित राम चबूतरे से निर्माण कार्य शुरू किया जाना था, लेकिन तत्कालीन केंद्र की वीपी सिंह और यूपी की मुलायम सिंह सरकार विवादित स्थल पर किसी प्रकार का निर्माण नहीं होने देना चाहती थी।

विश्व हिंदू परिषद ने रामभक्तों को जुटाकर सरकार पर दबाव बढ़ाने की योजना पर काम शुरू किया। सितंबर 1990 में विश्व हिंदू परिषद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और शिवसेना की ओर से मंदिर पुननिर्माण के लिए आंदोलन चलाया। अब हिंदुओं के भीतर भी मंदिर को एक अलग भाव पैदा होने लगा। लोग सवाल करने लगे कि हमारी आस्था की कद्र सरकारें क्यों नहीं कर रही हैं? जवाब कहीं से नहीं मिल रहा था। वीएचपी, आरएसएस और भाजपा लगातार लोगों को अयोध्या में जुटकर अपने भगवान को जनमानस के सामने लाने की अपील कर रहे थे। 30 अक्टूबर 1990 को आडवाणी की रथ यात्रा अयोध्या पहुंचनी थी। लेकिन, पहले ही आडवाणी गिरफ्तारी के साथ राम मंदिर रथ रुक चुका था। विश्व हिंदू परिषद का अभियान जारी था। अयोध्या में रामभक्तों का जुटान होने लगा। भारतीय जनता पार्टी के सीनियर नेता लालकृष्ण आडवाणी और विश्व हिंदू परिषद के नेता अशोक सिंघल ने रामभक्तों को अयोध्या पहुंचने का आह्वान किया। देशभर में इसको लेकर हलचल तेज हो गई। उस समय यूपी में मुलायम सिंह यादव सरकार थी। मुलायम सरकार ने विवादित परिसर की सुरक्षा का वादा किया। बाबरी मस्जिद परिसर और अयोध्या शहर को सुरक्षा बलों के हवाले दे दिया गा। मुलायम ने साफ कहा था कि अयोध्या में कोई परिंदा भी पर नहीं मार सकता है। मुलायम के दावों पर रामभक्तों का जोश उबाल मार रहा था। हर रामभक्त प्रभु रामलला के मंदिर निर्माण का संकल्प लेकर घर से निकलने लगा। पहली बार देशभर से 21 अक्टूबर 1990 से अयोध्या में रामभक्त कारसेवकों का जुटान शुरू हुआ। हर दिन के साथ उनकी संख्या बढ़ रही थी। कारसेवा की तिथि पहले से 30 अक्टूबर निर्धारित थी।

एक्शन डे यानी 30 अक्टूर 1990 को लेकर रामनगरी में सुरक्षा व्यवस्था अभूतपूर्व की गई थी। पुलिस ने अयोध्या के लिए सभी बस और ट्रेन सेवाओं पर रोक लगा दी थी। सीमाओं को सील कर दिया गया। कारसेवकों को किसी भी स्थिति में अयोध्या नहीं पहुंचने देने की कोशिश सरकार के स्तर पर की गई। ऐसे में अधिकांश कारसेवक पैदल ही अयोध्या की तरफ कूच कर गए। एक रिपोर्ट तो यहां तक दावा करती है कि कई कारसेवक तो सरयू की तेज धार को तैरकर अयोध्या पहुंच गए थे। यूपी पुलिस ने विवादित ढांचे की करीब डेढ़ किलोमीटर पहले से बैरिकेडिंग लगा दी। शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया। अयोध्या में अब एक्शन डे आ गया था। कारसेवा की शुरुआत 30 अक्टूबर 1990 सुबह 10 बजे से हुई। सुबह 10 बजे महंत नृत्य गोपाल दास और विश्व हिंदू परिषद के अशोक सिंघल कारसेवकों के एक बड़े समूह के साथ विवादित स्थल की तरफ बढ़े। पुलिस ने कारसेवकों को रोकने की कोशिश की। लेकिन, कारसेवक आगे बढ़ते रहे। इसी दौरान लाठीचार्ज का आदेश दे दिया गया। कारसेवकों पर लाठियां बरसने लगी। एक लाठी अशोक सिंघल के सिर पर लगी। उनके सिर में चोट लगने की खबर कारसेवकों के बीच आग की तरफ फैली और वे उग्र हो गए। इसके बाद पुलिसकर्मियों और कारसेवकों के बीच भिड़ंत शुरू हो गई। करीब एक घंटे तक अयोध्या में युद्ध जैसी स्थिति बनी रही। सुबह करीब 11 बजे पुलिस और कारसेवकों के बीच भिड़ंत के बीच एक साधु ने कॉन्स्टेबलों की एक बस को अपने नियंत्रण में ले लिया।

आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर ले जाने के लिए यह बस वहां खड़ी की गई थी। कारसेवकों को गिरफ्तार कर इसमें रखा जा रहा था। पुलिस ने राम जन्मभूमि रोड पर बैरिकेडिंग कर रखी थी। साधु ने बस को कब्जे में लेने के बाद तेज गति से आगे की तरफ भगाना शुरू कर दिया। सुरक्षाकर्मी जब तक कुछ समझते बस बैरिकेडिंग को तोड़ते हुए आगे की तरफ निकल गई। इससे अन्य लोगों के लिए पैदल चलने का रास्ता साफ हो गया। सुरक्षाकर्मी सतर्क थे। विवादित स्थल के पास भारी सुरक्षा बंदोबस्त थे। इसके बाद भी वहां तक करीब 5000 कारसेवक पहुंच चुके थे। पुलिस उनके पीछे-पीछे दौड़ रही थी। रुकने को कह रही थी। कारसेवक दौड़ते आगे बढ़ रहे थे।

रामभक्तों पर दो दिनों में दूसरी बार गोली चली। हनुमानगढ़ी से लेकर विवादित परिसर के बीच रामभक्तों को गोलियों से निशाना बनाया जाने लगा। फायरिंग शुरू होने के बाद कारसेवक इधर- उधर भागने लगे। सुरक्षा बलों के लिए आज कारसेवकों की जान लेना मकसद बन गया था। प्रत्यक्षदर्शियों का दावा है कि इस दिन हनुमानगढ़ी के आसपास की गलियां खून से लाल हो गई थी। नालियों में खून बह रहा था। सुरक्षाकर्मी इस भीड़ में 30 अक्टूबर को बाबरी मस्जिद पर भगवा झंडा फहराने वाले कोठारी बंधुओं को ढूंढ़ रहे थे। सुरक्षाबलों ने एक घर में छिपे कोठारी बंधुओं को खींचकर सड़क पर लाए। बीच सड़क पर उन्हें गोली मारे जाने का दावा प्रत्यक्षदर्शियों की ओर से किया जाता है।

कोठारी बंधुओं के अलावा जोधपुर के सेठाराम माली, गंगानगर के रमेश कुमार, फैजाबाद महावीर प्रसाद, अयोध्या के रमेश पांडेय, मुजफ्फरपुर के संजय कुमार, जोधपुर के प्रो. महेंद्रनाथ अरोड़ा, राजेंद्र धारकर, बाबूलाल तिवारी और एक अनाम साधु के इस घटना में मारे जाने का रिकॉर्ड मिलता है। हिंदू संगठनों का दावा है कि पुलिस ने उस दिन सैकड़ों कारसेवकों की हत्या की। कई शवों का अज्ञात स्थानों पर दाह संस्कार कराया। बड़ी संख्या में लाशों को बोरे में भरकर सरयू नदी में भी प्रवाहित करने का आरोप भी पुलिस पर है।

अयोध्या मंदिर आंदोलन में आज भी कोठारी बंधुओं का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। राजकुमार कोठरी और शरद कोठारी दो भाई थे। कलकत्ता में संघ से जुड़े हुए थे। वे आरएसएस की शाखाओं में शामिल होते थे। उन्होंने दूसरे साल तक का प्रशिक्षण लिया हुआ था। वीएचपी की 30 अक्टूबर की कारसेवा की घोषणा होते ही दोनों ने अयोध्या जाने की जिद शुरू कर दी। उनके पिता हीरालाल कोठारी ने दोनों भाइयों को भाग लेने की अनुमति दे दी। दिसंबर 1990 में उनकी बहन की शादी होने वाली थी। फिर भी दोनों भाई कारसेवा के लिए निकल पड़े। बहन को वादा किया कि शादी तक वापस आ जाएंगे। कोलकाता से वाराणसी पहुंचने पर उन्हें पता चला कि अयोध्या के लिए ट्रेन सेवा बंद है। रास्तों को बंद कर दिया गया है। दोनों ने टैक्सी ली और आजमगढ़ पहुंच गए। वहां से उन्होंने पैदल अयोध्या जाने का फैसला किया। करीब 200 किलोमीटर की पैदल यात्रा कर 30 अक्टूबर 1990 को दोनों भाई अयोध्या पहुंच गए। 30 अक्टूबर की कारसेवा में बाबरी पर भगवा फहरा कर वे सुर्खियों में आ गए।

2 नवंबर 1990 की कारसेवा में कोठारी बंधु दिगंबर अखाड़ा की तरफ से निकल रहे कारसेवकों के हुजूम में शामिल थे। दोनों भाई बजरंग दल के संस्थापक अध्यक्ष विनय कटियार के नेतृत्व में सड़क पर दोबारा उतरे। पुलिस ने इस दौरान कारसेवकों पर फायरिंग शुरू कर दी। दोनों भाई एक मकान में छिप गए। दावा किया जाता है कि एक पुलिस अधिकारी ने शरद कोठारी को घर से पकड़ लिया। सड़क पर खड़ाकर उन्हें गोली मार दी गई। बड़े भाई राजकुमार कोठारी उस समय शरद को बचाने के लिए दौड़े। उन्हें भी गोली मार दी गई। 4 नवंबर 1990 को दोनों भाइयों का सरयू तट पर अंतिम संस्कार किया गया। इस दौरान कारसेवकों की भारी भीड़ सरयू तट पर उमड़ी। इसी भीड़ में मुलायम सिंह यादव को मुल्ला मुलायम कहकर संबोधित किया गया था।