क्या गठबंधन करने से मायावती को डर लगता है?

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यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या गठबंधन करने से मायावती को डर लगता है या नहीं! बहुजन समाज पार्टी बीएसपी चीफ मायावती ने आज अपने जन्मदिन पर लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी के अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया। मायावती के इस ऐलान से कांग्रेस को तगड़ा झटका लगा है। देश की सबसे पुरानी पार्टी को आस थी कि मायावती I.N.D.I.A गठबंधन का हिस्सा होंगी। लेकिन मायावती ने न केवल अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान किया बल्कि समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव पर भी हमला किया। उन्होंने अखिलेश को गिरगिट की तरह रंग बदलने वाला बताया। बीएसपी सुप्रीम ने इसके अलावा दावा किया कि गठबंधन करने से बीएसपी को फायदा नहीं होता है और बाकी पार्टियों का वोट बीएसपी को ट्रांसफर नहीं होता है। तो क्या बीएसपी चीफ मायावती के वोट ट्रांसफर नहीं होने के दावे में सच है? आइए समझते हैं। गौरतलब है कि बीएसपी ने 1993 और 2019 में एसपी के साथ गठबंधन करके क्रमश: विधानसभा और लोकसभा का चुनाव लड़ा था। बीएसपी सबसे पहले सरकारी कर्मचारियों के संगठन के तौर पर शुरू हुआ था। बीएसपी के संस्थापक कांशीराम ने BAMCEF पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदाय कर्मचारी संघ का निर्माण किया था। धीरे-धीरे ये संगठन राजनीतिक पार्टी में बदलने लगा। 1982 में BAMCEF ने दलित शोषित समाज संघर्ष समिति DS-4 का गठन किया। बाद में यही आगे चलकर बीएसपी पार्टी बनी। बीएसपी का मकसद मुसलमानों और दलितों को एक करना था। लेकिन इस दल के साथ ओबीसी का साथ कभी नहीं रहा। यहां तक कि मुस्लिमों का समर्थन भी कभी खुलकर इस दल को नहीं मिला। मायावती के मुस्लिमों को भरोसेमंद नहीं बताने वाले बयान के बाद ये अल्पसंख्यक समुदाय बीएसपी से और बिदक गया था।

हालांकि बीएसपी 1987 में यूपी में तीन विधानसभा उपचुनाव में बड़ी बढ़त मिली और उसे 26.3 फीसदी वोट मिले। यही नहीं, बीएसपी ने आरएलडी और बीजेपी के वोट बैंक में सेंध लगा दी और उसके जीत का मार्जिन को 21.93 से घटाकर 0.70 फीसदी कर दिया। वहीं बीजेपी का विनिंग मार्जिन 9.86 से घटकर 0.20 फीसदी रह गया था। ये बीएसपी के उभार का ही परिणाम था कि जनता पार्टी के दिग्गज नेता रहे राम विलास पासवान को 1987 में हरिद्वार लोकसभा उपचुनाव में हार का सामना करना पड़ा था और वो अपनी जमानत तक नहीं बचा सके थे। हरिद्वार सीट से बीएसपी की तरफ से मायावती भी चुनाव लड़ी थीं। इस उपचुनाव में कांग्रेस कैंडिडेट राम सिंह 1 लाख 49 हजार 377 वोट लेकर 23 हजार 978 वोटों से जीत दर्ज की थी। दूसरे नंबर पर मायावती रही थीं और उन्हें 1 लाख 25 हजार 399 वो मिले थे। पासवान चौथे नंबर पर खिसक गए थे और उन्हें महज 34 हजार 225 वोट ही मिल पाए थे। यहां से बीएसपी के उभार की कहानी शुरू होती है।

अब मायावती के दावे के सच को भी जानने की कोशिश करते हैं। 1993 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद चुनाव होते हैं। एसपी और बीएसपी दोनों ने मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला किया। उसी समय ये मशहूर श्लोगन आया था कि ‘मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्री राम’। इन चुनावों में बीजेपी को हार मिलती है और एसपी-बीएसपी गठबंधन की सरकार बनती है। लेकिन अगर आंकड़े को देखो तो बीजेपी चुनाव भले ही हार गई थी लेकिन 1991 की तुलना में 31.45% 1993 में उसका वोट प्रतिशत लगभग 2 फीसदी बढ़कर 33.3% तक पहुंच गया था। इसके अलावा जिन सीटों पर बीजेपी के उम्मीद्वारों की जमानत जब्त हुई उसकी संख्या में भी कमी आई और वो घटकर आधा हो गया। 1991 में 41 सीटों पर पार्टी की जमानत जब्त हो गई थी जो 1993 में घटकर 20 हो गई थी। 1993 के चुनाव में एसपी और बीएसपी ने 176 सीटों पर जीत दर्ज की थी। एसपी को 109 और बीएसपी को 67 सीटें मिली थीं। एसपी का वोट शेयर 17.9% और बीएसपी की वोट शेयर 11.12% था। 1993 के यूपी विधानसभा चुनाव में एसपी और बीएसपी में वोट ट्रांसफर हुआ था। दोनों दलों के कैडर एक-दूसरे के कैंडिडेट को जीत दिलाने की पूरी कोशिश की। यानी पहले गठबंधन में तो दोनों दलों में जमकर वोट ट्रांफसर हुआ और यही वजह थी की राम लहर के बाद भी बीजेपी को यूपी में हार का सामना करना पड़ा था। हालांकि, राज्य में ये गठबंधन ज्यादा दिन तक नहीं चल पाया था।

2019 के लोकसभा चुनाव में एसपी-बीएसपी गठबंधन के कारण दोनों दलों को फायदा तो जरूर हुआ। इसमें सबसे ज्यादा फायदा बीएसपी को हुआ जो 2014 में शून्य सीट से बढ़कर 2019 में 10 सीट पर पहुंच गई। वहीं एसपी को कोई ज्यादा फायदा नहीं हुआ और उसे केवल 5 सीटों से ही संतोष करना पड़ा। बीएसपी की सीटों में बढ़ोतरी उसके खांटी माने जाने वाले वोटरों की वजह से माना गया। इस चुनाव में एक बात तो साफ रही की एसपी के वोटर्स बीएसपी की तरफ नहीं गए। वहीं बीएसपी के वोटर भी खुलकर एसपी की तरफ नहीं गए। मायावती ने इसके बाद बयान जारी कर कहा था कि एसपी के यादव समुदाय के वोटर्स ने बीएसपी का साथ नहीं दिया था। तो सवाल उठता है कि मायावती का ये दावा कितना सही है? इस बात की खोज करना तो बेहद मुश्किल है कि किसी समुदाय के वोटर ने किसी पार्टी को वोट दिया या नहीं।

बड़ा सवाल उठता है कि 2019 में बीएसपी ज्यादा सीटें कैसे जीत गई। तो इसका सीधा सा उत्तर है कि एसपी और बीएसपी का सीट शेयर की रणनीति। बीएसपी को वैसी सीटें मिलीं जहां एसपी और बीएसपी का वोट प्रतिशत बीजेपी के वोट प्रतिशत से ज्यादा थी। 2014 के लोकसभा चुनाव में एसपी और बीएसपी का संयुक्त वोट शेयर 2019 में जिन 38 सीटों पर बीएसपी चुनाव लड़ रही थी उनमें से 23 सीटों पर 60.5 प्रतिशत था। वहीं एसपी के 37 सीटों में से 18 पर दोनों दलों का संयुक्त वोट शेयर 48.6 प्रतिशत था। मामले में निश्चित तौर पर बीएसपी को फायदा हुआ। जबकि एसपी को गठबंधन से ज्यादा लाभ नहीं हुआ। दूसरी तरफ 2019 के चुनाव में एसपी और बीएसपी दोनों 2014 वाले वोट शेयर को बरकरार नहीं रख पाए।