Wednesday, February 5, 2025
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आखिर कैसी थी आयरिश आजादी की वो जंग?

आज हम आपको आयरिश आजादी की जंग के बारे में बताने जा रहे हैं! सन 1920 को कई मायनों में ताकतवर ब्रिटिश हुकूमत के दबदबे के अंत की शुरुआत का साल कहा जा सकता है। इसी साल अंग्रेजों के खिलाफ उसके दो अहम उपनिवेशों में इंकलाब का स्वर तेजी से उभरा। आयरलैंड और भारत में आजादी के आंदोलनों ने इस कदर जोर पकड़ा कि अंग्रेजी राज के लिए उस पर काबू पाना मुश्किल हो गया। आयरलैंड के लोग आजादी के लिए युद्ध का बिगुल बजा रहे थे, जबकि भारतीय असहयोग आंदोलन चलाने की तैयारी में थे। अंग्रेजों का सबसे बड़ा डर यह था कि उनके खिलाफ उठ रही ये आवाजें कहीं एक होकर ब्रिटिश साम्राज्य का अंत न कर दें। यही वजह है कि पंजाब में तैनात हुकूमत की फौज के आयरिश जवानों के एक बड़े जत्थे ने जब 1919 में जलियांवाला बाग में कत्लेआम के बाद शुरू हुए विद्रोह के स्वर में स्वर मिलाया तो, लंदन में बैठे अफसरों के पसीने छूट गए।

जिस घटना से ब्रिटिश हुक्मरान हिल गए, वह थी 1920 में भारत में तैनात कनॉट रेंजर्स की बगावत। आयरलैंड में तो इस बगावत का असर बाद तक कायम रहा, लेकिन भारत में यह तब भी ‘मामूली’ बात थी। यह और बात है कि अंग्रेजों के खिलाफ यह विद्रोह भारत भूमि पर ही हुआ। अंग्रेज सेंसरशिप की वजह से दुनिया से इस बगावत की खबर बहुत हद तक छुपा ले गए। लेकिन भारतीय इतिहासकारों ने भारत के आयरिश कनेक्शन पर खूब लिखा। मिसाल के लिए, गदर क्रांति, जिसे आयरिश-हिंदू-जर्मन या ऐनी लार्सन प्लॉट भी कहा जाता है और होम रूल आंदोलन। हालांकि पता नहीं क्यों, उन्होंने कनॉट रेंजर्स की बगावत पर कलम नहीं चलाई। आज तक यह साफ नहीं हुआ है कि बगावत करने वाले आयरिश पंजाब या किसी और इलाके के लोकल लीडर्स के संपर्क में आए या नहीं। लेकिन इनमें से कम-से-कम दो ने जालंधर से सोलन तक बगावत के दिनों में यात्रा की। स्थानीय बाजार से कपड़े खरीदे ताकि आयरिश झंडे बनाकर फहराए जा सकें। अंग्रेजों ने बगावत को कोर्ट-मार्शल और सजा-ए-मौत के जरिए निपटाया। आयरिश जवानों पर कई मुकदमे चले। जेम्स डेली नाम के आयरिश जवान को नवंबर की एक सर्द सुबह सोलन में गोली मार दी गई। उसकी उम्र 21 बरस थी। शुरू में कुल 14 लोगों के नाम सजा-ए-मौत का फरमान जारी हुआ। लेकिन मौत आई सिर्फ जेम्स के हिस्से। बाकियों को जेल में डाल दिया गया।

बगावत’ शब्द से ब्रिटिश भय खाते रहे हैं। खासतौर से भारत में हुए 1857 के विद्रोह से। इस विद्रोह ने दुनिया का सबसे ताकतवर साम्राज्य बनने के उनके मंसूबों को भी खतरे में डाल दिया था। 18वीं सदी के ढलते वर्षों में एक कामयाब सशस्त्र विद्रोह के बाद अंग्रेज अमेरिकी उपनिवेश पहले ही गंवा चुके थे। कनॉट रेंजर्स की फर्स्ट बटालियन के करीब 400 जवानों ने उस वक्त ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जालंधर और सोलन में विद्रोह का झंडा बुलंद किया, जिस वक्त महात्मा गांधी भारत में पहला असहयोग आंदोलन चलाने की योजना बना रहे थे। तब जालंधर और सोलन पंजाब सूबे में आते थे। विडंबना यह थी कि कुछ महीने पहले तक इस राज्य के लेफ्टिनेंट गवर्नर एक आयरिश माइकल-ओ-ड्वॉयर हुआ करते थे। इन्हें साल भर पहले यानी 1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड को अंजाम देने वाले जनरल रेजिनल्ड डायर का बचाव करने के लिए कुख्याति मिली। जब कनॉट रेंजर्स ने विद्रोह किया, तो पूरे सूबे में मार्शल लॉ लागू कर दिया गया।

कनॉट रेंजर्स के विद्रोह के सौ बरस बाद आयरिश और भारतीय आखिरकार साथ आए और उन्होंने एक-दूसरे को जोड़ने वाले इतिहास के इस धागे का ओर-छोर ढूंढना शुरू किया है। उनका फोकस खास तौर पर 1920 की बगावत से जुड़े हालात और घटनाओं पर है। इसके तहत कुछ समय पहले एक वेबिनार का आयोजन किया गया, जिसका नाम था, ‘इंडिया, आयरलैंड ऐंड वर्ल्ड वॉर 1 : द कनॉट रेंजर्स 1920 म्यूटिनी ऐंड इट्स सोशियो-पॉलिटिकल डायमेंशंस’।

JNU के इतिहास विभाग और आयरिश दूतावास ने डेली की कुर्बानी के शताब्दी-स्मरण के तौर पर यह वेबिनार रखा। इसमें आयरलैंड के संदर्भ में बगावत की कहानियों और इसके असर पर चर्चा हुई। यह भी पता चला कि आयरिश समाज आज भी इस मुद्दे पर दो धड़ों में बंटा है। एक मानता है कि यह बगावत देश के मुक्ति-संघर्ष से जुड़ी थी। दूसरा इसे स्थानीय विद्रोह करार देता है। उसे लगता है कि इस बगावत को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है ताकि शहीद के दर्जे के साथ पेंशन और दूसरी सहूलियतें मिलें।

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