अब बीजेपी में नीतीश की तरह और भी कई बड़े नेता शामिल हो सकते हैं! 1857 का विद्रोह, खासकर छावनियों में सिपाहियों का विद्रोह, ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए आश्चर्यचकित करने वाला था। अंग्रेज अधिकारियों को भले ही उत्तर और मध्य भारत के गांवों में रहस्यमय चपाती बंटने की खबरें मिली थीं, लेकिन वो इसका सही मतलब नहीं समझ सके। इसकी वजह साफ है। ब्रिटिश साम्राज्य के छावनियों और तीन प्रेसीडेंसी शहरों में एक अलग भारत रहता था। लेकिन वहीं पास ही एक देसी भारत था जिसका अपना अलग नजरिया था। एक तरफ ब्रिटिश शासन को तरक्की की निशानी माना जाता था, तो दूसरी तरफ फिरंगियों को स्वदेशी परंपराओं और संस्थानों को अपमानित करने वाले के रूप में देखा। कुछ अंग्रेज अधिकारियों को तो पहले ही समझ आ गया था कि भारत के बारे में जो कुछ सच है, उसके उलट भी सच हो सकता है। इन सबके बीच अपने को बुद्धिमान समझने का अभिमान राज शासकों से होते हुए आजादी के बाद के शासन तक चला आया।अयोध्या में राम मंदिर आंदोलन का इतिहास बताता है कि ये लड़ाई 1948 में बाबरी मस्जिद में राम लला की मूर्ति मिलने के बाद शुरू हुई थी। हालांकि अखबारों को देखने से पता चलता है कि ये मुद्दा 1988-89 में शिला पूजन और 1990 में लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा तक बड़े शहरों तक नहीं पहुंचा था। असल में, 1991 के चुनाव तक देश के बड़े नेताओं को ये अहसास ही नहीं हुआ था कि कुंभ मेले वाला भारत, जिसे नेहरूवादी आधुनिकता से खत्म हो चुका माना जाता था, असल में बहुत प्रभावशाली था। ये समझना मुश्किल था कि हिंदू धर्म और उसके इतिहास से जुड़े लोगों की भावनाएं कितनी गहरी हैं। इसे अक्सर नजरअंदाज किया जाता था। इससे पहले अक्सर ऐसा सोचा जाता था कि पश्चिमीकरण यानी आधुनिकता ही सब कुछ है पर ये चुनाव दिखा गया कि ये बात पूरी तरह सच नहीं है।
राम मंदिर बनने के बाद लोगों में जो खुशी दिखी, उससे कुछ नेताओं को थोड़ा झटका लगा होगा। आने वाले चुनाव में कितने लोग हिंदुत्व विचारधारा को मानते हुए वोट देंगे, अभी ये कहना मुश्किल है लेकिन विपक्ष के कई नेताओं का अचानक हिंदू धर्म को मानने का दिखावा करना कुछ संकेत देता है। लगता है विपक्ष को डर है कि लोग अब ज्यादा हिंदुत्व की तरफ झुक रहे हैं और नरेंद्र मोदी को शायद एक बड़े नेता के रूप में देख रहे हैं। कुछ पार्टियां तो अभी भी विरोध कर रही हैं, पर राम मंदिर के उद्घाटन के बाद से उन्हें मानसिक रूप से थोड़ा कमजोर पड़ते देखा जा रहा है। राहुल गांधी भले ही अपनी यात्रा जारी रखे हों पर कुछ दूसरे नेता नीतीश कुमार की तरह सोचने लगे हैं। इससे पता चलता है कि ‘इंडिया’ गठबंधन के कुछ दलों के बीच वास्तविक डर है।
आने वाले हफ्तों में हो सकता है कि बीजेपी के पुराने और साथी वापस आ जाएं। बीजेपी की ओर से लोगों को अयोध्या में मंदिर दर्शन का इंतजाम किया जा रहा है। कुछ लोग पूरे भारत में राम मंदिर का प्रसाद भी बांट रहे हैं। इसके पीछे ये सोच भी हो सकती है कि जिस तरह 30 साल पहले शिला पूजन और रथ यात्रा से लोगों में जोश आया था, उसी तरह अब भी लोगों को आकर्षित किया जा सकता है। 2024 का चुनाव राम मंदिर के आसपास घूमेगा या नहीं, ये अभी पता नहीं। जो लोग हिंदुत्व विचारधारा से जुड़े हैं और 1991 से बीजेपी को वोट देते आ रहे हैं, उन्हें जरूर ये कहानी लुभाएगी। लेकिन मोदी सरकार 2014 से सत्ता में है, इसलिए सिर्फ हिंदुत्व की बात करके ही सबको लुभा पाना मुश्किल होगा।
2002 के गुजरात दंगों के बाद नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री के तौर पर जीते थे, पर 2007 में उनकी जीत का श्रेय गुजरात के विकास को दिया गया। 2012 में भी यही हुआ। पिछले हफ्ते संसद में उनकी बातों से साफ था कि वो अपने 10 साल के काम को बताकर चुनाव लड़ना चाहते हैं। 2024 में बीजेपी का चुनाव अभियान विकसित भारत और मोदी के वादों के इर्द-गिर्द घूमेगा। विपक्ष सांप्रदायिकता और पुराने भारत को खत्म करने का आरोप लगाएगा तो मोदी जवाब में अपने काम और भविष्य के लिए अपने नजरिए से देंगे। अयोध्या का गौरव, एक बड़े सपने का प्रतीक बनेगा, मानो भारत दुनिया में आगे बढ़ने को तैयार है। ये तस्वीर उन लोगों की समझ से बाहर है जो सिर्फ बड़े शहरों में रहते हैं।