यह सवाल उठना लाजिमी है कि चुनाव से पहले ही किसानों ने आंदोलन क्यों किया है! सड़कों पर कंटीले तार। नुकीले कील। कंक्रीट के बड़े-बड़े बोल्डर। कंटेनर। बैरिकेडिंग। क्रंक्रीट की ढलाई करके बनाए जा रहे अवरोधक। बड़ी तादाद में पुलिस का पहरा। देश की राजधानी दिल्ली की सीमाओं का ये हाल है। ये दृश्य देखकर एक पल के लिए ऐसा लग सकता है जैसे कोई दुश्मन शहर पर चढ़ाई करने वाला हो और उसे रोकने की तैयारी चल रही। लेकिन असलियत क्या है? असलियत ये है कि ये तैयारी पंजाब, हरियाणा और दिल्ली से सटे राज्यों से आंदोलनकारी किसानों को राष्ट्रीय राजधानी आने से रोकने की है। हरियाणा में तो कुछ जगहों, खासकर शंभू बॉर्डर पर आंदोलनकारी किसानों और पुलिस में झड़प हुई। आंदोलनकारियों पर पुलिस ने रबड़ की गोलियां और आंसू के गोले छोड़े। ड्रोन से आंसू गैस के गोले छोड़े गए। पानी की बौछार की गई। किसान भी उग्र हुए। पत्थरबाजी की। तोड़फोड़ की कोशिश की। फ्लाइओवर की रेलिंग तोड़ दिया। जगह-जगह बैरिकेडिंग तोड़ी गई या तोड़ने की कोशिश की गई। कई किसान जख्मी भी हुए हैं। किसानों ने शाम को दिल्ली कूच रोक दिया और अब बुधवार को फिर से दिल्ली के लिए निकलेंगे। लोकसभा चुनाव अब बमुश्किल दो महीने दूर है। लिहाजा सियासी तड़का भी लग रहा है। देश पर सबसे लंबे समय तक शासन करने वाली कांग्रेस ने गारंटी कार्ड खेल दिया है- सत्ता में आए तो सबसे सबसे एमएसपी को कानूनी गारंटी देने का कानून लाएंगे। कांग्रेस समेत विपक्षी दलों को किसान आंदोलन में सियासी लाभ का मौका दिख रहा तो मोदी सरकार बातचीत के जरिए किसानों को मनाने और बात न बनने पर उन्हें दिल्ली पहुंचने से रोकने की हर मुमकिन कोशिश कर रही है। किसान संगठनों की अपनी मांगें हैं लेकिन आंदोलन की टाइमिंग सवाल खड़े कर रही। चुनाव से पहले ही आंदोलन क्यों? क्या टाइमिंग की वजह से आंदोलन से सियासत की बू नहीं आ रही? वैसे जब भीड़तंत्र के आगे सरकारें सरेंडर करने लगेंगी तो आंदोलन के नाम पर अराजकता से सत्ता को झुकाने की कोशिशें तो होंगी ही। पंजाब और हरियाणा से सैकड़ों, हजारों की तादाद में दिल्ली कूच करते किसान। सड़कों पर किसान संगठनों के झंडे लगे ट्रैक्टर-ट्रॉली और दूसरी गाड़ियों का लंबा काफिला। ट्रालियों पर लगा तिरपाल उसके नीचे लदे गद्दे, कंबल, बर्तन, राशन समेत जरूरी सामान। तैयारी पूरी है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में डेरा डालने की तैयारी। महीनों डेरा डाल रखने की तैयारी। काफिले में खुदाई की मशीनें भी दिख जाएंगी जिनके बारे में किसानों का दावा है कि इसका इस्तेमाल बैरिकेडिंग तोड़ने में किया जाएगा। मंगलवार को यह दृश्य अंबाला के शंभू बॉर्डर पर दिखा। जींद हो या कुरुक्षेत्र…हरियाणा में तमाम जगहों पर ये आम दृश्य था। दूसरी तरफ, दिल्ली कूच कर रहे इन किसानों को रोकने के लिए पुलिस डटी हुई थी। हरियाणा में जगह-जगह किसानों और पुलिस में टकराव की स्थिति भी देखने को मिली। दिल्ली में एक महीने के लिए धारा 144 लागू हो चुकी है। हरियाणा के 15 जिलों में 144 लागू है। 7 जिलों में इंटरनेट बंद है। इस बार के आंदोलन में 200 के करीब किसान संगठन शामिल हैं। पिछले आंदोलन के चेहरे रहे राकेश टिकैत की भारतीय किसान यूनियन इस आंदोलन में शामिल नहीं है लेकिन टिकैत ने दो टूक कह दिया है कि जरूरत पड़ी तो दिल्ली दूर नहीं है। उन्होंने किसान आंदोलन को समर्थन देते हुए मोदी सरकार को उनकी मांगों को मानने की नसीहत दे रखी है।
लोकसभा चुनाव सिर पर है लिहाजा मोदी सरकार नहीं चाहती कि दिल्ली में आंदोलनकारी किसान 2020-21 की तरह डेरा डालें। किसानों के मसीहा कहे जाने वाले चौधरी चरण सिंह और महान कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन को ‘भारत रत्न’ से नवाजने को किसान समुदाय को साधने की कोशिश के रूप में ही देखा गया। वही किसान पीएम मोदी की प्राथमिकता वालीं 4 जातियों में से एक हैं। मोदी सरकार को डर है कि चुनाव से पहले दिल्ली में किसान आंदोलन उसके किए कराए पर पानी फेर सकता है और पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी यूपी में उसे नुकसान उठाना पड़ सकता है। इसीलिए सरकार इस बार शुरुआत से सक्रिय है। किसान संगठनों की तरफ से ‘दिल्ली चलो’ के आह्वान के बाद मोदी सरकार बातचीत के लिए किसानों के दर पर पहुंच गई। सोमवार को किसानों को दिल्ली मार्च वापस लेने के लिए मनाने की कोशिश होती रही। चंडीगढ़ में तीन-तीन केंद्रीय मंत्री किसान संगठनों से बातचीत करते रहे। कृषि मंत्री अर्जुन मुंडा, खाद्य-आपूर्ति मंत्री पीयूष गोयल और गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय किसान नेताओं के साथ सोमवार देर रात तक बात करते रहे। 6 घंटे तक चली बातचीत में पिछले आंदोलन के दौरान किसानों पर दर्ज हुए केस वापस लिए जाने समेत कुछ मांगों पर सहमति भी बन गई। लगा कि किसान मान जाएंगे लेकिन आखिरकार वे नहीं माने।
आंदोलनकारी किसानों की मांग है कि एमएसपी की कानूनी गारंटी दी जाए और इसके लिए कानून बनाया जाए। स्वामीनाथन कमिटी की सिफारिशों को लागू किया जाए। किसानों और कृषि मजदूरों को पेंशन दी जाए। विश्व व्यापार संगठन से भारत निकल जाए। 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून को फिर से लागू किया जाए। पिछली बार आंदोलन तीन कृषि कानूनों को वापस लेने को लेकर था। संसद से पास होने के बावजूद सरकार ने कृषि कानूनों को लागू करने को टाल दिया था फिर भी किसान आंदोलन पर अड़े रहे। देश की राजधानी को आंदोलन के नाम पर तकरीबन एक साल तक बंधक बनाकर रखा गया। सड़कों पर किसानों ने तंबू कनात तो टांग रखे ही थे, कुछ जगहों पर पक्के निर्माण तक कर दिए। स्थानीय लोगों को असुविधा होती रही। आधे घंटे की दूरी तय करने में तीन-तीन घंटे झेलने पड़ रहे थे। स्कूली बच्चों को दिक्कतें। आम लोगों को दिक्कतें। बीमार लोगों को दिक्कतें। हालत ये थी कि मेडिकल इमर्जेंसी की स्थिति में मरीज की जान जाने का जोखिम कई गुना बढ़ चुका था क्योंकि किसान सड़कें घेरकर आंदोलन कर रहे थे।
हत्या, रेप, हिंसा…किसान आंदोलन के दौरान क्या-क्या नहीं हुआ। आंदोलन के नाम पर अराजकता का नंगा नाच दिखा। अक्टूबर 2021 में सिंघु बॉर्डर पर लखबीर सिंह नाम के शख्स की उस बेरहमी से हत्या की गई कि आईएसआईएस भी शर्मा जाए। पंजाब के तरनतारन के उस दलित युवक को मारकर शव को उल्टा लटका दिया गया था। मई 2021 में टिकरी बॉर्डर पर पश्चिम बंगाल से आई एक 25 वर्ष की युवती से कथित तौर पर रेप हुआ। बाद में पीड़ित की मौत हो गई। पीड़ित के पिता इंसाफ की गुहार लगाते रहे। आंदोलन के दौरान दिल्ली की सड़कों पर अराजकता का कैसा नंगा नाच हुआ उसका अंदाजा 26 जनवरी 2021 को लाल किला पर कथित आंदोलनकारियों की दंगाई हरकतों से समझा जा सकता है। ट्रैक्टर मार्च के नाम पर देश की राजधानी को गणतंत्र दिवस पर पंगु बनाने की कोशिश हुई। आंदोलन के नाम पर आगजनी, तोड़फोड़ और हिंसा की गई। सैकड़ों पुलिसकर्मी जख्मी हुए।
एक पूरे शहर को आंदोलन के नाम पर महीनों तक एक तरह से बंधक बनाकर रखा गया। देश की राजधानी की सीमाओं को घेरकर मनमानी की गई। आखिरकार नवंबर 2021 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन तीन कृषि कानूनों को वापस लेने का ऐलान कर दिया, जिसके खिलाफ किसान आंदोलन कर रहे थे। यह एक सरकार का भीड़तंत्र के सामने सरेंडर था। प्रधानमंत्री ने ‘तपस्या में कुछ कमी’ रह जाने की बात कही। कानून वापस लेने का ऐलान करते वक्त भी पीएम ने उन कानूनों को किसानों का हितैषी ही बताया। ये लाचारी जाहिर की कि वह इस मुद्दे पर किसानों को समझा नहीं पाए, शायद उनकी ‘तपस्या में ही कुछ कमी रह गई’ थी। अगर कानून किसानों के हित में थे तो उन्हें वापस क्यों लिया गया? जाहिर सी बात थी कि 3-4 महीने बाद ही यूपी और पंजाब में विधानसभा चुनाव थे जहां बीजेपी को किसान आंदोलन से नुकसान की आशंका थी। नतीजतन सालभर तक अड़े रहने के बाद, लागू करना टालने के बाद सरकार ने तीनों कानून वापस ले लिए। ये बात अलग है कि इस कदम से बीजेपी को न पंजाब में कुछ फायदा हुआ और न ही पश्चिमी यूपी में। हां, भीड़तंत्र के आगे एक कथित ताकतवर सरकार के सरेंडर से वैसे तत्वों का हौसला जरूर बढ़ गया कि आंदोलन के नाम सड़कों पर अराजकता या फिर शहरों को बंधक बनाकर सरकारों को झुकाया जा सकता है। इस बार भी आंदोलन की आड़ में सियासत है। लोकसभा चुनाव से पहले शुरू हो रहा आंदोलन साफ बता रहा कि मंशा सियासी है। इसे नकारना खुद की आंखों में धूल झोंकने जैसा है। 2020-21 में किसान आंदोलन की आड़ में सियासत को पूरे देश ने देखा। पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में प्रचार करते किसान आंदोलन के चेहरों को पूरे देश ने देखा। चुनावी रैलियां करते किसान नेताओं को पूरे देश ने देखा। अब लोकसभा चुनाव से पहले फिर आंदोलन शुरू हो चुका है। मोदी सरकार के लिए ये चुनौती भी है। सख्ती किए तो नुकसान का डर। सख्ती नहीं किए तो फिर महीनों तक राष्ट्रीय राजधानी में प्रमुख सड़कों को जाम किए जाने और उससे संभावित सियासी नुकसान का डर।